कभी बाल श्रम के लिए मजबूर हो चुके युवा बिहारी, बाल तस्करी की भयावहता के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए साइकिल चलाते हैं, क्योंकि आर्थिक जरूरतों के कारण परिवारों को, बेहतर आजीविका के झूठे वादों पर अपने बच्चों को भेजना पड़ता है।
मोहम्मद शाबाज़ पौ फटे जाग जाते हैं। जब वह अपने बचपन के वर्षों के बारे में सोचते हैं, तो सोते रहने का कोई भी विचार गायब हो जाता है। दूर दिल्ली में बिताए साल, जब उन्हें नन्हे हाथों से बिना रुके घंटों तक कढ़ाई का काम करना पड़ता था। जब तक कि उन्हें बचा नहीं लिया गया।
गाँव में हलचल शुरू होने के समय, वह वहां होना चाहते हैं, ताकि लोगों का ध्यान खींच सकें। वह घर से जल्दी निकल जाते हैं, ताकि वह अपना एकल साइकिल अभियान शुरू कर सकें। यह एक मजे की सवारी नहीं, बल्कि एक मिशन यात्रा है।
बाल तस्करी और बाल मजदूरी के संवेदनशील मुद्दे पर जागरूकता फैलाने के लिए, 20-वर्षीय शाबाज़ कम से कम पाँच गांवों का दौरा करते हैं।
वह एक बच्चे के रूप में मजदूरी और शोषण के लिए मजबूर होने की भयावहता के बारे में सब कुछ जानते हैं, क्योंकि बचपन में काम के लिए उनकी तस्करी हुई थी। अपने मुक्त हो जाने के बाद, तस्करी हुए अन्य बच्चों के साथ मिल कर, दूसरे बच्चों के साथ ऐसा होने से रोकने के लिए, जागरूकता पैदा कर रहे हैं।
बाल तस्करी : ग्रामीणों को झूठी उम्मीदों से बरगलाना
बिहार के कटिहार जिले के कठोतिया गांव में रहने वाले शाबाज़ को, 2018 में दिल्ली की एक ज़री-फैक्ट्री से छुड़ाया गया था।
उनके पिता एक खेत मजदूर हैं और उनकी आय सात लोगों के अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए काफी नहीं थी। उनका कहना है कि उन्हें अपने बेटे को ऐसे काम पर भेजने के लिए बरगलाया गया था, जिसे एक अच्छी नौकरी माना जाता था।
शाबाज़ कहते हैं – “आर्थिक कठिनाइयों के कारण मेरे पिता को मुझे कम उम्र में काम पर भेजना पड़ा। एक ग्रामीण द्वारा वहां मेरे लिए बेहतर आजीविका का वादा करने के बाद, उन्होंने मुझे दिल्ली भेज दिया।”
कठिनाइयों के बाद मुक्ति
लेकिन हकीकत बिल्कुल अलग थी। मात्र 13 साल की उम्र में, शाबाज़ से फैक्ट्री में दिन में 17 घंटे काम कराया जाता था।
वह याद करते हैं – “मैं कपड़ों पर कढ़ाई करता था और मुझे 3,000 रुपए का मामूली भुगतान किया जाता था। मुझे कई घंटों तक खाना नहीं मिलता था, क्योंकि रुकने का मतलब होता था, काम का नुकसान।”
बिहार के विभिन्न गांवों के लगभग 30 किशोरों के साथ उन्हें 2018 में, बच्चों के लिए काम करने वाले एक गैर-लाभकारी संगठन, कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रन फाउंडेशन (KSCF) की एक शाखा, ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की बदौलत बचा लिया गया था।
शाबाज़ अब स्कूल में नौवीं कक्षा में पढ़ते हैं। उनकी इच्छा है कि सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले और वे अपने बचपन का आनंद लें।
‘मुक्ति कारवां’ : बाल तस्करी रोकने के लिए एक अभियान
बिहार में मानव तस्करी पर जागरूकता पैदा करने के लिए, ‘मुक्ति कारवां’ अभियान कैलाश फाउंडेशन द्वारा सितंबर 2020 में शुरू किया गया।
यह लॉकडाउन के दौरान सैकड़ों बच्चों और युवा वयस्कों के गांवों में लौटने के बाद शुरू किया गया था।
KSCF की जिला समन्वयक, रश्मि प्रिया ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “लॉकडाउन में ढील के बाद उन्हें काम करने के अमानवीय हालात में वापस जाने से रोकने के लिए, हमने उन्हें अपने तस्करी विरोधी अभियान में शामिल किया।”
शाबाज़ और अभियान के दूसरे सदस्यों को उनके द्वारा कार्य के वर्षों के आधार पर, 9,000 से 13,000 रुपये के बीच वेतन का भुगतान किया जाता है, और वे जागरूकता पैदा करने के लिए साइकिल से एक दैनिक दिनचर्या का पालन करते हैं।
उनमें, तस्करी एजेंट के रूप में काम करने वाले ग्रामवासियों के जाल में पड़ने के खतरे के बारे में, माता-पिता को सचेत करने का जूनून है।
बाल तस्करी के खिलाफ अभियान में चुनौतियाँ
जहां संकरी और अक्सर कच्ची सड़कों पर साइकिल चलाना मुश्किल होता है, वहीं माता-पिता को समझाना और भी ज्यादा मुश्किल होता है।
प्रिया कहती हैं – “क्योंकि गरीब परिवार छोटे बच्चों को भी कमाऊ समझते हैं, इसलिए उन्हें मनाना आसान नहीं होता।”
इमामनगर गांव की एक गृहिणी, रबीना खातून का तर्क था – “लोग यहां बहुत गरीबी में रहते हैं और पैसे कमाने के कोई रास्ते नहीं हैं। यदि वे शहर में नहीं जाएंगे और अपने परिवार के लिए नहीं कमाएंगे, तो हम खाएंगे कैसे?”
इसी गांव के मोहम्मद छोटू, जो खुद तस्करी से मुक्त हुए हैं, को अभियान जोखिम भरा लगता है, क्योंकि बाल तस्कर उन्हें एक खतरा मानते हैं।
उनका कहना है – “हम लोगों से सीधे उनके बच्चों के ठिकाने के बारे में नहीं पूछते। लेकिन हम उन्हें बाल तस्करी के खतरों के बारे में समझाने की कोशिश करते हैं।”
बाल विवाह जैसे अन्य मुद्दे भावुक मुद्दे बन जाते हैं, जिनके खिलाफ अभियान सदस्य पैरवी करते हैं।
अभियान के एक सदस्य, मोहम्मद सरिफुल कहते हैं – “लॉकडाउन के दौरान बाल विवाह में वृद्धि हुई, क्योंकि गरीब परिवारों ने अपना आर्थिक बोझ कम करने के लिए अपनी बेटियों की शादी कर दी।”
उन्होंने कहा कि पिछले साल उन पर हमला हुआ था, जब उन्होंने बाल विवाह को रोकने की कोशिश की।
“मुझे गंभीर चोटें आईं। लेकिन मैं इससे विचलित नहीं हुआ।”
मानव तस्करी में बिहार का खराब ट्रैक रिकॉर्ड
मानसिकता में बहुत धीमा परिवर्तन होने के कारण, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं, कि मानव तस्करी में बिहार का रिकॉर्ड निराशाजनक है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2017 में बिहार राज्य, राजस्थान और पश्चिम बंगाल के ठीक बाद तीसरे स्थान पर था। उस साल 18 वर्ष से कम उम्र के 362 लड़कों और 33 लड़कियों को तस्करों से छुड़ाया गया था, जिसका मतलब है कि हर दिन एक बच्चे को तस्करी से बचाया गया।
वर्ष 2019 में, बिहार के 294 नाबालिग बच्चों को देश भर में ट्रेनों से बचाया गया, जिसके बाद पिछले साल (अगस्त 2021 तक) 426 बच्चों को बचाया गया।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और तस्करी
प्रिया का कहना था कि KSCF ने उन गांवों को चुना, जो कृषि पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं और जिन पर जलवायु परिवर्तन का गंभीर प्रभाव पड़ता है।
नदी के किनारे स्थित, इमामनगर और कठोतिया जैसे गांवों में, खेत और घर मानसून के कहर से डूब जाते हैं।
प्रिया कहती हैं – “लोगों की फसलें नष्ट हो जाती हैं और उनके पास अपने परिवार के खर्च के लिए कुछ भी नहीं बचता। अपने हालात के कारण, वे तस्करों के जाल में फंस जाते हैं, जो स्थिति का फायदा उठाते हैं और उन्हें अच्छी आय का लालच देते हैं। लेकिन दुख की बात है कि तस्करों और मालिकों के द्वारा बच्चों को कठिनाइयाँ और यातनाएँ झेलनी पड़ती हैं।”
बच्चों को बचाने के संयुक्त प्रयास सफल हैं
बिहार राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग (BSCPCR) की अध्यक्ष, प्रमिला कुमार प्रजापति ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “तस्करी को रोकना मुश्किल है, क्योंकि परिवार स्वेच्छा से अपने बच्चों को भेजते हैं। लेकिन इसे रोकने और बच्चों का जाना सुनिश्चित करने के लिए, हम गंभीर कदम उठा रहे हैं। हम विभिन्न शहरों को जाने वाली ट्रेन और बसों की नियमित रूप से जांच करते हैं।”
तस्करी किए गए बच्चों को बचाने के प्रयास में, अभियान चला रहे युवा सक्रिय हैं। उनका हर गांव में युवा स्वयंसेवकों के साथ सोशल मीडिया मैसेजिंग ऐप पर एक समूह है, जिसमें वे लापता बच्चों के बारे में अलर्ट साझा करते हैं।
छोटू कहते हैं – “हम तुरंत पुलिस से संपर्क करते हैं और राजस्थान, मुंबई और दिल्ली जाने वाली ट्रेनों की जांच करते हैं, क्योंकि बच्चों को ज्यादातर इन्हीं जगहों पर कारखानों में भेजा जाता है।”
बिहार के 12 जिलों में चल रहे अभियान और पुलिस के समन्वित प्रयासों से, अब तक 323 बच्चों को बचाया जा चुका है।
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