बचाए गए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से कोड करना और जोड़तोड़ करना सीखकर, ग्रामीण ओडिशा के बच्चे व्यावहारिक रूप से सीख रहे हैं, जिससे उनमें जिज्ञासा और पाठ्यक्रम से परे सबक सीखने के लिए अपने कुदरती वैज्ञानिक नवाचार को प्रोत्साहन मिलता है।
2020 में जब दुनिया COVID-19 महामारी से ग्रस्त थी, ओडिशा का एक युवा इंजीनियर “कॉस्मिक रोवर्स” ठीक करने में लगा था, इस बात की परवाह किए बिना कि उसके ज्यादातर पड़ोसी कभी 45 किमी दूर, राजधानी भुवनेश्वर से आगे नहीं गए थे।
लेकिन अनिल प्रधान एक ऐसी टीम बनाना चाहते थे, जो एक विश्व-प्रसिद्ध प्रतियोगिता, “नासा ह्यूमन एक्सप्लोरेशन रोवर चैलेंज” में भाग ले सके।
उन्होंने सरकार द्वारा संचालित औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों (आईटीआई) से संपर्क किया, जिससे उन्हें 800 आवेदन प्राप्त हुए थे।
आवेदकों में एक युवा साइकिल मैकेनिक, कैलाश भी शामिल था।
प्रधान कहते हैं – “उन्होंने इंटरनेट से सीखा कि एक रोवर एक चार पहियों वाला वाहन होता है। हम उनके इस तर्क से प्रभावित हुए कि चार पहियों वाले वाहन ठीक करना, दो पहियों वाली साइकिल से अलग नहीं हो सकता है।”
एक वेल्डर, रीना ने तर्क दिया कि एक वाहन बनाने के लिए वेल्डिंग की जरूरत निश्चित रूप से होगी।
धीरे-धीरे 10 सदस्यीय रोवर टीम का गठन किया गया। ज्यादातर बच्चे ग्रामीण क्षेत्रों से थे और उन्हें कोई तकनीकी ज्ञान नहीं था। प्रधान ने इंजीनियर वैशाली शर्मा के साथ मिलकर, लगभग नौ महीने टीम को प्रशिक्षण दिया। इसका नतीजा? टीम ने “विश्व रैंक – 3” हासिल किया और इस उपलब्धि को प्राप्त करने वाली वह एशिया की पहली अंडर -19 टीम बन गई।
प्रधान और शर्मा की नासा चुनौती, ग्रामीण छात्रों तक विज्ञान और नवाचार को ले जाने की कई पहलों में से एक है।
व्यावहारिक सीख का अभाव
प्रधान जब कटक जिले के अपने गांव बराल के स्कूल में पढ़ते थे, तो उन्हें किताबों से परे सीखने समझने का कभी मौका नहीं मिला। फिर भी उन्होंने महसूस किया कि एक ज्यादा संवादपूर्ण शिक्षा, रचनात्मक सोच को बेहतर ढंग से बढ़ावा देगी।
फिर जब उन्होंने एक इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लिया, तो उन्हें निराशा हुई कि यह व्यावहारिक शिक्षण से ज्यादा सैद्धांतिक शिक्षण था।
कॉलेज में उनकी बैचमेट शर्मा के विचार भी ऐसे ही थे।
जब 2014 में वे कॉलेज में ही दूसरे वर्ष में थे, तो उन्होंने बराल में तीन बच्चों के साथ एक वैकल्पिक शिक्षा स्कूल, या अकादमी शुरू की। एक प्रतियोगिता से मिले पैसे से वे सिर्फ एक टिन शेड ही बना सके।
वैकल्पिक शिक्षा
स्कूल के बाद हर रोज, वे ‘छुओ और महसूस करो’ के सिद्धांत के माध्यम से सीखने में समय बिताते थे।
शर्मा कहती हैं – “हमारे वैकल्पिक शिक्षण सत्र जरूरत के हिसाब से तैयार किए गए हैं। उदाहरण के लिए, छोटे बच्चों के साथ उनमें जिज्ञासा पैदा करने के लिए, एक अभ्यास से शुरुआत करते हैं। हम उन्हें इलेक्ट्रॉनिक्स, रोबोटिक्स या उनकी रुचि के किसी भी विषय के बारे में दिलचस्प जानकारी देते हैं।”
विषय दैनिक जीवन से होते हैं, जिनसे बच्चे जुड़ सकें, जैसे कि इलेक्ट्रॉनिक्स रोज-रोज कैसे काम करते हैं।
टीम को कबाड़ी वालों से एक टेलीविजन या एक कंप्यूटर मिल जाता है। बच्चे उसे तोड़ते वक्त उसके हिस्सों-पुर्जों और उनके कार्यों के बारे में सीखते हैं।
पानी के अंदर इस्तेमाल होने वाले रोबोट पर काम करने वाले छात्र, बासुदेव भोई ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “हम स्कूल में सीखते हैं, उसके व्यावहारिक पहलुओं के बारे में जानते हैं।”
अनौपचारिक शिक्षा के लिए औपचारिक व्यवस्था
जल्द ही बड़ी तादाद में बच्चे उन दोनों की अकादमी में शामिल होने लगे।
इसलिए, 2015 में उन्होंने स्कूल चलाने के लिए, गैर-लाभकारी संगठन “नवोनमेश प्रसार फाउंडेशन” का गठन किया, जिसका संस्कृत में अर्थ है ‘नवाचार का संचार’।
फाउंडेशन की तीन परियोजनाएं हैं। यंग टिंकर एकेडमी, स्कूल फॉर रूरल इनोवेशन और इनोवेशन लैब।
“हमारा काम आग को प्रज्वलित करने के लिए वह शुरुआती चिंगारी देना है।” – अनिल प्रधान
लैब के दो तरीके हैं। “तोड़, फोड़, जोड़” में बच्चे इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं को अलग करते हैं, जबकि “कबाड़ से जुगाड़” में वे इलेक्ट्रॉनिक कचरे से मदरबोर्ड या सर्किट जैसे उपयोगी हिस्से ढूंढते हैं, और कुछ और बनाने के लिए उपयोग करते हैं।
‘स्कूल’ का विस्तार
प्रधान ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “मिथक के विपरीत, ग्रामीण बच्चे भी आसानी से कोडिंग और इलेक्ट्रॉनिक्स सीख सकते हैं।”
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सही वातावरण और संसाधन उपलब्ध कराने से बच्चों को आसानी से सीखने में मदद मिलती है।
बराल की अनुसया बेउरा कहती हैं – “मेरी बेटी अर्चिता स्कूल के बाद इन कक्षाओं में जाती है। मेरे भुवनेश्वर के रिश्तेदार हैरान हैं, क्योंकि राजधानी में भी ऐसे स्कूल नहीं हैं।”
उनकी प्रगति से खुश होकर, प्रधान और शर्मा ने पड़ोसी गाँवों में कार्यशालाएँ आयोजित करना शुरू कर दिया।
बढ़ती मांग
उन दोनों की कार्यशालाओं की खबर फैल गई। कई गांवों ने उन्हें अपने बच्चों के लिए कार्यशाला आयोजित करने के लिए आमंत्रित किया।
कभी-कभी उनके कॉलेज के दोस्तों ने भी मदद की। क्योंकि कॉलेज बराल से लगभग 300 किमी दूर था, इसलिए कुछ बच्चों को पढ़ाने के लिए अपनी कक्षाएं छोड़ देते थे।
उन्होंने बच्चों की उम्र के अनुसार तैयार की गई, 7-दिवसीय या 15-दिवसीय कार्यशालाओं का आयोजन किया। अब तक वे बराल के अलावा, आठ गांवों में अपनी कार्यशालाओं के माध्यम से बच्चों को पढ़ा चुके हैं।
दोनों ने अपने बराल स्कूल जैसी प्रयोगशालाएं दो गांवों में स्थापित की हैं। जब उन्हें दूसरे गांवों में कार्यशाला करनी होती है, तो वे कंप्यूटर साथ जाते हैं।
बराल स्कूल में 15 कंप्यूटर हैं, जिन्हें कुछ शुरुआती मार्गदर्शन के बाद बच्चों को चलाने की अनुमति है।
महामारी के दौरान काम
लेकिन जब नवाचार सीख निर्बाध है, राजस्व एक चुनौती होती है और महामारी के दौरान वह और भी खराब हो गई।
प्रधान ने कहा – “जब स्कूल बंद थे, तो बच्चे नहीं आ सकते थे। इसलिए हम प्रयोगशाला उनके पास ले गए।”
यंग टिंकर अकादमी के माध्यम से, उन्होंने बच्चों को विज्ञान-किट प्रदान की और उन्हें एक मार्गदर्शक के साथ जोड़ा, जो इन दोनों से प्रशिक्षण प्राप्त एक स्नातक इंजीनियर था।
किट के अधिकांश हिस्से, लैब में बच्चों द्वारा 3-डी प्रिंटर से प्रिंट किए गए हैं, जिसमें कुछ हिस्से ऑनलाइन खरीदे गए हैं। किट भारत के साथ-साथ, विदेशों के कई शहरों में भी बेची गई हैं।
छात्र विभिन्न किटों में से चुन लेते हैं, जिसमें उपग्रह बनाना और ह्यूमनॉइड रोबोट बनाना शामिल हैं, जिसकी कीमत 25,000 रुपये से 1.4 लाख रुपये के बीच है।
लगभग 120 किट बांटी गई हैं। राजस्व का लगभग 30% बराल के विकास के लिए उपयोग किया जाता है। शहरी और निजी स्कूलों में कार्यशाला आयोजित करने से होने वाले राजस्व को भी ग्रामीण प्रयोगशालाओं में दे दिया जाता है।
युवा मानस का पोषण
कभी छात्र रहे कैलाश, अब यंग टिंकर अकादमी में एक प्रोजेक्ट डेवलपर हैं।
वह कहते हैं – “रोवर चैलेंज ने मुझे मेरी आरामपरस्ती से बाहर निकाला। मैंने कोडिंग और इलेक्ट्रॉनिक्स सीखा है। मैंने और आगे सीखने के लिए एक कोर्स ज्वाइन किया है।”
प्रधान और शर्मा का कहना था कि वे उस तरह के कौशल पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश करते हैं, जिनका इस्तेमाल भविष्य में भी किया जा सके।
प्रधान बताते हैं – “जब हम पढ़ाते हैं, तो हम खुद से पूछते हैं कि क्या यह पाठ 12-13 साल बाद प्रासंगिक होगा, जब बच्चा स्कूली शिक्षा पूरी करेगा और दुनिया में कदम रखेगा?”
नवोनमेश प्रासा की यह जोड़ी, सच्चे शिक्षा वैज्ञानिकों की तरह प्रयोग करना और नवाचार लाना जारी रखेगी।
वह कहते हैं – “किसी गाँव में कोई आइंस्टीन या कलाम बैठा होगा। हर बच्चा एक निर्माता है। उनकी जिज्ञासा विकसित करना महत्वपूर्ण है। हमारा काम आग को प्रज्वलित करने के लिए वह शुरुआती चिंगारी देना है।”
तज़ीन कुरैशी भुवनेश्वर स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।
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