महिलाओं द्वारा 17वीं सदी में पहनी जाने वाली चमकदार, सजावटदार डिज़ाइन वाली बिंदियों ने, पेंटिंग की टिकुली शैली को जन्म दिया, जो लुप्त होने से पहले बेहद लोकप्रिय थी। आज महामारी के झटके के बावजूद, इस कला का पुनरुद्धार हो रहा है।
टिकुली। स्थानीय भाषा का एक शब्द, जो दिमाग में एक भव्य लाल रंग की बिंदी की छवि लाता है, जिसे भारत के ज्यादातर हिस्सों में विवाहित महिलाएं अपने माथे पर लगाती हैं।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि टिकुली कला बिहार की सदियों पुरानी चित्रकला शैली भी है।
विभिन्न शासकों के शाही संरक्षण में चमकदार, गहरे रंग के चमकदार चित्र फले-फूले और बड़ी संख्या में कारीगरों को आजीविका प्रदान की।
बदलते समय के साथ, टिकुली शैली कम हो गई। लेकिन राज्य सरकार और बिहारी कारीगरों की बदौलत, यह कला फिर से जीवित हो रही है।
टिकुली कला: एक बिंदी से पैदा हुई कला
टिकुली को चेहरे की सजावट बने, इसके लिए कांच पिघलाया जाता था, रंग मिलाया जाता था और डिज़ाइन बनाया जाता था। फिर इसे सोने की पत्तियों से संवारा जाता था, ताकि एक महिला के माथे को सुशोभित करने के लिए एक गहने जैसी बिंदी बनाई जा सके। मुगल काल में यह एक फलती फूलती कला थी।
पटना-स्थित एक कला समीक्षक, मनोज कुमार बच्चन ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “व्यावसायिक रूप से इतने गहन तरीके से बिंदी बनाने की कला पटना शहर में फली-फूली। टिकुली का बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाता था और अन्य शहरों के साथ-साथ कानपुर और दिल्ली जैसे शहरों में निर्यात किया जाता था। खरीदार भी बिहार आते थे।”
फिर 17वीं शताब्दी के आसपास, कारीगरों ने उसी तरीके से टिकुली नमूनों और मोटे, चमकदार रंगों के साथ छोटे आकार की कलाकृतियाँ बनानी शुरू कर दी। उनकी भारी प्रशंसा हुई।
इन कलाकृतियों को भी टिकुली ही कहा जाता था, क्योंकि वे उसी सामग्री से बनते थे और उनके डिजाइन भी बिंदी जैसे होते थे।
टिकुली कला का पुनरुद्धार
यह कला तब तक दबी रही, जब तक 1950 में एक प्रसिद्ध कलाकार उपेंद्र महारथी ने इसे पुनर्जीवित करने की कोशिश नहीं की। उनके 1981 निधन के बाद, कलाकार अशोक कुमार विश्वास ने प्रयास जारी रखा।
लेकिन कला 1982 में तब सुर्ख़ियों में आई, जब तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने एशियाड खेलों में भाग लेने वाले सभी 5,000 एथलीटों को आधिकारिक स्मृति चिन्ह के रूप में टिकुली की कलाकृतियाँ उपहार में दी।
इसकी बदौलत कला बच गई।
लेकिन गंभीर पुनरुद्धार असल में 2012 में शुरू हुआ, जब राज्य सरकार ने सक्रिय रुचि ली।
पटना-स्थित ‘उपेंद्र महारथी हस्तशिल्प अनुसंधान संस्थान’ के निदेशक, अशोक कुमार सिन्हा कहते हैं – “लगभग एक दशक पहले, केवल 300 कारीगर थे, जिनमें ज्यादातर महिलाएं थीं। अन्य कारीगरों ने अच्छी आमदनी के अभाव में, दूसरे व्यवसाय अपना लिए। हमारे इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय विलुप्त होने की कगार पर था। हमने इसे पुनर्जीवित करने का फैसला किया।”
उन्होंने टिकुली कला को कला के प्रति उत्साही और आम जनता के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए, प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए और मेलों का आयोजन किया।
सिन्हा ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “इन कदमों और विभिन्न प्रोत्साहनों के माध्यम से हमने इसे पुनर्जीवित किया।”
बाजार रुझानों के अनुकूल टिकुली कला
पुनरुद्धार का श्रेय अशोक कुमार विश्वास को भी जाता है, जिन्होंने कारीगरों में रुचि पैदा की और उन्हें प्रशिक्षण दिया।
बिस्वास कहते हैं – “टिकुली में प्रसिद्ध मधुबनी कला तकनीकों की छाया है। कलाकृति में मुख्य रूप से देवी-देवताओं को दर्शाया जाता है| इनके विषय ज्यादातर पौराणिक कथाओं, त्योहारों, गांवों और रीति-रिवाजों पर आधारित हैं।”
शिल्प में उपयोग किए जाने वाले इनेमल पेंट ज्यादातर चमकीले लाल, पीले, कोबाल्ट नीले और गहरे हरे रंग के होते हैं, ताकि एक गहरे फाइबरबोर्ड पर डिजाइन जीवंत होकर उभरे।
उन्होंने कहा – “हमने ग्राहकों की रुचि के अनुसार पेन स्टैंड, मोबाइल होल्डर और वैसी ही चीजें बनाना शुरू कर दिया है। वे विभिन्न आकारों में हैं और उसी के अनुसार उनकी कीमतें तय की जाती हैं।”
टिकुली कला से बिहार की महिला कारीगरों का आर्थिक विकास हुआ
बिस्वास का कहना था कि टिकुली महिला सशक्तिकरण का भी प्रतीक है, क्योंकि 7,000 से ज्यादा टिकुली कारीगरों में से लगभग 98% महिलाएं हैं।
बिहार के भोजपुर जिले के नरगड्डा गांव की सुमित्रा देवी ने कहा कि कला ने उनके परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार किया है।
उनके ऑटो चालक पति की आय उनकी चार बेटियों को पढ़ा पाने के लिए काफी नहीं थी। परिवार फूस की छत वाली मिट्टी की झोपड़ी में रहता था।
देवी कहती हैं – “लेकिन लगभग दो दशक पहले जब हमने टिकुली कला सीखी, तो हालात बदल गए। मेरी बेटियाँ अच्छे स्कूलों में पढ़ती हैं और अब मिट्टी की झोपड़ी की जगह हमारा दो मंजिला पक्का घर है।”
उनकी तीन बेटियों की शादी हो चुकी है। वह कहती हैं – “लेकिन वे टिकुली बनाना जारी रखे हुए हैं, क्योंकि वे घर से काम करके ही एक अच्छी आजीविका कमा सकती हैं।”
हर कोई इस बात से सहमत है कि पुनरुद्धार इसलिए संभव हो पाया है, क्योंकि इसमें कोई बाहरी काम शामिल नहीं है और इसके काम के घंटे लचीले हैं।
मधुबनी जिले के फुलवारी गांव की आरती कुमारी ने कहा – “हम अपने कार्यक्रम के अनुसार काम करते हैं, क्योंकि हमें अपने परिवार की देखभाल भी करनी होती है। कच्चे माल की उपलब्धता के आधार पर, किसी एक कलाकृति को बनाने में लगभग एक दिन का समय लगता है।
उनकी भाभी संध्या सिंह, जो दो दशकों से ज्यादा समय से टिकुली वस्तुएं बना रही हैं, का कहना था कि वे तैयार उत्पाद सीधे ग्राहकों या थोक विक्रेताओं को बेचते हैं।
“हम चित्रों को आकार और कलात्मकता के आधार पर, 40 रुपये से लेकर 3,000 रुपये तक की कीमत पर बेचते हैं। यह आमदनी परिवार चलाने और थोड़ी रकम बचा लेने के लिए काफी है।”
बेहतर आय की ओर
लेकिन यह सब इतना आसान नहीं है।
हालांकि एजेंट के रूप में काम करने वाले बिचौलिए एक समस्या हैं, क्योंकि वे कारीगरों की आय का एक बड़ा हिस्सा रख लेते हैं।
संध्या सिंह कहती हैं – “इससे हमें नुकसान हो रहा है। हमें बेहतर कमाई के लिए अपने उत्पादों को सीधे ग्राहकों को बेचने के लिए एक व्यवस्था की जरूरत है।”
उस पर लॉकडाउन में कला को गहरा झटका लगा।
कारीगर रूपा चंद्रवंशी ने कहा – “पहले हम प्रदर्शनियों में लगभग 25,000 रुपये महीना कमाते थे और अपने परिवार की आय में वृद्धि करते थे।”
“मेले हमारी आय का मुख्य स्रोत थे, क्योंकि हम अपने उत्पादों को प्रदर्शित कर सकते थे और ऑर्डर भी बुक कर सकते थे। लेकिन COVID के कारण हमारी आय अब मुश्किल से एक तिहाई रह गई है।”
कारीगरों का एक वर्ग मानता है कि सोशल मीडिया व्यापक दर्शकों तक पहुंचने और कला को जीवित और समृद्ध बनाए रखने का सबसे अच्छा समाधान है।
एक कारीगर सबीना इमाम ने बताया – “निस्संदेह, महामारी ने दुनिया को बदल दिया है और हम इससे अछूते नहीं हैं। टिकुली के लिए नए ग्राहक बनाने और बेहतर कमाई के लिए अब हमें डिजिटल प्लेटफॉर्म अपनाना होगा।”
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?