खरपतवार युद्ध – घुसपैठिए पौधे समाधान
बेहद आक्रामक पौधों की प्रजातियां, भारत के वनों और जैव विविधता को नष्ट कर रही हैं। श्रीधर अनंत और संजीव फणसळकर इस मुद्दे की व्यापकता के बारे में लिखते हैं और संभावित समाधानों पर चर्चा करते हैं।
बेहद आक्रामक पौधों की प्रजातियां, भारत के वनों और जैव विविधता को नष्ट कर रही हैं। श्रीधर अनंत और संजीव फणसळकर इस मुद्दे की व्यापकता के बारे में लिखते हैं और संभावित समाधानों पर चर्चा करते हैं।
हाल ही में मैंने उत्तरी केरल के जंगलों का दौरा किया। मैंने मलप्पुरम जिले की चलियार और वायनाड जिले की काबिनी नदियों के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्रों का दौरा किया।
मलप्पुरम के जंगल बहुत अच्छे हैं, जहां हाथी बिना किसी डर के घूमते हैं। वास्तव में उन्हें जंगल में, लगभग 500 मीटर की सुरक्षित दूरी से, अपने दैनिक स्नान या पानी पीने के लिए नदी पर जाते देखा जा सकता था।
बड़े पैमाने पर सागौन के जंगल प्रचुर मात्रा में हैं। बेशक वहाँ विविध प्रकार के पेड़-पौधे और जीव-जंतु, दोनों हैं, हालांकि कुछ हिस्से ‘व्यवस्थित वन’ लगते हैं, जिनका 40-50 साल का चक्र है।
नीलांबुर अपने सागौन के लिए बहुत प्रसिद्ध है। वहाँ पर एक सागौन संग्रहालय भी है। अधिक वर्षा के कारण वनस्पति इसी तरह बनी रहती है। जिन लोगों की जमीन जंगल की परिधि में या उसके आसपास है, उन्होंने अपनी फसलों को उसके अनुसार ढाल लिया है और अब रबड़ जैसी फसलें उगाते हैं, जिनसे हाथी ज्यादा आकर्षित नहीं होते हैं।
वायनाड वन्यजीव अभयारण्य में मामला अलग है। मनंथवाडी के पास का यह जंगल भी नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व का एक हिस्सा है, जो नागरहोल, बांदीपुर और मुदुमलाई के आरक्षित वनों और अभयारण्यों की सीमा पर है। तीन राज्यों की सीमाएँ एक दूसरे से लगती हैं, जिसे हाथी या बाघ के लिए एक सांयकालीन सैर की दूरी कहा जा सकता है। यह भी कभी सागौन से भरा एक पतझड़ी जंगल था। हालाँकि, ऐसा लगता है कि यहाँ कुछ हद तक ज्यादा मानवीय हस्तक्षेप था। असल में इस हिस्से में पशुओं को बिना किसी डर के चरते देखा जा सकता है।
वायनाड अभ्यारण्य क्षेत्र को जो चीज वास्तव में अलग करती है, वह है ऊँचे पेड़ों की बहुतायत, जिनके पतले और लम्बे पत्ते होते हैं, जो असल में दूसरी सभी वनस्पतियों को बाहर कर देती हैं। पूछने पर मुझे पता चला कि यह सेन्ना (गोल्डन शावर या सेना स्पेक्टाबिलिस) था। वहां हमारे मित्र और दार्शनिक ने हमें बताया कि यह एक बहुत ही आक्रामक प्रजाति है। जहां इमारती लकड़ी के पेड़ निश्चित रूप से बहुत मजबूत हैं और सेन्ना को एक तिरस्कारपूर्ण नज़र से देखते हैं, वहीं पेड़-पौधों की दूसरी प्रजातियों और घास को बेहद आक्रामक सेन्ना द्वारा दबा दिया गया है।
पश्चिमी घाट जलवायु तंत्र के उत्तर में कुछ किलोमीटर की दूरी पर, मैंने एक दूसरी आक्रामक प्रजाति लैंटाना की भी भारी मात्रा में घुसपैठ देखी। यहाँ मनंथवाडी में, लैंटाना ज्यादा दिखाई नहीं दिया और यदि था भी, तो यह एक आकस्मिक आगंतुक के लिए स्वाभाविक नहीं था। कुछ प्रकाशित लेखों के अनुसार इस प्रजाति ने अब तक 20000 हेक्टेयर वन भूमि में घुसपैठ कर ली है, कहा जाए तो लैंटाना को खत्म कर दिया है।
दोनों ही प्रजातियां आक्रामक हैं और बहुत ही तेजी से फैलती हैं। वास्तव में, झारखंड और मध्य प्रदेश के संभवतः दस लाख से ज्यादा वन भूमि में फैले पूरे और विशाल जंगलों में लैंटाना ने आक्रमण करके कब्जा कर लिया गया है।
इनमें कुछ और समानताएँ हैं। लैंटाना रंगीन फूल और छोटे काले, मीठे फल पैदा करता है। पक्षियों को ये पसंद हैं और अपनी बींठ (मल) के माध्यम से व्यापक क्षेत्रों में इसका बीज फैला देते हैं। सभी असिंचित क्षेत्रों में लैंटाना संक्रमण की सम्भावना होती है। न तो पत्ते, न फूल या बीज का ही कोई सिद्ध आर्थिक मूल्य है। कई बड़ी कोशिशों के बाद, फर्नीचर बनाने के लिए पुरानी लैंटाना झाड़ियों की शाखाओं का उपयोग करने के तरीके के सीमित नतीजे मिले हैं। लैंटाना को जड़ से उखाड़ने का प्रयास एक बहुत बड़ा काम है।
सेन्ना का भी कोई आर्थिक मूल्य नहीं है। सेन्ना बीज की फली में बीजों की संख्या भरपूर होती है। हाथी और चीतल जैसे जंगली जानवर उन्हें खाते हैं और अपने मल के माध्यम से बीज बिखेरते हैं। सेन्ना के पेड़ों को उखाड़ने के लिए, जेसीबी मशीनों सहित बड़े प्रयासों की जरूरत है।
ये दोनों पेड़ घास, जड़ी-बूटियों, छोटी झाड़ियों और अन्य पौधों का विकास रोकते हैं, जिससे पेड़-पौधों की जैव विविधता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। पशुपालकों के लिए घास की उपलब्धता में कमी भी एक मुद्दा है।
जैसे कि वन अधिकारियों के लिए ये पेड़ भारी सिरदर्द का कारण नहीं थे, तीन और खरपतवार प्रजातियां ऐसी हैं, जो विशेष रूप से शुष्क जलवायु तंत्र के खराब जंगलों, झाड़ीदार जंगलों और बंजर भूमि पर कब्जा कर रही हैं: गाजर घास (पार्थेनियम), पहाड़ी बबूल (Prosopis juliflora) और बोधा घास।
हालांकि घास के अंकुर बकरियों के लिए चारा होते हैं, लेकिन सख्त घास को बकरियाँ भी नहीं खाती हैं। पहाड़ी बबूल के बीज की फली बकरी को खिलाने के लिए उपयोग की जाती है। आगे और अन्यथा, कई क्षेत्रों में इस पर आधारित एक जीवंत चारकोल उद्योग है। कांग्रेस घास जैविक कीटनाशक बनाने की सामग्री के अलावा पूरी तरह से बेकार है।
ये सभी बेहद आक्रामक प्रजातियां, जैव विविधता पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं, शाकाहारी जीवों के लिए चारे की उपलब्धता में कमी करती हैं और यहां तक कि कृषि भूमि में भी घुसपैठ करती हैं। मनरेगा के अंतर्गत मजदूर लगाकर उन्हें खत्म करने के प्रयास देश के विभिन्न हिस्सों में किए गए हैं, लेकिन ये बहुत कम हैं। विलेज स्क्वेयर ने FES द्वारा मंडला में किए गए ऐसे ही एक प्रयास का दस्तावेजीकरण किया था।
यह शायद इस क्षेत्र में काम करने वाले कई संगठनों/व्यक्तियों के तर्क के मूल तथ्यों की पुनरावृत्ति है, लेकिन मेरी राय में इन बेहद आक्रामक और घुसपैठिये खरपतवारों को हाथों से खत्म करने के लिए सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग करना कोई समाधान नहीं है। इन पौधों के घटकों के आर्थिक मूल्य का पता लगाने के उद्देश्य से, बड़े पैमाने पर अनुसंधान में निवेश करना कहीं ज्यादा विवेकपूर्ण हो सकता है, जिसमें उनके रासायनिक और फाइटोकेमिकल (पौधों द्वारा पैदा किए जाने वाले संक्रमण विरोधी तत्व) गुणों से मिलने वाले मूल्य शामिल हैं।
यदि इस प्रकार के व्यावहारिक अनुसंधान के माध्यम से, इन पौधों के उपयोग से आर्थिक रूप से उपयोगी उत्पाद बनाने की प्रक्रियाओं की खोज की जाती है, तो यह आसपास रहने वाले लोगों के लिए उन्हें काटने या उन्हें नियंत्रित करने के लिए एक बड़ा प्रोत्साहन पैदा करेगा। पहले से ही अपने लुप्तप्राय वन संसाधनों और सामूहिक भूमि को प्रभावित करने वाली समस्या के पैमाने को ध्यान में रखते हुए, यह निवेश एक सही कदम है, भले ही शुरुआती परिणामों को लेकर भारी अनिश्चितता हो।
श्रीधर अनंत एक स्वतंत्र सलाहकार हैं।
संजीव फणसळकर विकास अण्वेश फाउंडेशन के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फणसळकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद के फेलो हैं।
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