आपकी सुबह की चाय के पीछे के शोषण की कहानी
चाय के पैक और विज्ञापनों पर मुस्कुराते हुए चाय की पत्ती तोड़ने वाले हरे-भरे चाय बागानों की एक सुखद तस्वीर पेश करते हैं, लेकिन यह अक्सर शोषण और जरूरी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी की कहानी होती है।
चाय के पैक और विज्ञापनों पर मुस्कुराते हुए चाय की पत्ती तोड़ने वाले हरे-भरे चाय बागानों की एक सुखद तस्वीर पेश करते हैं, लेकिन यह अक्सर शोषण और जरूरी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी की कहानी होती है।
बिक्रम तांती कुछ महीने पहले तक, पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार जिले के ढेकलापारा चाय बागान में चाय पत्ती तोड़ने का काम करते थे। वह सात घंटे काम करके एक दिन में मात्र 100 रुपये कमा पाते थे।
जंगल में जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करते समय गंभीर चोट लगने के बाद, वह काम नहीं कर पा रहे हैं।
किसी आमदनी के बिना वह अपने चार छोटे बच्चों को ठीक से खिलाने या डॉक्टरों द्वारा सलाह दी गई सर्जरी करवाने में असमर्थ है। पत्थर तोड़कर प्रतिदिन 125 रुपये कमाने वाली उनकी पत्नी चांदमणि चिंता जताती है कि उनकी हालत खराब होती जा रही है।
घर का किराया देने में असमर्थ, परिवार ढेकलापारा एस्टेट के एक बंद पड़े अस्पताल के एक कमरे में रहने चला गया है।
मुस्कुराने की कोशिश करते हुए वह कहते हैं – “यह एक विडंबना है कि मैं एक अस्पताल में रहता हूं, लेकिन मुझे इलाज नहीं मिल रहा है।”
तांती जिस जीर्ण-शीर्ण अस्पताल में रहते हैं, वह उत्तर बंगाल के चाय बागानों में खराब स्वास्थ्य सेवाओं का एक प्रतीक है।
उत्तरी बंगाल में 346 चाय बागान हैं, जिन्हें आमतौर पर ‘दोआर्स’ क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। यह अपनी प्रीमियम ‘कट, टियर एंड कर्ल’ (CTC) चाय के लिए प्रसिद्ध है, जो ज्यादातर घरेलू बाजार में बिकती है।
चाय बागानों में 3 लाख से ज्यादा मजदूर काम करते हैं। वे चाय पत्ती तोड़ने और छंटाई करने के अलावा प्रोसेसिंग कारखानों में भी काम करते हैं।
इन मजदूरों को कंपनियों के विज्ञापनों में मुस्कुराते हुए दिखाया जाता है, जबकि बॉलीवुड हस्तियां इनके ब्रांड का प्रचार करती हैं।
लेकिन चालाकी से की गई मार्केटिंग के पीछे, चाय बागान के मजदूरों के कष्टदायी जीवन की सच्चाई छुपी है।
पिछले दो दशकों में, अंदरूनी और ट्रेड यूनियन समस्याओं के साथ-साथ नुकसान का हवाला देते हुए, इस क्षेत्र के 11 बागान अपना काम बंद कर चुके हैं।
इन कंपनियों, विशेष रूप से ढेकलापारा, बुंदापानी और रायपुर की कंपनियों के बंद होने से, हजारों मजदूर बेरोजगार हो गए।
लेकिन जैसे ही कंपनियां गई, स्थानीय समूहों ने चाय बागानों को अपने कब्जे में ले लिया। वे अवैध रूप से बागान चलाते हैं, जिसका मतलब है कि अवैध रूप से ठेका मजदूरों को रखा जाता है।
‘नेशनल यूनियन ऑफ प्लांटेशन वर्कर्स’ के महासचिव, मणि कुमार डरनाल कहते हैं – “चालू चाय बागानों में दैनिक वेतन 202 रुपये तय है। महंगाई को देखते हुए यह काफी कम है।”
वह कहते हैं – “लेकिन कुछ स्थानीय गुंडों, राजनेताओं और पुलिस की सांठ गांठ से, किसी बंद पड़े बागान को चलाया जाता है और मजदूरों को रोजाना छह घंटे काम के लगभग 100 रुपये या उससे भी कम दिए जाते हैं और कोई वैधानिक लाभ भी नहीं दिए जाते।”
कोई और आजीविका न होने के कारण, ग्रामीण बहुत कम मजदूरी पर बंद चाय बागानों में काम करने को मजबूर हैं।
मजदूरों ने दावा किया कि चालू चाय बागानों में भी काम अनियमित है।
वे बिना किसी बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं के काम करते हैं और कुपोषण, तपेदिक और दूसरी गंभीर बीमारियों से पीड़ित रहते हैं।
डरनाल कहते हैं – “बंद चाय बागानों में इन लोगों के लिए चिकित्सा सुविधाओं की व्यवस्था के बारे में किसी ने नहीं सोचा है। बंद पड़े चाय बागानों में छोड़ दिए गए अस्पताल, टूटी खिड़कियों और टूटे बिस्तरों के साथ, भूतिया फिल्मों के सेट जैसे हैं।”
चालू चाय बागानों तक में भी छोटी-मोटी बीमारियों के इलाज के लिए न्यूनतम स्वास्थ्य ढांचा है।
आधिकारिक चाय बागानों के प्रबंधन का मानना है कि कम मजदूरी के बावजूद लोग बंद बागानों में इसलिए काम करना पसंद करते हैं, क्योंकि वहां कम घंटे काम करना पड़ता है।
जयबीरपारा टी-गार्डन के मैनेजर, जयंत बिस्वास ने कहा – ‘फिर वे दूसरी नौकरी करते हैं।”
उन्होंने यह भी कहा कि उनकी एस्टेट पूरी स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करती है।
वह कहते हैं – “हमारा अस्पताल अच्छी तरह से सुसज्जित है। आपात स्थिति में हम दूसरे अस्पतालों में भेजने की व्यवस्था करते हैं और उनकी देखभाल करते हैं।”
वर्ष 2015 में, स्वैच्छिक संगठनों ने चाय मजदूरों में एक अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि 2000 से 2015 के बीच, उत्तरी बंगाल के 17 बंद चाय बागानों में, 1,400 लोगों की मौत हुई थी। मौत का प्रमुख कारण कुपोषण था।
सर्वेक्षण में बहुत से मजदूरों का ‘बॉडी मास इंडेक्स’ (BMI) खराब पाया गया। सही BMI 18.5 से 24.9 है।
सर्वेक्षण में शामिल एक नागरिक समाज समूह, ‘सिलीगुड़ी कल्याण संगठन’ के सदस्य, अभिजीत मजूमदार कहते हैं – “हमने बंद पड़े रायपुर चाय बागान के 1,272 मजदूरों का अध्ययन किया और पाया कि 42% मजदूरों का BMI 18.5 से कम था। यह 40% महत्वपूर्ण स्तर से ठीक ऊपर था, जिस पर एक समुदाय को अकाल प्रभावित के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। बहुत से मजदूरों का BMI 14 जितना कम था।”
मजूमदार ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “आर्थिक संसाधनों के अभाव में वे सही BMI बनाए रखने के लिए जरूरी पौष्टिक भोजन नहीं खाते हैं। स्थिति इतनी दयनीय है कि वे भूखे सो जाते हैं। भूख के कारण कुपोषण होता है।”
बुंदापानी और ढेकलापारा एस्टेट के पास, बीरपारा सरकारी अस्पताल के स्वास्थ्य कर्मचारियों ने माना कि कुपोषण और एनीमिया के कारण यहां खून की भारी मांग है।
अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक, कौशिक गरई कहते हैं – “हमारे ब्लड बैंक में अक्सर कमी रहती है, क्योंकि चाय बागानों वाले इलाकों में मांग ज्यादा होती है। हर दिन लगभग 30 लोग आते हैं, जिन्हें खून की जरूरत होती है।”
लेकिन सरकारी अधिकारियों का कहना है कि वे बेहतरीन सुविधाएं प्रदान करते हैं।
अलीपुरद्वार जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी, सुमित गांगुली कहते हैं – “कुपोषित लोगों के इलाज के लिए हमारा एक विशेष केंद्र है।”
पहचान गुप्त रखने की शर्त पर अस्पताल के कर्मचारियों ने बताया कि बुनियादी ढांचा अपर्याप्त है। उन्होंने कहा – “हमारे पास कई हजार लोगों को सेवाएं प्रदान करने के लिए सिर्फ एक एम्बुलेंस है, जिनमें ज्यादातर चाय बागान मजदूर हैं।”
फूलमणि मिंग, जो उस बागान में अवैध रूप से काम करती है, जहां 2013 में बंद होने से पहले, उसने तीन दशक तक काम किया था, ने कहा कि एम्बुलेंस आने में कम से कम 2 घंटे लग जाते हैं।
साथ ही, अस्पताल गंभीर मरीजों को 70 किलोमीटर दूर अलीपुरद्वार जिला अस्पताल, या 110 किलोमीटर दूर सिलीगुड़ी रेफर करते हैं, जिससे समय बर्बाद होता है।
अस्पताल में डॉक्टरों, नर्सों और अन्य चिकित्सा कर्मचारियों की भी भारी कमी है।
मजूमदार के अनुसार, अवसाद के कारण बहुत ज्यादा शराब पीने से भी तपेदिक के मामलों में वृद्धि हुई है।
सुखदेव खारिया तपेदिक से पीड़ित हैं, फिर भी अपने डॉक्टरों की सलाह के खिलाफ शराब पीते रहते हैं। वह कहते हैं – “गरीबी, हताशा और मेरे तीन नाबालिग बच्चों का भविष्य मुझे दुखी करता है।”
खारिया जैसे लोगों का कहना था कि क्षणिक ही सही, लेकिन शराब उन्हें अपनी समस्याओं को भूलने में मदद करती है। यह खराब स्वास्थ्य और गरीबी के चक्र को बढ़ाता है।
गांगुली ने कहा – “हम चाय बागान क्षेत्रों में तपेदिक और अन्य बीमारियों के लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम चलाते हैं।”
लेकिन बहुत से चाय मजदूरों का मानना है कि यह काफी नहीं है। उन्हें कोई स्थायी समाधान नहीं सूझता, जिससे उनके उनके तनाव और खराब स्वास्थ्य में सिर्फ वृद्धि ही होती है।
गुरविंदर सिंह कोलकाता स्थित पत्रकार हैं।
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