जनजातीय भित्ति चित्र जो प्रागैतिहासिक गुफा चित्रों के लिए एक उल्लेखनीय समानता रखते हैं, तब तक लुप्त हो रहे थे जब तक कि एक भावुक कला संरक्षण युगल ने इसे पुनर्जीवित नहीं किया, कलाकारों को अंतरराष्ट्रीय दीर्घाओं में प्रदर्शित करने में मदद की।
लिखित इतिहास से पहले की गुफाओं के चित्रों से बेहद मिलते जुलते, जनजातीय भित्ति चित्र लुप्त हो रहे थे। तब कला-संरक्षण के प्रति जुनूनी एक दंपत्ति ने इसे पुनर्जीवित किया, जिससे चित्रकारों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इसे प्रदर्शित करने में मदद मिली।
“अगर ये दीवारें बात कर सकती” – इस अभिव्यक्ति का झारखंड में एक नया अर्थ है, जहां घरों को प्राचीन रूपांकनों में चित्रित किया जाता है। इससे आकर्षित होकर हर साल सैकड़ों पर्यटक यहां आते हैं।
हजारीबाग जिले के जातीय समुदायों से संबंधित, पारंपरिक खोवर और सोहराई कलाओं के लिए मिट्टी के घरों की दीवारें कैनवस का काम करती हैं।
यह लगभग 100 “चित्रित गाँव” पर्यटकों को आकर्षित करते हैं।
पर हमेशा से ऐसा नहीं था।
यह कला लुप्त होती जा रही थी, कि इत्तेफाक़ से इसी तरह की एक प्राचीन गुफा-पेंटिंग मिल गई।
अब इस कला को न केवल अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली है, बल्कि कला संरक्षक जस्टिन और अलका इमाम की बदौलत इसका दस्तावेजीकरण किया जा रहा है और आधुनिक डिजाइन के साथ जोड़ा जा रहा है।
खोई हुई कला और उसके कलाकारों की तलाश
अपने पिता के साथ गुफाओं और चट्टानी जगहों पर जाने और हजारीबाग की लोक कलाओं पर उनके शोध में मदद करने से, जस्टिन इमाम की विरासत में स्वाभाविक रूप से रुचि थी।
क्योंकि खोवर और सोहराई पेंटिंग परंपरा को जारी रखने वाली कुछ ही महिलाएं थीं, इसलिए जस्टिन ने कला को पुनर्जीवित करने में उनकी मदद करने का फैसला किया। जब उनकी शादी हुई, तो उनकी पत्नी अलका भी उनके साथ शामिल हो गईं।
अलका इमाम ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “शुरुआती वर्षों में हम अपनी कार को मिट्टी के रंगों से भरते थे और उन महिलाओं को ढूंढने के लिए गाँवों को खंगालते थे, जो अब भी इस कला पर काम कर रही हैं। हम उन्हें रंग उपहार में देते और उन्हें अपनी कला को जीवित रखने के लिए प्रेरित करते थे।”
भित्ति चित्र से सजी मिट्टी की दीवारें
मुंडा, संथाल, ओरांव, अगरिया, बिरहोर, कुर्मी, प्रजापति, घटवाल और गंजू समुदाय की महिलाएँ शादी के दिनों में अपनी दीवारों को काले और सफेद रंग की खोवर कला से रंगती थी।
वंश-वृद्धि में पुरुष की भूमिका को मान्यता के अलावा, काला रंग एक महिला की दुनिया और सफ़ेद रंग पूर्वजों की राख का प्रतीक है। दुल्हन के कमरे से शुरू होने वाली कला, आंगन और बाहरी दीवारों तक जारी रहती है।
और रंगीन सोहराई कला के साथ समुदाय अपनी फसल के मौसम का जश्न मनाते हैं। उनके लिए सोहराई की पेंटिंग धन्यवाद देने की रस्म है।
मिट्टी से दीवारों पर पलस्तर के माध्यम से महिलाएं प्रकृति का चित्रण करती हैं, जिसके साथ वे सामंजस्य में रहती हैं।
जस्टिन इमाम ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “मानसून के बाद वे गाय के गोबर, भूसी और मिट्टी से दीवारों और कमरों की मरम्मत और पलस्तर करते हैं और उन्हें अपनी कला के लिए तैयार करते हैं।”
रंग भी स्थानीय रूप से मिलने वाली मिट्टी के हैं, जिसमें मैंगनीज ब्लैक, रेड ऑक्साइड, काओलिन व्हाइट और गेरू रंग शामिल हैं।
लुभावने चित्रों में मोर और नेवले को सांप से लड़ते हुए, पक्षियों को अपने चूजों को खिलाते हुए और हिरण के बच्चे को माँ का दूध पीते दिखाया जाता है। इनमें हजारीबाग के जंगलों के पक्षी और जानवर भी हैं – जैसे नीलगाय, हाथी, हॉग हिरण, बंगाल फ्लोरिकन और वायर-टेल्ड अबाबील चिड़िया। नदियाँ, पेड़ और मछलियाँ दूसरे आम रूपांकन हैं।
और महिलाओं के पेंटिंग औजार क्या हैं?
सोहराई को साल के पेड़ की चबाई हुई टहनियों या कपड़े के फाहे से किया जाता है, जबकि खोवर को बांस की कंघी या उंगलियों से किया जाता है। उतनी ही पर्यावरण के अनुकूल, जितनी वह पाई जाती हैं।
लुप्त होती आदिवासी भित्ति कला
महिलाएं पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी कला को आगे बढ़ाती हैं।
जोराकठ गांव की मालो देवी महतो कहती हैं – “मैंने अपनी माँ को देखकर इसकी मूल बातें सीखीं। अपनी शादी के बाद, मैंने अपनी सास से और अधिक सीखा।”
लेकिन खोवर और सोहराई कलाओं को चित्रित करने वाली महिलाओं की संख्या समय के साथ घट रही थी, क्योंकि जनजातियों ने अपने घर बनाने के लिए मिट्टी की जगह सीमेंट का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।
साथ ही युवा लड़कियां आदिवासी परम्पराओं को निभाने की इच्छुक नहीं थीं।
रोजगार के लिए पलायन और खनन के लिए बस्तियों के विस्थापन ने कला को धीरे-धीरे गायब कर दिया।
लेकिन ‘इस्को’ कला की खोज के कारण, खोवर और सोहराई कलाओं के पुनरुद्धार में मदद मिली।
खोवर और सोहराई – झारखंड की टिकाऊ पुरातन कला
10000 ईसा पूर्व की रॉक कला की खोज 1993 में हजारीबाग जिले के एक गांव इस्को की प्राचीन गुफाओं में हुई। माना जाता है कि गुफाओं का इस्तेमाल दुल्हन-कक्ष के रूप में किया जाता था।
विशेषज्ञों ने प्राचीन इस्को कला और हजारीबाग के जातीय समुदायों की खोवर और सोहराई कलाओं के बीच आश्चर्यजनक समानताएं देखीं।
यहां तक कि नाम में भी एक सम्बन्ध दिखाई देता है, जिसमें खो का मतलब गुफा और वर का मतलब नवविवाहित है।
और सोहराई कला का भी अपना महत्व है। सोह का अर्थ है दूर भगाना और राई का अर्थ है एक छड़ी। यह कृषि और धन के संचय के लिए पशुओं को पालतू बनाने की प्रक्रिया को दर्शाता है।
खोवर और सोहराई कलाओं को विलुप्ति से बचाना
इस्को गुफा की खोज करने वाले जस्टिन के पिता बुलु इमाम, विरासत संरक्षण के लिए काम करने वाले एक गैर-लाभकारी संगठन, इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज (INTACH) के संयोजक थे।
क्षेत्र में काम कर रही एक ऑस्ट्रेलियाई खनन कंपनी के लिए एक पर्यावरणीय मंजूरी के मुद्दे की पृष्ठभूमि में, INTACH को ऑस्ट्रेलियाई उच्चायोग से एक सामुदायिक सेवा परियोजना के लिए अनुदान प्राप्त हुआ।
INTACH ने 75 से ज्यादा महिला चित्रकारों को इस कला को कागज पर चित्रित करने के लिए प्रशिक्षित किया।
इसके परिणामस्वरूप जनजातीय महिला कलाकार सहकारी समिति का गठन भी हुआ। बुलू इमाम के मार्गदर्शन में, समिति ने प्रदर्शनियाँ लगाना शुरू कर दिया। यह दुनिया भर की कला दीर्घाओं में खोवर और सोहराई कलाओं को प्रदर्शित करता है।
ग्रामीण भित्ति चित्र अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों में
इस कला को 1995 से महाद्वीपों और भारत में व्यापक रूप से प्रदर्शित किया गया है।
कुछ महिला कलाकारों ने अंतरराष्ट्रीय दीर्घाओं में जीवंत प्रदर्शन किए हैं।
अंतर्राष्ट्रीय डिजाइनरों की बदौलत, खोवर और सोहराई कलाओं का उपयोग वॉल-पेपर और कपड़े के डिजाइनों में किया गया है।
इमाम परिवार ने संरक्षण अभियान को और आगे बढ़ाया है।
गत वर्षों में, उन्होंने लगभग 500 कलाकारों का एक डेटाबेस तैयार किया है, ताकि उन्हें कला सम्बन्धी कमीशन प्राप्त हो सके।
यहां तक कि अब आप रांची के बिरसा मुंडा हवाई अड्डे जैसे सार्वजनिक स्थानों पर भित्ति चित्र देख सकते हैं।
दंपत्ति ने कला को एक ‘भौगोलिक सूचकांक’ (GI) टैग दिलाने में भी मदद की, जो डिजिटल मानचित्रों में इन गांवों का आसानी से पता लगाने में मदद करता है।
अपने पुनरुद्धार के प्रयास में, उन्होंने कला आवासों को रखने के लिए, सोहराई कला महिला विकास सहयोग समिति की स्थापना की। यह कला के दस्तावेजीकरण में भी मदद करती है, और डिजाइन और वास्तुशिल्प छात्रों के साथ सहयोग करता है।
अपनी पारम्परिक कला पर गर्व
महतो की कला को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित किया गया है और इससे भारत की सार्वजनिक दीवारों को भी सजाया गया है।
उन्होंने विलेज स्क्वेयर को बताया – “लेकिन एक बड़ी दीवार पर अन्य लोगों के साथ बनाई मेरी पेंटिंग को व्यापक रूप से सराहा गया।”
यह रांची के भगवान बिरसा जैविक उद्यान में 17,500 वर्ग फुट की चारदीवारी है।
लेकिन पार्क की दीवार ही उनका एकमात्र बड़ा कैनवास नहीं है।
झारखंड के गवर्नर हाउस और दिल्ली का एशियन हेरिटेज फाउंडेशन कुछ ऐसे स्थान हैं, जहां महिलाओं ने भित्ति चित्र बनाए हैं।
डांड गांव की अनीता देवी कहती हैं – “जब पर्यटक हमारे गाँव में आते हैं और पेंटिंग की गई दीवारों को देख कर हैरान होते हैं, तो मुझे गर्व की अनुभूति होती है। कुछ तो कागज पर बनी कलाकृतियां भी खरीदते हैं।”
इस लेख के शीर्ष पर मुख्य फोटो हजारीबाग के “चित्रित गांवों” की पारंपरिक कलाओं से सजी दीवारों की है (फोटो – जस्टिन इमाम के सौजन्य से)
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