संदेश फैलाने के लिए कठपुतली-शक्ति का उपयोग
थोल पावई कूथु, तमिलनाडु की चमड़े से बनी कठपुतली की पुरानी लेकिन लुप्त होती परम्परा, छोटे जानवरों की घटती संख्या और संरक्षण के महत्व के बारे में जागरूकता लाते हुए, खुद को फिर से स्थापित कर रही है।
थोल पावई कूथु, तमिलनाडु की चमड़े से बनी कठपुतली की पुरानी लेकिन लुप्त होती परम्परा, छोटे जानवरों की घटती संख्या और संरक्षण के महत्व के बारे में जागरूकता लाते हुए, खुद को फिर से स्थापित कर रही है।
मार्च के आखिरी सप्ताह में पहाड़ी गांव नाथनचेडु में शाम 7 बजे ठंड थी। आमतौर पर जल्दी सो जाने वाले ग्रामीण, कंबल ओढ़े घास के मैदान में आ गए।
कठपुतलियों, लाउडस्पीकरों और वाद्ययंत्रों से लदी एक गाड़ी घुमावदार सड़कों पर चढ़ कर आई थी और अभी-अभी तमिलनाडु के लोकप्रिय हिल स्टेशन यरकौड के पास, पूर्वी घाट के इस गाँव में पहुंची थी।
‘थोल पावई कूथू’ कठपुतली शो के बारे में हुई घोषणा सुनकर, ग्रामीण नींद छोड़कर, घास के मैदान में आए थे।
इन शो का आयोजन इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, एजुकेशन एंड रिसर्च के एक शोधकर्ता, ब्रवीण कुमार द्वारा किया जाता है, जो पूर्वी घाट की चट्टानी चूहों और कांटेदार चूहों (हेजहॉग) जैसी दुर्लभ स्तनपायी प्रजातियों का अध्ययन करते हैं। उन्हें उम्मीद है कि पावई कूथु प्रदर्शनों के माध्यम से वह इन स्तनधारियों के संरक्षण के बारे में जागरूकता पैदा कर सकेंगे, जो पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण हैं।
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थोल पावई कूथु तमिलनाडु की चमड़े से बनी पारम्परिक कठपुतली विधा है। तीन शब्दों का अनुवाद ही (पशु) त्वचा, गुड़िया और रंगमंच है। पारम्परिक कथा वाचन का माध्यम, बकरी की खाल से बनी आकृतियां हैं। कठपुतली शो के पात्रों का रेखाचित्र बकरी की खाल पर बनाया जाता है और फिर विशेष रंग से चित्रित किया जाता है।
नागरकोइल से शो प्रदर्शित करने आए एक कलाकार, ए लक्ष्मण राव कहते हैं – “हम रंग में गोंद मिलाते हैं, ताकि समय के साथ कठपुतलियां अपना रंग न खोएं।”
कहानियों में संवाद और गीतों का संयोजन होता है, जिसके साथ संगीत वाद्ययंत्रों की संगत होती है।
परंपरागत रूप से, कठपुतली शो रामायण और अन्य महाकाव्यों की कहानियों पर आधारित होते थे। आजकल के कई शो ज्यादा आधुनिक संदेशों के साथ किए जाते हैं।
नाथनचेडु में जैसे ही युवा और बुजुर्ग अपनी जगह बैठे, कठपुतली चलाने वाले कलाकार मंच के पीछे आ गए, जो मात्र डंडों के बीच फैला एक सफेद पर्दा था। संगीतकार राव, उनकी पत्नी और बेटी मंच के सामने फर्श पर बैठ गए।
जैसे ही कठपुतली कलाकारों ने ढोल और हारमोनियम शुरू किया, दर्शक उत्साहित हो गए। और फिर जानवरों की आकृतियां सामने आई।
कहानी की शुरुआत एक राजा द्वारा अपनी जमीन पर वन्यजीवों के स्वास्थ्य के बारे में जाँच के साथ होती है। उसे पता चलता है कि जानवरों को प्लास्टिक प्रदूषण जैसे मानवीय कृत्यों के परिणाम भुगतने पड़ रहे हैं।
वह अपने मंत्रियों को बुलाकर क्षेत्र का दौरा करने और स्थानीय प्रजातियों के संरक्षण के महत्व के बारे में लोगों से बात करने के लिए कहता है।
बच्चे और वयस्क दोनों आधे घंटे के कठपुतली शो को फटी आँखों से देखते हैं, जिसमें पर्दे के पीछे विभिन्न जानवर दिखाई देते हैं।
हास्य थोल पावई कूथु का एक अभिन्न अंग है और दर्शक खुशी से हंसते हैं।
लेकिन यह सिर्फ मनोरंजन नहीं है।
शिकार के प्रभाव से लेकर झीलों एवं नदियों में कचरा डालने और सड़कों पर चलने वाली कारों द्वारा जानवरों के मारे जाने तक के महत्वपूर्ण मुद्दों को, आकर्षक तरीके से दिखाया जाता है।
एक के बाद एक, विभिन्न स्थानीय प्रजातियों के जंतुओं को दिखाया जाता है, जैसे साही, जंगली गिलहरी, चट्टानी चूहे और खरगोश।
दर्शक कहानी को लेकर उत्साहित हैं और संरक्षण के बारे में सोच रहे हैं।
ब्रवीण कुमार शेवरॉय हिल्स में जबआदिवासी स्कूली बच्चों और ग्रामीणों में जागरूकता पैदा करने पर विचार कर रहे थे, तो उन्हें थोल पावई कूथू के इस्तेमाल की सलाह दी गई।
कुमार ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “थोल पावई कूथू कलाकारों ने पहले भी गिद्ध संरक्षण पर गैर सरकारी संगठनों के साथ कार्यक्रम किए थे। मैंने सोचा कि हमारी पारम्परिक कठपुतली के साथ संरक्षण को समझाना दिलचस्प होगा।”
“महामारी के दौरान इन कलाकारों की कोई कमाई नहीं थी। थोल पावई कूथु के उपयोग से कलाकारों को मदद मिलेगी और साथ ही संरक्षण के लिए लोगों तक पहुँच का एक आकर्षक कार्यक्रम भी होगा।”
कुमार ने राव के साथ चर्चा करके कहानी तैयार की, जिन्होंने पर्यावरण और जैव विविधता को बचाने के लिए कुछ कार्यक्रम किए थे।
मैंने सोचा, हम हमेशा इतिहास पर कार्यक्रम करते हैं, क्यों न वन्यजीवों पर कुछ किया जाए? मैंने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और कहानी की पटकथा लिखी।”
राव कहते हैं – “मैंने सोचा, हम हमेशा इतिहास पर कार्यक्रम करते हैं, तो हम वन्य जीवन पर कुछ क्यों नहीं कर सकते? मैंने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और हमने मिलकर एक कहानी लिखी।”
उन्होंने कहा – “जानवरों के रंग की गई कठपुतलियों को लगभग 20 दिनों में तैयार किया गया।”
राव, उनकी पत्नी नागरानी और बेटी कलाई रानी कहानी में अपनी आवाज देते हैं और गाते हैं। उनके पुत्र, मुथुवेल, विभिन्न आवाज़ों की नकल करते हुए मंच सँभालते हैं।
राव के चार बेटों में से एक, मुथुवेल ने राव के नक्शेकदम पर चलने का फैसला किया है।
राव कहते हैं – “एक परिवार के रूप में, हम कलाकार एक इकाई के रूप में काम करते हैं। ढोलक और हारमोनियम बजाने से लेकर, कठपुतली पर रंग करके बनाने, नकल उतारने तक, यह सब परिवार के अंदर ही है।”
उन्होंने कहा – “हमने इस कार्यक्रम के लिए पटकथा लिखी, निर्देशन किया, हास्य दृश्य जोड़े, यहां तक कि गाने भी लिखे।”
नागरानी ने याद दिलाया कि जब टीवी नहीं होते थे, तो थोल पावई कूथू के प्रदर्शन के लिए तंबू लगाने पड़ते थे।
वह कहती हैं – “हमारे कठपुतली शो को देखने के लिए, टेंट में लोगों की भीड़ लगती थी।” लेकिन आधुनिक मनोरंजन के सामने कला की यह विधा हार गई।
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मुथुवेल का मानना है कि सरकारी और निजी संगठनों को उन्हें ज्यादा जागरूकता कार्यक्रमों के लिए शामिल करना चाहिए, जिससे उनकी आजीविका में सहयोग भी होगा।
राव का निष्कर्ष – “हमारी कला लुप्त होती जा रही है। ये जानवर भी जमीन से गायब हो रहे हैं। हम ऐसे कार्यक्रमों के माध्यम से इन जानवरों और अपनी कला के लिए जीवन लगा देना चाहते हैं।
इस पृष्ठ के शीर्ष पर मुख्य तस्वीर, शारदा बालासुब्रमण्यम की है।
शारदा बालासुब्रमण्यम कोयंबटूर स्थित पत्रकार हैं।
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