विकास पेशेवर संजना कौशिक को पता चलता है कि कभी उदारता और एकता की एक सुंदर संस्कृति, ‘नोत्रा’ परम्परा, जिसमें भील जनजाति में हर कोई शादियों की मेजबानी में मदद करता था, कैसे पैसे उधार देने का एक दुष्चक्र बन गया है।
क्या आपने कभी देखा है कि आपके रिश्तेदार या पड़ोसी शादी का निमंत्रण लेकर आएं और आपका परिवार इस बात पर चर्चा करने लगे कि नवदम्पत्ति को क्या उपहार या कितना पैसा देना है?
उनकी चर्चा इस बात पर भी पहुँच सकती है कि शादी में शामिल हों भी या नहीं, और क्या उन्हें अपने भविष्य के पारिवारिक समारोह में आमंत्रित करें या नहीं। है ना?
मैंने ऐसी कई बातचीत सुनी हैं। जब मैंने उनके महत्व के बारे में सोचा, तो मुझे कभी जवाब नहीं मिला। हर बार कोई बुजुर्ग बस यही कहेगा कि यह समाज का हिस्सा बनने का एक तरीका है।
नोट्रा परंपरा भील जनजातियों की एक प्रथा है, जिसमें सभी एक बड़े परिवार के रूप में एक साथ आते हैं। प्रत्येक व्यक्ति शादी के खर्च के लिए योगदान देता है।
नोट्रा परंपरा को तोड़-मरोड़ कर पेश करना
जब भी कोई शादी होती थी, तो समुदाय के सभी सदस्य एक साथ आते थे। हर कोई इस खास मौके को मनाने में परिवार की मदद करता था। एक एकता का भाव हुआ करता था, जिसमें सभी एक दूसरे पर निर्भर करते थे। सोच यह थी कि सबके योगदान से एक दूसरे के सुख में भागीदारी हो। विकास सबकी जिम्मेदारी थी।
विवाहों में प्रथा यह थी कि टेडा (समुदाय को नोट्रा में शामिल होने का निमंत्रण देने वाला) निमंत्रण के रूप में चावल देता है, विवाह के लिए पीले चावल और नोट्रा से संबंधित दूसरे पक्षों के लिए लाल चावल। शादी की रस्म ‘साझा’, डागला नाम के हाथ से बने लकड़ी और सूखी घास (खोर) के एक टेंट में हुई। भोज भी पूरे समुदाय से प्रत्येक परिवार द्वारा लाए गए परम्परागत बर्तनों और सामग्री से तैयार किया जाता था।
लेकिन समय के साथ, आधुनिकता और बाजारों ने पारम्परिक रिवाजों को प्रभावित किया है। अब एक आधुनिक टेंट के रूप में डागला होता है और उसमें सूखी घास की बजाय कुर्सियाँ और मेज होती हैं। विवाह भोज समुदाय द्वारा मिलकर तैयार किए जाने की बजाय, अब कैटरिंग कंपनियों की सेवाएं ली जाती हैं। यहाँ तक कि पारम्परिक पोशाक की जगह भी आधुनिक लहंगे और शेरवानी ने ले ली है, जिससे समारोह का खर्च इतना बढ़ा दिया है कि शहरों की ही तरह, यह किसी परिवार की आर्थिक स्थिति का पैमाना बन गया है।
नोट्रा बना भारी ब्याज वाला सामुदायिक ऋण
ये आयोजन उनके पारिवारिक धन को प्रदर्शित करने के स्थान बन जाते हैं। इस तरह ये आयोजन समुदाय में श्रेष्ठ कौन है, यह तय करने के लिए प्रतिस्पर्धा भी बढ़ाते हैं।
जब मैं आनंदपुरी तहसील के तमाटिया गांव के पुरुषों के एक समूह से नोट्रा प्रथा के बारे में बातचीत कर रही थी, तो एक व्यक्ति ने कहा – “शादी का खर्च अलग अलग परिवार का अलग होता है। एक प्रवासी मजदूर इसे 50,000 रुपये में कर सकता है, जबकि उसी गांव में उसी समुदाय के किसी और के लिए यह 2 लाख रुपये तक पहुंच सकता है।”
पुराने जमाने में ऐसा नहीं था, क्योंकि लोग अपना समय देते थे और बांटकर चीजों का इस्तेमाल करते थे। लेकिन अब नोट्रा पैसे के रूप में शादी के खर्च में मदद के लिए दिया जाता है। समुदाय में हर किसी को योगदान देना जरूरी है। हालांकि प्राप्तकर्ता को दो गुना धन देने वाले को उनके समारोह में वापस करना होता है। उदाहरण के लिए, यदि एक परिवार ने विवाह समारोह आयोजित करने में मदद के लिए दूसरे परिवार को 500 रुपये दिए हैं, तो उनके समारोह में उन्हें 1,000 रुपये वापस मिलेंगे।
दूसरे शब्दों में, नोट्रा भारी ब्याज वाला ऋण बन गया है। परंपरा में डूबा हुआ ऐसा ऋण, जिसका लोगों को पालन करना होता है।
यह व्यवस्था इतनी जरूरी हो गई है कि कुछ लोग नोट्रा उपहार के भुगतान के लिए, काम खोजने के लिए पलायन करने को मजबूर हो जाते हैं।
शादियों और घरों के लिए उच्च-ब्याज ऋण
समय के साथ, नोट्रा प्रथा ग्रामीणों के लिए घर बनाने जैसे बड़े खर्चों के लिए, समुदाय से सहायता प्राप्त करने का एक तरीका बन गई है। शुक्र है कि नोट्रा का पैसा किसी को जेल से बाहर निकालने या किसी विवाद को सुलझाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
हालाँकि यह परिवार पर निर्भर करता है कि वह नोट्रा से सहायता मांगे या नहीं, लेकिन मांगने पर समुदाय को धन जरूर देना होता है। लेकिन वे ऐसा यह मानते हुए करते हैं कि आखिर में उन्हें दोगुनी रकम वापस मिल जाएगी।
स्पष्ट रूप से समुदाय के गरीब सदस्य ही हैं, जो इस विकृत परम्परा से सबसे ज्यादा पीड़ित हैं।
बांसवाड़ा में कुशलगढ़ जैसे स्थान हैं, जहां अभी भी ठीक से विद्युतीकरण नहीं हुआ है। लोगों की पीने के पानी, स्वास्थ्य सुविधाओं और उचित शिक्षा तक पहुंच नहीं है।
क्योंकि ज्यादातर भील परिवारों के घर में अलमारी या लॉकर नहीं होते, इसलिए एक संपन्न पारिवारिक मित्र या रिश्तेदार जरूरत पड़ने तक इकठ्ठा हुए धन को सुरक्षित स्थान पर रखता है। यह व्यक्ति न सिर्फ एक “बैंकर” का काम करता है, बल्कि आमतौर पर विवाह योजनाकार के रूप में, उनके लिए भोजन और समारोह आयोजित भी करता है।
यह हैरानी की बात नहीं है कि कई भील परिवार नोट्रा प्रथा से दूर होने के लिए पलायन भी करते हैं।
एक महिला ने मुझसे कहा – “हम गुजरात जाना चाहते हैं, क्योंकि तब हमें नोट्रा नहीं देना पड़ेगा और हमारा काफी पैसा बच जाएगा।”
नोट्रा परंपरा का ऋण-दुष्चक्र
घाटोल ब्लॉक के कालू राम चरपोटा जैसे कुछ लोगों के लिए, अपने बड़े सपनों को पूरा करने के लिए नोट्रा का इस्तेमाल करना जोखिम भरा हो सकता है ।
चरपोटा ने पारिवारिक मुद्दों के कारण, पक्की नौकरी छोड़ दी और अपने गाँव लौट आया। शुरू में उन्होंने अपनी थोड़ी सी कृषि भूमि पर काम किया, जिसका एक हिस्सा गिरवी रखा हुआ था।
जब उन्हें पास के एक ईंट-भट्ठे में नौकरी मिली, तो उन्होंने एक मोटरसाइकिल खरीदने की सोची। इसलिए उन्होंने नोट्रा डोनेशन मांगा। उनकी गिरवी जमीन के साथ इसका मतलब था कि उनके दो ऋण हो गए।
इस बोझ से उबरने के लिए, उन्होंने एक और नोट्रा की मांग की। यह भी दोनों ऋणों पर उसके पूरे ब्याज को झेलने के लिए काफ़ी नहीं था। स्वाभाविक है कि उनका कर्ज इतना ज्यादा हो गया, कि यह एक बोझ बन गया। इसलिए वह अपना कर्ज चुकाने और अपने परिवार का गुजारा सुनिश्चित करने के उद्देश्य से ज्यादा कमाने के लिए अहमदाबाद चले गए।
अफसोस की बात है कि नोट्रा उदारता और सहयोग की एक सामुदायिक परम्परा से, एक ऋण-चक्र में बदल गया है, जो कई लोगों को फंसा हुआ महसूस करा सकता है। सराहनीय विरासत की बजाय, यह एक ऐसी आदत बन गई है, जो समुदाय में उन लोगों को कमजोर करती है, जो आज की अर्थव्यवस्था को हरा पाने और बाजार-संचालित समाज में अपना जीवन चलाने में सक्षम नहीं हैं।
बहुत से भील नोट्रा से बचने के लिए पलायन कर रहे हैं, क्योंकि यह कई लोगों को गरीबी के दुष्चक्र में धकेल रहा है।
इस लेख के शीर्ष पर लेखक संजना कौशिक का फोटो है। (फोटो – सौजन्य संजना कौशिक)
संजना कौशिक, विलेज स्क्वेयर में ‘यूथ हब’ मैनेजर हैं। भीलों के साथ काम करने वाली एक एनजीओ, वागधारा से परमेश के इनपुट्स के साथ ।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?