शिशुओं को दागने की कुप्रथा से मुक्ति
एक अनोखा तरीका अपनाते हुए, ग्रामीण ओडिशा के स्वास्थ्य कर्मियों ने, ईलाज के लिए नवजात शिशुओं को गर्म लोहे से दागने की कुप्रथा को रोकने के लिए, दागने वाले ओझाओं की ही मदद ली।
एक अनोखा तरीका अपनाते हुए, ग्रामीण ओडिशा के स्वास्थ्य कर्मियों ने, ईलाज के लिए नवजात शिशुओं को गर्म लोहे से दागने की कुप्रथा को रोकने के लिए, दागने वाले ओझाओं की ही मदद ली।
शानदार हरियाली, फूस के घर और ऊबड़-खाबड़ सड़कें। कुंडेई एक आम ओडिशा गाँव की तरह दिखता है। लेकिन खनिज-समृद्ध केंदुझार जिले में होने के बावजूद, यह हरा-भरा गाँव विकास के मामले में पिछड़ा हुआ है।
कुंडेई में 1,000 से ज्यादा लोग रहते हैं, जिनमें मूल समुदाय जुआंग के सदस्य भी शामिल हैं। ओडिशा और दूसरे स्थानों के बहुत से समुदायों की तरह, कुंडेई के लोग अच्छी स्वास्थ्य पद्धतियों से अनजान थे, जैसे कि अस्पतालों में बच्चों को जन्म देना और एक अवधि में सिर्फ स्तनपान कराना।
स्वास्थ्य सुविधाओं तक सीमित पहुंच के कारण, यह समस्या और बढ़ गई, जिससे पहले से ही अन्धविश्वास से ग्रस्त ग्रामीण, ओझाओं पर निर्भर होने के लिए मजबूर हो गए।
ऐसा ही एक अंधविश्वास है, नवजात शिशुओं को ‘बुरी आत्मा’ से बचाने के लिए गर्म लोहे से दागना।
स्थानीय भाषा में ‘चेंका’ कही जाने वाली प्रथा, आमतौर पर बच्चे के जन्म के 7 से 21 दिनों के बाद की जाती है। कभी-कभी, माता-पिता तब तक इंतजार करते हैं, जब तक कि उन्हें बच्चे के पेट पर नीली रक्तशिरा दिखाई नहीं दे जाती, जिसे वे स्थानीय रूप से ‘पिल्ही’ नामक पेट दर्द का मूल कारण मानते हैं।
यूनिसेफ के पोषण विशेषज्ञ, सौरव भट्टाचार्य ने ‘विलेज स्क्वेयर’ को बताया – “जब कोई बच्चा बीमार पड़ता है या नीली शिरा दिखाई देती है, तो समुदाय का मानना है कि बच्चे पर किसी आत्मा का प्रभाव है। उनका मानना है कि गर्म लोहे से बच्चे के पेट को दागने से आत्मा बाहर निकल जाएगी और बच्चा बुरी नज़र से बच जाएगा।”
यह दिखाने के लिए कोई दस्तावेज नहीं हैं, कि यह युगों पुरानी परम्परा कब और कैसे शुरू हुई।
सर्दियों में, विशेष रूप से मकर संक्रांति के फसल उत्सव के दौरान मामले ज्यादा हो जाते हैं।
क्योंकि यह प्रथा ज्यादातर दूरदराज के इलाकों में होती है, इसलिए मामले अक्सर सरकारी अधिकारियों की नजर से बच जाते हैं, जिससे उनका दस्तावेज़ीकरण मुश्किल हो जाता है। ऐसी घटनाएं आमतौर पर तभी सामने आती हैं, जब एक दागे गए बच्चे का सड़ जाता है और उसे अस्पताल लाया जाता है।
हालाँकि यह प्रथा काफी हद तक शिशुओं तक ही सीमित है, लेकिन महिलाओं और पुरुषों में भी गर्म लोहे से दागना हुआ है।
वर्ष 2018 में, ढेंकनाल जिले में 50 से ज्यादा महिलाएँ और बच्चे बड़े पैमाने पर गर्म लोहे से दागने के कार्यक्रम में शामिल हुए। पिछले साल जुलाई में, एक 34-वर्षीय व्यक्ति की टीबी के ईलाज के लिए कई बार दागने के बाद मौत हो गई थी।
यह प्रथा मूल समुदायों की आस्था और विश्वास में गहरी जड़ें जमा चुकी है, जिससे सरकार के लिए हस्तक्षेप करना मुश्किल हो जाता है।
वर्ष 2019 में, ओडिशा सरकार ने ‘विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों’ (PTVG) के सशक्तिकरण के लिए, यूनिसेफ के साथ साझेदारी में, ‘जीवन संपर्क’ परियोजना शुरू की। स्थानीय गैर सरकारी संगठनों के साथ काम करते हुए, परियोजना में गर्म लोहे से दागने को रोकना निर्धारित किया गया।
परियोजना ने परम्परा को रोकने के लिए विपरीत-पद्धति के तरीके को इस्तेमाल किया। समुदाय के बीच सीधे जागरूकता पैदा करने की बजाय, टीम ने पारम्परिक चिकित्सकों से संपर्क किया, जिन्हें स्थानीय रूप से बिशारी कहा जाता है।
हाशिए पर जीने वालों और आदिवासी समुदायों के लिए काम करने वाले एक गैर सरकारी संगठन, ‘दक्षिण ओडिशा स्वैच्छिक कार्रवाई’ (SOVA) के संजीत पटनायक ने बताया – “यह एक सर्वविदित तथ्य है कि पूरा समुदाय बिशारियों की बात सुनता है। जब हमने बिशारियों को बताया कि वे एक दंडनीय अपराध कर रहे हैं, तो बहुत विरोध हुआ, क्योंकि यह उनकी आजीविका का एकमात्र स्रोत था।”
लेकिन टीम ने उन्हें बताया कि उन्हें अपनी पूजा या धार्मिक अनुष्ठान छोड़ने के की जरूरत नहीं है।
पटनायक कहते हैं – “हमने उनसे सिर्फ यह कहा कि जब माता पिता बच्चों को लाएं, तो वे उन्हें अस्पताल भेजें। इस तरह, बिशारियों की आजीविका बच गई और बच्चे का समय पर ईलाज हो गया।”
इस समस्या से निजात का दूसरा तरीका, ‘तीन ए’ के साथ काम करने का था, यानि आशा (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता), आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और एएनएम (सहायक नर्सिंग दाइयाँ)। ‘एएए’ ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था का आधार है। क्योंकि दागने पर निगरानी करना एक चुनौती था, इसलिए इन कार्यकर्ताओं ने समुदायों और सरकार के बीच एक पुल का काम किया।
यूनिसेफ ने स्थानीय आशा, केतकी महंत और दूसरे हितधारकों को स्वास्थ्य संबंधी भ्रांतियों और गर्म लोहे से दागने के मामलों से निपटने के तरीके के बारे में प्रशिक्षित किया। लगभग एक दशक के बाद, महंत लोगों को इस प्रथा को रोकने के लिए मनाने में सफल रही हैं।
लेकिन उन्होंने माना कि लोगों के अंधविश्वास को तोड़ना आसान नहीं होता।
महंत ने ‘विलेज स्क्वेयर’ को बताया – “वे सुनते नहीं थे। कभी-कभी मैं धमकी देती थी कि मैं उनके राशन कार्ड छीन लूंगी, जिससे उन्हें रियायती भोजन मिलता था।”
कभी कभी महंत ने माताओं को यह धमकी भी दी कि यदि उन्होंने अपने बच्चों के साथ ऐसा होने दिया, तो उन्हें गर्म लोहे से दागा जाएगा। उन्होंने इस उम्मीद में ऐसा किया कि इस तरह के गंभीर डर से माताओं को एहसास होगा कि यह प्रथा कितनी हिंसक थी।
उन्होंने कहा – “एक बार जब मैंने इस प्रथा को रोक दिया, तो मैंने उन्हें ‘चेंका’ के चिकित्सीय प्रभावों के बारे में बताया।”
हालांकि कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि इन हस्तक्षेपों ने ओडिशा में दागने की प्रथा को कम कर दिया है। वे संस्थागत स्वास्थ्य सेवा में बढ़ते विश्वास को इसके एक सूचक के रूप में देखते हैं।
उदाहरण के लिए, ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण रिपोर्ट-5’ के अनुसार,; ओडिशा में संस्थागत प्रसव दर 2015-16 के 85.3% से बढ़कर 2019-21 में 92.2% हो गई।
भट्टाचार्य कहते हैं – “संस्थागत प्रसव की संख्या में वृद्धि, दागने के मामलों में कमी का संकेतक हो सकती है। यह स्वास्थ्य सुविधाओं पर लोगों के बीच बढ़ते विश्वास को दर्शाता है, जो एक सकारात्मक संकेत है।”
धरातल पर भी बदलाव नजर आ रहा है।
कुन्धेई गाँव के मूल जनजाति जुआंग के सदस्य, चौबीस वर्षीय बसंत जुआंग, जिन्हें 21 दिन की उम्र में दागा गया था, ने गाँव में किसी और को यह परम्परा जारी नहीं रखने देने की कसम खाई है।
वह कहते हैं – “बैठकों में भाग लेने और दागने के दुष्प्रभावों के बारे में जागरूकता पर बनी वीडियो देखने के बाद, अब उनकी सोच में बदलाव आया है।”
बसंत जुआंग भी सन्देश फ़ैलाने में मदद करता है, जिससे उसके गाँव और आस-पास के इलाकों में जागरूकता बढ़ी है। उसे आशा है कि प्रगति रास्ते में है।
उन्होंने कहा – “उम्मीद है यह हानिकारक प्रथा जल्द ही समाप्त हो जाएगी।”
तज़ीन कुरैशी भुवनेश्वर स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।
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