जब भारत के तिब्बती शरणार्थियों के बच्चे बेहतर अवसरों की तलाश में विदेशों में जा रहे हैं, कभी फलने-फूलने वाली तिब्बती कला और शिल्प उद्योग को नुकसान हो रहा है, क्योंकि उनके धार्मिक हस्तशिल्प में रुचि रखने वाले कम लोग हैं।
चुंगमो भूटिया पर्यटकों के एक पसंददीदा स्थल, कलिम्पोंग पहाड़ियों में, पारम्परिक तिब्बती जूते और ड्रम बनाने वाली एक छोटी सी दुकान चलाते हैं।
35 वर्षीय भूतिया, भारत में पारंपरिक तिब्बती हस्तशिल्प बनाने वाले सबसे कम उम्र के और अंतिम तिब्बती कारीगरों में से एक हैं।
दूसरी पीढ़ी के बहुत से तिब्बती शरणार्थी, विदेशों में बेहतर अवसरों की तलाश कर रहे हैं। घटती जनसंख्या न केवल भूटिया, बल्कि भारत में रहने वाले बहुत से दूसरे तिब्बतियों की आजीविका को प्रभावित कर रही है।
तिब्बत – भारत संबंध
तिब्बतियों का भारत के साथ कई सदियों से संबंध है, क्योंकि पड़ोसी देशों के बीच हमेशा मजबूत व्यापारिक संबंध रहे हैं।
सौ साल से भी ज्यादा समय से कलिम्पोंग में तिब्बती धार्मिक वस्तुएं बेचने वाली दुकान, ‘नोरला हाउस’ के मालिक, 77-वर्षीय मंगतू राम अग्रवाल कहते हैं – “1950 के दशक के मध्य में, तिब्बती लोग घरेलू सामान खरीदने के लिए घोड़ों पर दार्जिलिंग आते थे।”
वे तिब्बती केवल बाज़ारों में घूमते थे, लेकिन विरले ही भारत में बसे।
यह 1959 के तिब्बती विद्रोह के दौरान बदल गया, जो तिब्बत की राजधानी ल्हासा में शुरू हुआ था। बहुत से दूसरे देशों में भाग गए।
कई हजार तिब्बती अपने नेता दलाई लामा के साथ भारत में आ गए।
भारत में शरणार्थी के रूप में तिब्बती
भारत आने वाले लगभग 80,000 शरणार्थी उत्तराखंड, सिक्किम और पश्चिम बंगाल और कुछ अन्य स्थानों पर बस गए। जल्दी ही उनके समुदाय बड़े हो गए।
अग्रवाल कहते हैं – “वे स्थानीय लोगों के साथ आसानी से घुलमिल गए, क्योंकि वे अक्सर भारत आया करते थे। स्थानीय समुदाय ने भी उनका स्वागत किया और उन्हें अपनी पीड़ा को भूलने और एक नया जीवन शुरू करने में मदद की।” हालांकि भारत में तिब्बतियों को शरणार्थी के रूप में जाना जाता है, लेकिन उन्हें आधिकारिक तौर पर इस रूप में मान्यता नहीं मिली है।
कलिम्पोंग स्थित तिब्बती सेटलमेंट कार्यालय के एक अधिकारी, धोंडुप सांगपो ने कहा – ऐसा इसलिए है “क्योंकि भारत ने शरणार्थियों पर 1951 के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन पर हस्ताक्षर नहीं किए थे।”
भारत में तिब्बतियों की आजीविका
तिब्बती शरणार्थी स्वयं-सहायता केंद्र, अक्टूबर, 1959 में दार्जिलिंग के लेबोंग में शुरू किया था, ताकि शरणार्थियों को आपातकालीन राहत प्रदान की जा सके।
उसके बाद इस केंद्र ने भारत में तिब्बतियों को शिल्प वस्तुएं बनाने और बेचने में मदद करके आजीविका के अवसर प्रदान किए।
धीरे-धीरे बहुत से तिब्बती तिब्बती बौद्ध पेंटिंग, थंगका और संगीत के फ्रेम वाले ड्रम, ध्यांगरो जैसी पारम्परिक वस्तुएं बनाने लगे। उन्होंने बौद्ध धर्म में उपयोग होने वाली प्रार्थना-पुस्तकें, मूर्तियाँ और अन्य वस्तुएँ भी बनाईं।
वे इस काम में इतने फले-फूले कि उन्होंने अपने कई उत्पादों का निर्यात भी किया।
लेकिन इन वर्षों में उनकी आबादी में कमी होने के कारण, इन धार्मिक वस्तुओं में रुचि कम हो गई।
तिब्बतियों की घटती जनसंख्या
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 182,685 तिब्बती रहते थे, जिनमें से 8,500 पश्चिम बंगाल में रहते थे। लेकिन 2018 में, तिब्बत मामलों के सलाहकार, अमिताभ माथुर ने घोषणा की कि भारत में 85,000 तिब्बती हैं।
स्व-सहायता केंद्र के प्रबंधक, दोरजी त्सेटेन ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “वर्ष 2000 तक हमारे लगभग 650 शरणार्थी थे, जो अब 200 रह गए हैं। पुरानी पीढ़ी के ज्यादातर लोग रहे नहीं है, जबकि युवा बाहर जा रहे हैं। दार्जिलिंग और पड़ोसी कलिम्पोंग जिले में तिब्बतियों की कुल आबादी लगभग 5,000 है, जो काफी कम है।”
कई लोगों का मानना है कि जनसंख्या में गिरावट इसलिए आई है, क्योंकि युवा पीढ़ी बेहतर अवसरों की तलाश में विदेश जा रही है।
सांगपो ने कहा – “कलिम्पोंग में तिब्बतियों की आबादी, जो दो दशक पहले भी 4,000 से ज्यादा थी, अब लगभग 2,000 है।”
प्रवास को लेकर मिश्रित विचार
पहचान गुप्त रखने की शर्त पर एक युवा तिब्बती ने बताया कि उसने भारत छोड़ने की योजना बनाई है, क्योंकि यहां पहाड़ों पर उसके लिए कोई नौकरी नहीं है।
वह कहते हैं – “हमने अपने बड़ों को संघर्ष करते देखा है। आमदनी से मुश्किल से ही परिवार चलता है। भारत सरकार ने भी उन तिब्बतियों के लिए नियमों में ढील दी है, जो विदेश जाना चाहते हैं। हम अपना करियर बनाने के लिए इसका फायदा उठा रहे हैं।”
लेकिन एक लोकप्रिय महंगे घरेलु सामान की दुकान चलाने वाली तिब्बती महिला, थिनले पम्पाहिशी का, छोड़ कर जाने वाले युवाओं के प्रति रुख कड़ा है।
उन्होंने विलेज स्क्वेयर को बताया – “जब से हमारे पूर्वज तिब्बत से यहाँ आए थे, तब से पहाड़ियाँ हमारा घर रही हैं। स्थानीय लोगों ने हमें आश्रय और गर्मजोशी दी, जिसे हम भूल नहीं सकते। बड़ी संख्या में पर्यटकों के आने से, यह जगह हमें पर्यटन उद्योग में आजीविका प्रदान करती है।”
तिब्बती परम्पराओं को खोना
पम्पाहिशी के अनुसार, पहले तिब्बती थुकपा (नूडल्स) और अगरबत्ती बनाने के लिए जाने जाते थे, जिनकी स्थानीय और विदेशी बाजारों में मांग थी।
वह कहती हैं – “लेकिन अब दूसरे लोग उन्हें बना रहे हैं, क्योंकि हमारे समुदाय से इसे बनाने वाला कोई नहीं है। वे एक ही तरह की गुणवत्ता के नहीं हैं।”
अब, कई स्थानीय भारतीय भी तिब्बती हस्तशिल्प और धार्मिक वस्तुएं बना रहे हैं। कलिम्पोंग में लगभग 25 दुकानें पारम्परिक तिब्बती वस्तुओं की बिक्री करती हैं। लेकिन ज्यादातर गैर-तिब्बती लोगों द्वारा चलाई जा रही हैं। यहां तक कि सामान बनाने वाले मजदूर भी अब तिब्बती नहीं हैं।
अपने दादा द्वारा 1880 में शुरू की गई दुकान चलाने वाले पदमबीर साख्य कहते हैं – “हम चांदी की वस्तुएं बनाते हैं, जिनका उपयोग तिब्बती लोग धार्मिक अनुष्ठानों में करते हैं। पहले, शिल्पकार तिब्बती थे, लेकिन अब दूसरे लोग यह काम कर रहे हैं।”
आजीविका का नुकसान
चुंगमो भूटिया ने कहा – “पहाड़ों में तिब्बती आबादी में गिरावट ने मेरे तिब्बती बूट के व्यवसाय को बुरी तरह प्रभावित किया है। हम किसी तरह गुजारा कर रहे हैं। लेकिन हर गुजरते दिन के साथ हालात मुश्किल होते जा रहे हैं।”
उनकी दुकान के पास ही 73-वर्षीय दसंग भूटिया की दुकान है, जो खुद भी दशकों से तिब्बती जूते बना रहे हैं। अब वह अपनी दुकान बंद करने की सोच रहे हैं।
दसक भूटिया कहते हैं – “लगभग 4,000 रुपये में बिकने वाले जूते की एक जोड़ी बनाने में 5-10 दिन लगते हैं। लेकिन कच्चे माल की बढ़ती लागत और घटती बिक्री के कारण, मेरे पास दुकान बंद करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है।”
यही कहानी भारत में रहने वाले कई तिब्बतियों द्वारा साझा की गई।
उम्मीद के साथ जीना
कलिम्पोंग में तिब्बती वरिष्ठ नागरिकों के लिए आवास में बने एक मंदिर के सन्यासी, ल्हाक पा धुंडुप हर शाम प्रार्थना के लिए मोमबत्तियां जलाते हैं।
धुंडुप ने कहा – “मैं हर प्राणी की समृद्धि के लिए प्रार्थना करता हूं।”
वह कहते हैं – “कभी हमारा समुदाय यहां रहता था और इसकी प्रकृति का आनंद लेता था। लेकिन उनमें से ज्यादातर बेहतर अवसरों की तलाश में बाहर चले गए हैं। मैं उनकी वापसी के लिए प्रार्थना करता हूँ, ताकि उनकी उपस्थिति से पहाड़ फिर से मुस्कुरा सकें।”
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