“जल खरपतवार” अजोला बनी पशुओं की सुपरफूड
जब ज्यादातर गरीब किसानों के लिए पशुओं के रखरखाव की लागत एक निरंतर बोझ है, ऐसे में अजोला एक कष्टदायक जल खतपतवार की बजाए पशुओं के लिए एक टिकाऊ और किफ़ायती सुपरफूड बन गया है।
जब ज्यादातर गरीब किसानों के लिए पशुओं के रखरखाव की लागत एक निरंतर बोझ है, ऐसे में अजोला एक कष्टदायक जल खतपतवार की बजाए पशुओं के लिए एक टिकाऊ और किफ़ायती सुपरफूड बन गया है।
पशुपालकों के सामने सबसे बड़ी बाधाओं में से एक उनके पशुओं के चारे की लागत है।
अजोला – फर्न समूह का एक जल-पौधा। कुछ लोग इसे कष्टदायक जल खरपतवार मानते हैं, लेकिन यह पशुओं के लिए नया सुपरफूड बन रहा है।
‘मच्छर फर्न’ से ‘काई-परी’ से लेकर ‘जल-मखमल’ तक, रंग-बिरंगे नामों से पुकारा जाने वाला, यह एक जल-स्रोतों के ऊपर एक बेहतरीन हरी चटाई की तरह विकसित होता है।
यह न सिर्फ पृथ्वी पर सबसे तेजी से बढ़ने वाले पौधों में से एक है, बल्कि एक जलीय पौधा होने के कारण इसे बढ़ने के लिए मिट्टी की आवश्यकता नहीं होती है। प्रोटीन, खनिज और विटामिन के एक समृद्ध मिश्रण से भरपूर, यह एक उल्लेखनीय रूप से कम लागत और उच्च पोषक तत्व युक्त पशुचारा है।
मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले के एक छोटे कस्बे और पंचायत, राजपुर अजोला पर, एक टिकाऊ, कम लागत, कम ऊर्जा और कम रखरखाव-खर्च वाले चारे के रूप में प्रयोग कर रहा है, जिसके शुरुआती परिणाम आशाजनक हैं।
ट्रांसफॉर्मिंग रूरल इंडिया फाउंडेशन (TRIF) द्वारा संचालित इस पायलट प्रोजेक्ट का लक्ष्य अब मध्य प्रदेश के और ज्यादा प्रशासनिक खण्डों और जिलों में अजोला के इस्तेमाल का विस्तार करना है।
राजपुर के कई ग्रामवासियों का कहना है कि उन्होंने जब से अपने पशुओं के चारे के रूप में अजोला का उपयोग शुरू किया है, दूध की पैदावार दोगुनी हो गई है और जानवर पहले से ज्यादा स्वस्थ हैं।
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TRIF के ब्लॉक मैनेजर, अभिषेक गुप्ता मानते हैं कि पायलट प्रोजेक्ट से पहले, खुद उन्हें इस अद्भुत पौधे और किसानों की मदद की इसकी विशाल क्षमता के बारे में भी नहीं पता था।
वह कहते हैं – “जब मैंने प्रभाव को देखा, तो मैं हैरान रह गया। मुझे हैरानी हुई कि सब ग्रामीण इसका उपयोग क्यों नहीं कर रहे थे?”
अजोला में अनोखे गुण होते हैं, जो वातावरण से नाइट्रोजन प्राप्त करता है। यह न सिर्फ जैविक खाद और पशुओं का चारा पैदा करता है, बल्कि इंसान के खाने के लिए भी उपयुक्त है। इसका उपयोग जैविक ईंधन के रूप में भी किया जा सकता है।
पायलट कार्यक्रम में शामिल महिलाएं ही अजोला एम्बेसडर बनी हैं, जो जागरूकता फैलाने में महत्वपूर्ण साबित हुई हैं। वे और अधिक परिवारों को अपने पशुओं के लिए अजोला का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। वे दूसरों को बताती हैं कि इसकी उपयोगिता के आलावा, यह कितना किफायती और इस्तेमाल में आसान है।
राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (NABARD) भी अपने वाटरशेड डेवलपमेंट फंड (WDF) के अंतर्गत अपनी आजीविका गतिविधियों के हिस्से के रूप में, अजोला के उपयोग को प्रोत्साहित कर रहा है।
नाबार्ड की प्रदर्शन इकाइयों ने कई पशुपालकों को अजोला इकाइयां स्थापित करने के लिए प्रेरित किया है।
अजोला उगाने के लिए, दो फीट गहरे, 5 फुट लम्बे और 3 फुट चौड़े गड्ढे की जरूरत होती है।
गड्ढे में प्लास्टिक की चादर बिछाकर पानी, मिट्टी और गाय के गोबर से भर दिया जाता है। फिर पानी में मुट्ठी भर अजोला डाल दिया जाता है। सिर्फ छह से आठ दिनों में, पूरा गड्ढा एजोला से ढक जाता है, जिसे निकालकर पशुओं को खिलाया जा सकता है। यह कम रखरखाव प्रक्रिया टिकाऊ रहती है, क्योंकि इसके रखरखाव में किसी महंगे उपकरण या रसायनों के लिए निवेश की जरूरत नहीं होती है।
गड्ढे में पानी जरूरत के अनुसार फिर से भरा जा सकता है, जबकि अजोला मौसम-परिवर्तन के बावजूद भी बढ़ता रहता है।
नाबार्ड के अनुमान के अनुसार, अजोला का लगभग 8×5 वर्गफुट आकार का चारा प्लॉट बनाने में लगभग 1,800 रुपये का खर्च आता है।
मध्य प्रदेश के नीमच जिले में, अजोला को पशु आहार में शामिल करने से भैंस के दूध उत्पादन में 13.8% की वृद्धि हुई। दूध में वसा की मात्रा में भी सुधार हुआ।
राजपुर पंचायत के गांवों की महिलाओं ने भी जानकारी दी कि अजोला ने उनके पशुओं के समग्र स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद की है। कमजोर और बूढ़े पशु भी अजोला चारा खा कर ताकत हासिल करते हैं और कृषि उद्देश्यों के लिए व्यवहार्य हो जाते हैं। जिन गायों और भैंसों ने दूध देना बंद कर दिया था, उनके भी फिर से दूध देने की सूचना मिली है। परिणाम नियमित रूप से खिलाने के दो सप्ताह के भीतर ही देखे जा सकते हैं।
नांदेड़ गांव की रहने वाली चंदा कौशल ने अपनी भैंस को अजोला में गेहूं का आटा मिलाकर खिलाना शुरू किया।\
कौशल कहती हैं – “इससे मेरी भैंस के दूध की पैदावार लगभग 1.5 लीटर बढ़ गई है।”
वह अब समुदाय की अन्य महिलाओं को अपने पशुओं के आहार में अजोला को शामिल करने के लिए सक्रिय रूप से प्रोत्साहित कर रही हैं।
गांव में इसके सफलतापूर्वक अपनाने पर गर्व करते हुए, TRIF के ब्लॉक प्रबंधक गुप्ता ने कहा कि जब ग्रामीण दूध उत्पादन और अपने पशुओं के स्वास्थ्य में सुधार देखते हैं, तो उन्हें इसकी उपयोगिता का एहसास होता है।
वह कहते हैं – “फिर वे इसका उपयोग जारी रखना चाहते हैं और पड़ोस के गांवों में भी इसका प्रचार करते हुए ‘अज़ोला राजदूत’ बन जाते हैं।”
वान्या गुप्ता ट्रांसफॉर्मिंग रूरल इंडिया फाउंडेशन में संचार और आउटरीच प्रबंधक हैं।
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