निगरानी में प्रजनन के बाद सुंदरबन के प्राकृतिक मैन्ग्रोव आवास में छोड़े गए उत्तरी नदी के लुप्तप्राय छोटे कछुओं की बारीकी से निगरानी की जाती है। यह भारत के पहले ‘जीपीएस टैगिंग और ट्रैकिंग’ कार्यक्रम की बदौलत संभव हुआ।
तकनीक की बदौलत, शैलेंद्र सिंह अपने कछुओं पर लगातार नजर रखते हैं।
साधारण कछुए नहीं, बल्कि उत्तरी नदी के छोटे कछुए, जिनके बारे में संरक्षणवादियों को डर था कि वे अपने प्राकृतिक आवास में विलुप्त हो गए थे।
सिंह एक गैर लाभकारी संगठन, ‘टर्टल सर्वाइवल एलायंस (TSA) -इंडिया’ के प्रोग्राम डायरेक्टर हैं, जो छोटे कछुओं को हमेशा के लिए गायब होने से बचाने की कोशिश करता है।
इस साल जनवरी में, स्थानीय समुदाय की मदद से TSA ने चमटा के पास नेशनल पार्क ईस्ट ज़ोन में निगरानी में प्रजनन किए छोटे कछुओं को छोड़ा, ताकि वे बड़े प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा बन सकें।
सिंह कहते हैं – “यह भारत में किसी भी मीठे पानी के कछुए की पहली जीपीएस टैगिंग और ट्रैकिंग थी। हमें छह कछुओं से सिग्नल मिल रहे हैं।”
लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था।
धीमे और नियमित संरक्षण से सफलता
वर्षों से संरक्षणवादियों को डर था कि जंगल में छोटा कछुआ विलुप्त हो गया था।
जब सिंह को 2008 में सुंदरबन टाइगर रिजर्व के एक तालाब में चंद एक नदी के छोटे कछुए मिले, तो वह बहुत खुश हुए। एक साल पहले उन्होंने तटीय पश्चिम बंगाल और ओडिशा में इन प्रजातियों को खोजने की कोशिश की थी, लेकिन असफल रहे थे।
टेरापिन अर्द्ध-जलीय कछुए हैं, जो मीठे या खारे पानी में रहते हैं। कभी ओडिशा और पश्चिम बंगाल के मैंग्रोव में व्यापक रूप से पाए जाने वाले कछुओं की आबादी में, मांस और अन्य कारणों से अवैध शिकार के कारण लगातार गिरावट आई।
उत्तरी नदी कछुओं की प्रजाति, जिसका वैज्ञानिक नाम ‘बटागुर बस्का’ (Batagur baska) है, का मूल आवास दक्षिण पूर्व एशिया है। ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर’ (IUCN) के अनुसार, यह गंभीर रूप से विलुप्ति के कगार पर है।
TSA ने पश्चिम बंगाल वन विभाग के सहयोग से, सुंदरवन टाइगर रिजर्व में अपना संरक्षण प्रयास शुरू किया।
आज, 2012 में शुरू किए गए उनके कैप्टिव प्रजनन कार्यक्रम की बदौलत, 2007 में सिंह को मिले इकलौते कछुए की तुलना में अब 370 किशोर कछुए हैं।
कछुए के महत्व के बारे में प्रचार प्रसार
शुरु में, 2007 में, TSA ने छोटे कछुओं को बचाने के लिए, जागरूकता अभियान चलाना शुरू किया, क्योंकि स्थानीय समुदाय मांस के लिए कछुओं शिकार करते थे। वे इनके अंडों के लिए घोंसलों को लूट लेते थे।
सुंदरबन में TSA के लिए काम करने वाले, उपमन्यु चक्रवर्ती ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “हमने शुरुआत ग्रामीणों से यह पूछने से की, कि उन्होंने आखिरी बार कछुए कब देखे थे और क्या उन्हें अब भी अंडे और वयस्क मिलते हैं। हमने मछुआरों से पूछा कि क्या कछुए अब भी उनके जाल में फंसते हैं?”
टीम ने स्थानीय लोगों को बताया कि कैसे उनके मैंग्रोव का स्वास्थ्य और कछुओं की मौजूदगी आपस में जुड़े हुए हैं।
चक्रवर्ती कहते हैं – “क्योंकि कछुए अपना भोजन कूड़े कर्कट से लेते हैं, इसलिए वे पानी को साफ रखते हैं। इससे उन समुदायों के लिए बेहतर आजीविका सुनिश्चित होती है, जो ज्यादातर मैंग्रोव पर निर्भर हैं।”
संरक्षण के लिए उत्साहित ग्रामीण
ग्रामीणों को उन सुरक्षा कानूनों के बारे में भी पता चला, जिन्हें तोड़ने पर उन्हें परेशानी हो सकती है। लेकिन मैंग्रोव और उनकी आजीविका के बीच के संबंध ने उन्हें कछुओं के संरक्षण के महत्व को सबसे ज्यादा समझने में मदद की।
केकड़े पकड़ने वाले मछली या कछुए बेचने के लिए नहीं पकड़ते हैं। लेकिन कछुए मछुआरों के जाल में फंस जाते हैं और आखिर मर जाते हैं।
लेकिन इस साधारण समस्या के प्रति जागरूकता लाने से, मछुआरे अपने जाल में फंसे किसी भी कछुए को छोड़ने के बारे में अधिक सक्रिय होकर, संरक्षण के प्रयासों में मदद करना चाहते हैं।
लाहिरीपुर गांव के नीतीश भोंजो ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “मैं जीवन यापन के लिए खारे पानी वाली खाड़ियों में केंकड़े पकड़ता हूँ। इन दिनों जब मैं अपनी नाव में होता हूँ, तो समुद्र के पास गहरे पानी में कभी-कभी कछुए दिखाई देते हैं। मुझे लगता है कि उनकी संख्या बढ़ रही है। एक दशक पहले मुझे कुछ नहीं दिखता था।”
इन दिनों जब मैं अपनी नाव में होता हूँ, तो समुद्र के पास गहरे पानी में कभी कभी कछुए दिखाई देते हैं। एक दशक पहले कुछ नहीं दिखता था।”
भोंजो कहते हैं – “संवेदीकरण ने कछुओं की रक्षा में काफी हद तक मदद की है।”
शिकारी बने रक्षक
जागरूकता फैलाने के लिए वन विभाग भी अतिरिक्त प्रयास कर रहा है।
भारत और बांग्लादेश, दोनों की सीमाओं के अंदर फैले और सुंदरबन के मुख्य द्वीपों में से एक, सतजेलिया के निवासी, चित्तरंजन रे कहते हैं – “2011 से पहले कछुओं को बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किए गए थे। लेकिन अब समुदाय जागरूक है और वे अब कछुओं को पकड़ते या खाते नहीं हैं।”
कुमीरमाड़ी गांव के पंचायत सदस्य, अंकन मंडल ने अपनी मशीनों से कछुओं के लिए दो तालाब बनाने में मदद की।
दोनों तालाब 10,800 वर्ग फुट के हैं और नाली से जुड़े हैं।
उत्तरी नदी के कछुओं का पुनरुद्धार
जनवरी में नौ वर्ष से ज्यादा आयु के तीन नर और सात मादा कछुए खुले में छोड़े गए। उनकी पीठ पर ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (GPS) ट्रांसमीटर लगाए गए हैं।
प्रत्येक कछुए को ट्रैक करने में TSA की मदद करने के लिए ट्रांसमीटर एक आवश्यक उपकरण हैं।
सिंह कहते हैं – “यह भारत में किसी भी मीठे पानी के कछुए की पहली जीपीएस टैगिंग और ट्रैकिंग थी। हमें छह कछुओं से सिग्नल मिल रहे हैं।”
एक को 400 किमी दूर बांग्लादेश के करमजल में देखा गया है, जहां TSA का एक केंद्र कार्य करता है।
सिंह ने कहा – “वहां के मछुआरों ने अपने भारतीय मछुआरे मित्रों को विधिवत सूचित किया।”
हाल ही में जारी मिशन योजना 2030 से उनके प्रयासों को बल मिलेगा, जो अपने प्राकृतिक आवास में कछुओं के अस्तित्व को सुनिश्चित करने में मदद करेगा।
सुंदरवन टाइगर रिजर्व के डिप्टी फील्ड डायरेक्टर, जस्टिन जोन्स का कहना था कि ट्रांसमीटर दो साल तक जानकारी भेजेंगे।
वह कहते हैं – “यह हमें इन प्राणियों के व्यवहार और आवाजाही का अध्ययन करने में मदद करेगा। इससे हमारा भविष्य में कछुओं को छोड़ने के संबंध में मार्गदर्शन भी होगा।”
मदद के लिए उच्च अधिकारियों से संपर्क
कछुओं को छोड़ने से ठीक पहले, TSA ने अपने जागरूकता अभियान को तेज कर दिया।
लेकिन कछुओं की खुले वातावरण की यात्रा में सहायता के लिए संरक्षणवादियों द्वारा किया गया यह एकमात्र सुरक्षात्मक उपाय नहीं था।
छोड़े जाने से पहले, कछुओं को आशीर्वाद के लिए स्थानीय बोनबीबी मंदिर ले जाया गया। बोनबीबी वन देवी हैं, जिनकी सुंदरवन के लोग बाघों और मगरमच्छों से सुरक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं।
कछुओं और मैंग्रोव के लिए आखिरी उम्मीद
उत्तरी नदी के कछुओं को समुद्र के पास खाना ढूंढने के लिए मैन्ग्रोव और घोंसले बनाने और अंडे देने के लिए, रेत के टीलों की जरूरत होती है।
सिंह सुंदरवन को छोटे कछुओं के लिए आखिरी उम्मीद के रूप में देखते हैं। लेकिन सहजीवी संबंध का मतलब है कि मैंग्रोव को भी कछुओं की फलती फूलती आबादी से फायदा होता है।
सिंह ने कहा – “वे मैंग्रोव स्वास्थ्य के सर्वोत्तम संकेतकों में से एक हैं।”
हालांकि ओडिशा के भितरकनिका मैंग्रोव भी उपयुक्त हैं, लेकिन संरक्षण के लिए अब सुंदरवन पर ध्यान है।
लेकिन कछुओं को पनपने के लिए, निरंतर निगरानी की जरूरत होगी।
सिंह कहते हैं – “क्योंकि मीठे पानी के बहुत कम स्रोत अब मैंग्रोव में जाते हैं, इसलिए लंबे समय में ज्यादा खारापन उनके अस्तित्व के लिए एक उभरता खतरा हो सकता है।”
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