भारत में टिकाऊ खेती की संभावनाओं का अभाव
हालांकि सरकार टिकाऊ कृषि की दिशा में छोटे-छोटे कदम उठा रही है, लेकिन भारत के कृषि कार्यबल से लेकर इसकी राजनीतिक अर्थव्यवस्था तक की कुछ चुनौतियाँ हैं, जिन्हें समझने और उनसे निपटने की जरूरत है।
हालांकि सरकार टिकाऊ कृषि की दिशा में छोटे-छोटे कदम उठा रही है, लेकिन भारत के कृषि कार्यबल से लेकर इसकी राजनीतिक अर्थव्यवस्था तक की कुछ चुनौतियाँ हैं, जिन्हें समझने और उनसे निपटने की जरूरत है।
यदि हम भारत सरकार के नए कृषि कार्यक्रमों को देखें, तो भारत में टिकाऊ कृषि पद्धतियों का भविष्य उज्ज्वल दिखता है।
उदाहरण के लिए, 2021 में, सरकार ने घोषणा की, कि ‘राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन’ (NMSA) कृषि को अधिक उत्पादक, टिकाऊ और आकर्षक बनाएगा।
राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन’ (NMSA) का एक विजन (परिकल्पना) है: “NMSA पर्यावरण के अनुकूल टेक्नोलॉजी की ओर निरंतर बढ़ते हुए, ऊर्जा-कुशल उपकरणों को अपनाकर, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, एकीकृत खेती, आदि के द्वारा सतत विकास मार्ग के माध्यम से, ‘जल-उपयोग कुशलता’, ‘पोषक तत्व प्रबंधन’ और ‘आजीविका विविधीकरण’ के प्रमुख आयामों को प्राप्त करने में योगदान देगा।”
NMSA के विजन में यह भी कहा गया है – “NMSA का उद्देश्य मिट्टी-स्वास्थ्य प्रबंधन, बेहतर जल उपयोग कुशलता, रसायनों के विवेकपूर्ण उपयोग, फसल विविधीकरण, लगातार फसल-पशुधन कृषि पद्धतियों को अपनाने और फसल-सेरीकल्चर, कृषि-वानिकी, मछली पालन, आदि जैसे एकीकृत तरीकों के माध्यम से स्थान-विशिष्ट उन्नत कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना है।”
कई स्थानों पर टिकाऊ तरीकों को अपनाने के लिए गुलदस्ते के स्तर पर किए गए प्रयासों को देखा जा सकता है। लोकप्रिय पत्रिकाएँ अक्सर ऐसी कहानियाँ प्रकाशित करती हैं।
एक और उत्साहजनक पक्ष यह है कि सिक्किम जैसे भारत के छोटे राज्य कैसे अधिक टिकाऊ होते जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश टिकाऊ कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने के लिए ठोस प्रयास कर रहा है। हालांकि, जमीन पर काम करने वाले लोग, एक उद्देश्य से ही सीमांत और छोटे किसान समुदायों से आते हैं।
यदि कुछ महत्वपूर्ण बाधाओं को छोड़ दें, तो वाकई भविष्य उज्ज्वल दिखता है।
टिकाऊ खेती वांछनीय है, और इसकी संभावनाओं को लेकर बहुत कम असहमति है। फिर भी, जैसा कि कहा जाता है – यदि इच्छाएँ घोड़े होतीं, तो सवार हो कर भिखारी महल पहुँच जाते।
इसलिए, NMSA के उद्देश्यों को प्राप्त करने में शामिल कई जटिल मुद्दों को समझना महत्वपूर्ण है। भारत में टिकाऊ कृषि पद्धतियों का भविष्य सुनिश्चित करने के लिए, नीचे दिए गए पांच महत्वपूर्ण मुद्दों से निपटना महत्वपूर्ण है।
1. शुरुआती वर्षों में पैदावार में गिरावट
जैसे-जैसे किसान “पारंपरिक” खेती, जिसमें सिंथेटिक रासायनिक पोषक तत्वों और पौधों की सुरक्षा के उपायों का उपयोग शामिल है, छोड़कर प्राकृतिक सामग्री पर निर्भर टिकाऊ कृषि पद्धतियों को अपनाते हैं, तो शुरू के वर्षों में फसल की पैदावार कम हो जाती है। बहु-मौसम और विविध फसल सुनिश्चित करने के लिए नए तरीके सामने आ रहे हैं, जिससे उपज में गिरावट के आर्थिक प्रभाव कम होंगे। हालांकि, ये अभी शुरुआती चरण में हैं।
इसके अलावा, टिकाऊ पद्धतियों में खर्च, पारम्परिक खेती की तुलना में कम होता है। फिर भी, मजदूरी का खर्च ज्यादा है और फसल में गिरावट की भरपाई के लिए मूल्य में कोई खास फायदा नहीं मिलता। असल में फसल पर खर्च के लिए अतिरिक्त मूल्य का आश्वासन एक कारण है कि किसान इस पर विचार भी करते हैं।
लागत में बचत, बेशक वह शुद्ध आय पर उतना ही प्रभाव डालती है, लेकिन यह किसानों को नहीं लुभाती। इससे पता चलता है कि इस तरह की पद्धतियों को अपनाने में किसान हिचकते क्यों हैं। इसके लिए कोई तुरत-फुरत समाधान उपलब्ध नहीं है।
2. मेहनत में वृद्धि
टिकाऊ पद्धतियों से किसानों के काम का बोझ काफी बढ़ जाता है। प्राकृतिक पोषक तत्व और प्राकृतिक फसल संरक्षण सामग्री के लिए सामान जुटाने में ज्यादा मेहनत लगती है।
हम जानते हैं कि खेती पहले ही तेजी से महिलाओं और बुजुर्ग मजदूरों पर निर्भर होती जा रही है। इस तरह, जब परिवार टिकाऊ पद्धतियों को अपनाते हैं, तो मेहनत का बोझ उन्हीं पर बढ़ जाता है।
वर्तमान में इन सामग्रियों के सामूहिक रूप से निर्माण की कोई व्यवस्था नहीं है। और यह एक बहस का मुद्दा है कि क्या अधिक मजदूरी की मांग करने वाली टिकाऊ पद्धतियों को बढ़ावा देने के ऐसे प्रयास, पहले से ही अनिच्छुक युवा को उत्साह से खेती करने के लिए प्रेरित करेंगे।
3. आवश्यक सामग्री की उपलब्धता और पहुँच
प्राकृतिक पोषक तत्वों और फसल सुरक्षा सामग्री के लिए, पशुओं का गोबर, गोमूत्र, कुछ पौधों और पेड़ों की पत्तियों और दूसरे बेकार वनस्पति पदार्थों की जरूरत होती है। मशीनीकरण के बढ़ने से गांवों में जानवरों की संख्या कम हो गई है, जिससे पशुओं के मलमूत्र की कमी हो गई है। यह कमी इस हद तक है कि कई क्षेत्रों में गोमूत्र बाजार उभर रहे हैं।
देश में शुष्क भूमि वाले विशाल भूभाग में, पेड़-पौधे दुर्लभ हैं। ऐसे में पत्तियों या दूसरी फसल संरक्षण सामग्री की उपलब्धता एक समस्या है। मल्चिंग तक के लिए पत्ते मिलना मुश्किल हो रहा है। डेयरी उत्पादन बढ़ाने का मतलब है कि किसान फसलों के बचे हुए हर संभव टुकड़े का उपयोग सूखे चारे के रूप में करते हैं। सिर्फ फसल की बहुत ज्यादा सघनता वाले इलाकों में ही फसल के बचे हुए अवशेष की समस्या देखी जाती है। और कुछ कारणों से, जिनका जिक्र आगे किया गया है, इन इलाकों के किसानों के टिकाऊ खेती अपना लेने की संभावना सबसे कम है।
4. व्यापक खाद्य प्रचुरता
दशकों से, कृषि नीति को खाद्य सुरक्षा हासिल करने की राष्ट्रीय प्राथमिकता ने संचालित किया है। लेकिन हमने इस लक्ष्य को पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी यूपी और उत्तरी राजस्थान के अन्न भंडारों में बेहद गैर-टिकाऊ कृषि पद्धतियों की ताकत पर प्राप्त किया है। यदि टिकाऊ खेती को व्यापक स्तर पर अपनाया जाता है, या यहां तक कि उनके धान-गेहूं-धान के फसल-चक्र से हटा जाता है, तो वर्तमान में मौजूद अतिरिक्त खाद्य-भंडार कुछ ही वर्षों में लुप्त हो सकते हैं।
यकीनन, पिछले कुछ वर्षों में आवश्यक खाद्यान्न जरूरत में कमी आई है। यह मुख्य रूप से मशीनीकरण की वजह से शारीरिक श्रम में कमी, परिवहन के आसान साधनों और ऐसे ही दूसरे हालात के कारण हुआ है।
फिर भी, राष्ट्रीय खाद्य व्यवस्थाओं की योजना बनाते समय, इस तरह की गिरावट का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। टिकाऊ कृषि को प्राथमिकता देते हुए, बुनियादी खाद्यान्न प्रचुरता की जरूरत का संतुलित बनाना एक जटिल काम है, जिसे शायद अभी तक पूरी तरह से समझा नहीं गया है या उसकी परिकल्पना नहीं की गई है।
5. राजनीतिक अर्थव्यवस्था
यदि इस संतुलन बनाने की रूपरेखा को समझ और कार्रवाई योग्य नीतियों में परिवर्तित कर भी लिया गया हो, तो भी वर्तमान में भारतीय कृषि पर असर डालने वाली बहुत ही विकृत नीतियों की राजनीतिक अर्थव्यवस्था की मुश्किल मजबूरियों को समझने की जरूरत होगी।
उदाहरण के लिए, जहां भूजल के संरक्षण और पुनर्भरण की जरूरत है, वहीं खेती के लिए बिजली पर लगातार सब्सिडी के कारण, जल-श्रोतों से बेहद गैर-जिम्मेदार तरीके से पानी की निकासी की जाती है। रासायनिक खाद पर सब्सिडी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत महंगी और टिकाऊ कृषि के लक्ष्य के लिए हानिकारक है। फिर भी, कोई भी सरकार वास्तव में उन्हें कम नहीं कर सकती।
अब तक केवल सब्सिडी के गलत दिशा में जाने से रोकने के प्रयास हुए हैं। अधिकांश समझदार अर्थशास्त्री इस बात से सहमत होंगे कि ‘प्रत्यक्ष आय हस्तांतरण’ (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर) योजनाओं के माध्यम से किसान परिवारों की मदद करने का तरीका सबसे अच्छा है। न तो फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य, न ही ऋण माफी या इनपुट्स पर सब्सिडी आर्थिक रूप से तर्कसंगत है। फिर भी हो ठीक वही रहा है, जो वांछनीय नहीं है।
कृषि अर्थव्यवस्था को युक्तिसंगत बनाने के पूरी तरह से समझदारीपूर्ण कदमों के, तर्कहीन और भारी विरोध को देखते हुए, जैसा कि किसान आंदोलन में देखा गया है, विकृत अर्थशास्त्र द्वारा संचालित इन नीतियों को बदलने की कोई संभावना नजर नहीं आती।
इसलिए संक्षेप में, मेरा मानना है कि टिकाऊ खेती में उत्पादन के बेहतर मूल्य का अभाव इसके आकर्षण को कम करता है। इसे लक्ष्य बनाने से पहले, खाद्य सुरक्षा को बनाए रखने और टिकाऊ खेती अपनाने में संतुलन को समझना जरूरी है।
हमें यह भी समझना चाहिए कि टिकाऊ खेती महिलाओं और बुजुर्गों पर ज्यादा कठिन परिश्रम लादती है, जिन पर खेती के ज्यादातर कार्यों में पहले से ही बोझ ज्यादा है।
और अंत में, कृषि क्षेत्र में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के मौजूदा तत्व, टिकाऊ कृषि अपनाने के लिए अनुकूल नहीं हैं।
तो क्या हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि टिकाऊ कृषि तभी एक वास्तविकता बनेगी, जब भारत में पूर्ण शराबबंदी लागू होगी?
दोनों ही मामलों में, मन चाहता है, लेकिन आत्मा विरोध करती है!
संजीव फणसळकर “विकास अण्वेष फाउंडेशन”, पुणे के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान, आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फणसलकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) अहमदाबाद से एक फेलो हैं।
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