कलिम्पोंग के किसानों के लिए बेस्वाद हुई काली इलायची
काली इलायची को सुनहरी फसल मानने वाले किसान, अब पौधों की बीमारियों से होने वाले नुकसान और आधुनिक खेती के तरीकों को अपनाने की अपनी अनिच्छा के कारण, दूसरी फसलों की ओर रुख कर रहे हैं।
काली इलायची को सुनहरी फसल मानने वाले किसान, अब पौधों की बीमारियों से होने वाले नुकसान और आधुनिक खेती के तरीकों को अपनाने की अपनी अनिच्छा के कारण, दूसरी फसलों की ओर रुख कर रहे हैं।
पश्चिम बंगाल के कलिम्पोंग जिले में, पवन लेप्चा एक दशक से ज्यादा समय से काली इलायची की खेती कर रहे हैं।
लेकिन कई अन्य किसानों की तरह, वह अब लोअर मेचू के सैक्यों गाँव की अपनी दो एकड़ जमीन में इलाइची की बजाए कॉफी उगाने पर विचार कर रहे हैं।
काली इलायची (Amomum subulatum Roxb), जिसे बड़ी इलाइची भी कहा जाता है, उगाने वाले किसान रसोई के इस सुगंधित मसाले को एक निश्चित फायदे वाली फसल मानते थे।
लेकिन अब ऐसा नहीं है।
दार्जिलिंग और कलिम्पोंग के ज्यादातर किसान, इलायची की खेती कम करके दूसरी फसलें उगाना चाहते हैं, क्योंकि यह अब लाभदायक नहीं रही।
काली इलायची की खेती भारत के पूर्वोत्तर राज्यों और पड़ोसी देशों नेपाल और भूटान में की जाती है।
बंगाल के किसानों का कहना है कि इलायची के लाभदायक न होने का कारण उसके स्वाद और विकास को प्रभावित करने वाली बीमारियाँ हैं।
सैक्यों गाँव के इलाइची उगाने वाले एक किसान, रिन्ज़ी भूतिया कहते हैं – “चिरके और फुर्की रोगों ने फसल को लगभग बर्बाद कर दिया है। यह समस्या हर साल बढ़ती जा रही है।”
‘चिरके’ और फुर्की नेपाली शब्द हैं। चिरके स्ट्रीक मोज़ेक रोग के लिए प्रयोग होता है और फुर्की एक संक्रमित झुण्ड के पौधों के निचले हिस्से पर छोटी टहनियों को बढ़ने से रोकता है।
क्षेत्रीय स्टेशन, कलिम्पोंग स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के प्रमुख, वैज्ञानिक डी. बर्मन कहते हैं – “चिरके की पहचान पत्तियों पर पीली धारियों से होती है, जो धीरे-धीरे भूरी होकर सूख जाती हैं। इस बिमारी से इलायची के झुण्ड लगातार ख़राब होते जाते हैं।”
बर्मन ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “दोनों बीमारियाँ पाँच दशकों से ज्यादा समय से हैं। लेकिन किसानों की ढील के कारण इसका प्रभाव बढ़ गया है। वे संक्रमित पौधों के मलबे को न तो जमीन में दबाते हैं और न ही जलाते हैं।”
लेप्चा ने कहा कि वे रोगग्रस्त पौधों वाले खेतों के बीज खरीदते हैं।
लेप्चा ने कहा – “यह घातक साबित हो रहा है, क्योंकि इससे नए पौधे संक्रमित हो जाते हैं और यह दुष्चक्र जारी रहता है।”
भूटिया के अनुसार, उन्होंने इस बीमारी को नियंत्रित करने की कई तकनीकों आजमाई, लेकिन सफलता नहीं मिली।
वैज्ञानिकों के अनुसार इलायची की खेती सूखे, बारिश और बर्फबारी जैसी प्राकृतिक आपदाओं से पहले ही प्रभावित हो चुकी थी। फफूंदी और वायरल रोगों से स्थिति को और खराब हो रही है।
रोगों के कारण, संक्रमण के तीसरे साल तक फलों और बीजों को 85% तक नुकसान हो सकता है।
कलिम्पोंग डिवीजन में कृषि विभाग के सहायक निदेशक, बिनोद राय कहते हैं – “बीमारियाँ न केवल स्वाद को प्रभावित करती हैं, बल्कि मसाले को भुरभुरा भी बना देती हैं। गुणवत्ता कम होने के कारण किसानों को अच्छी कीमत नहीं मिलती।
लेपचा मानते हैं कि उनकी इलायची अन्य राज्यों जितनी अच्छी नहीं है।
किसानों ने कहा कि वे ज्यादा लाभ होने के कारण बड़ी इलायची को सोने की फसल मानते थे। लेकिन अब हालात बदल गए हैं।
लेपचा कहते हैं – “छह साल पहले, मैंने एक हेक्टेयर से 120-130 किलोग्राम फसल ली थी। अब यह कम हो कर आधी रह गई है।”
“छह साल पहले मैंने एक हेक्टेयर से 120-130 किलोग्राम फसल ली थी। अब यह घटकर आधी रह गई है।”
गुणवत्ता के नुकसान से उपज की कीमत और इसके कारण किसानों के लाभ को प्रभावित हुई है। कीमत 2,400 रुपये प्रति किलोग्राम से भारी गिरावट के साथ 500 रुपये प्रति किलोग्राम रह गई है।
लेपचा कहते हैं – “खेती के बढ़ते खर्च और गिरते लाभ के कारण इलायची उगाना असंभव हो रहा है। बहुत से किसानों की इसे उगाने में रुचि नहीं रही।”
सरकारी अधिकारी मानते हैं कि पहाड़ियों में इलायची का रकबा कम हो गया है।
बिनोद ने बताया -“एक दशक पहले लगभग 3,000 हेक्टेयर में इलायची उगाई जाती थी। यह अब घटकर 1,530 हेक्टेयर रह गई है।”
बड़ी इलाइची का 2020-21 में कुल उत्पादन 8,803 टन रहा।
कुल 4,970 टन उत्पादन के साथ, 2020-21 में सिक्किम बड़ी इलायची के उत्पादन में पहले स्थान पर रहा, जो भारत के कुल उत्पादन का 11% था। पश्चिम बंगाल काफी कम, 1,100 टन के साथ दूसरे स्थान पर रहा, जो केवल 2.46% था।
(यह भी पढ़ें: केरल की इलायची की पहाड़ियां भीषण सूखे का सामना कर रही हैं)
बीमारियों के अलावा, किसानों को नेपाल, सिक्किम, आंध्र प्रदेश, मणिपुर और मिजोरम जैसे अन्य इलायची उत्पादक स्थानों से कड़े मुकाबले का सामना करना पड़ता है, जो ज्यादा आधुनिक तकनीकों का उपयोग करते हैं।
दूसरी जगहों के किसान पहले ही इलायची को मशीन में सुखाना शुरू कर चुके हैं, जिससे बेहतर परिणाम मिलते हैं। लेकिन कलिम्पोंग के किसान अभी भी सुखाने के लिए पारंपरिक मिट्टी की भट्टी का इस्तेमाल करते हैं।
लोअर मेचू सैक्यों के एक इलायची उगाने वाले किसान, बिकाश राय कहते हैं – “मिट्टी की बनी पारम्परिक भट्टी में लगभग 65 किलो इलायची सुखाने में कम से कम दो दिन लगते हैं।”
इस प्रक्रिया में काफी जलाऊ लकड़ी की खपत होती है।
बिकाश राय ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “हम धन्य हैं कि हमारे पास विशाल जंगल हैं। इसलिए लकड़ी कोई समस्या नहीं है, लेकिन फिर भी यह हमारे पर्यावरण को नष्ट कर रही है।”
इसके अलावा, उत्पादकों को जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने के लिए अतिरिक्त श्रम खर्चना पड़ता है।
बिकाश राय कहते हैं – “लंबे समय तक आग पर रहने से इलायची भी धुएँ के रंग की हो जाती है और अपना स्वाद खो देती है।”
समस्या का एक हिस्सा इलायची सुखाने वाले उपकरण, ‘ड्रायर’ के बारे में जागरूकता की कमी है।
केरल-स्थित एक निर्माण कंपनी, ‘आयुष इंजीनियरिंग वर्क्स’ के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, जोबी जोस कहते हैं – “सरकार ड्रायर खरीदने के लिए 33% अनुदान देती है। लेकिन बंगाल के गांवों के किसान इस बारे में अनजान हैं।”
उनकी कंपनी ने पिछले कुछ वर्षों में लगभग 50 मशीनें अन्य राज्यों को बेची हैं, लेकिन दार्जिलिंग जिले के किसानों को केवल तीन।
मशीनों की सुखाने की क्षमता 100 से 5,000 किलोग्राम तक है, जिनकी लागत 3 से 18 लाख रुपये के बीच है।
जोस ने बताया – “पारम्परिक भट्टियों में इलायची को सुखाने में कई दिन लग जाते हैं। लेकिन मशीनें सिर्फ 14-15 घंटे लेती हैं, चाहे उनकी क्षमता कुछ भी हो। तो यह श्रम और समय बचाता है।”
वह मानते हैं कि मशीनों के इस्तेमाल से इलायची के रंग और स्वाद को भी बनाए रखने में मदद मिलती है।
जैसे ही पहाड़ पर काले बादल छाए, बिकाश राय और उनकी पत्नी ने मिट्टी की भट्टी को बचाने के लिए अपने बांस के घर को पॉलीथीन की चादरों से ढक दिया। उनके पास प्रकृति का आनंद लेने का समय नहीं था।
वह कहते हैं – “प्रकृति का आनंद लेना हमारे लिए ऐयाशी जैसा है। हमारी पहली चिंता अपनी आजीविका के स्रोत की रक्षा करना है।”
इस लेख के शीर्ष पर मुख्य फोटो में बड़ी इलायची दिखाई गई है। फोटो साभार: जसप्रीत कलसी, ‘पिक्साबे’।
गुरविंदर सिंह कोलकाता स्थित पत्रकार हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?
यह पूर्वोत्तर राज्य अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, जहां कई ऐसे स्थान हैं, जिन्हें जरूर देखना चाहिए।