पर्यावरण-टूरिज्म सुविधाओं में परिवर्तित, छत्तीसगढ़ के कोडार बांध के आसपास का दर्शनीय स्थल, ग्रामीण युवाओं के लिए स्थानीय रोजगार और बेहतर आय सुनिश्चित करने के साथ-साथ, सप्ताहांत में छुट्टियां मनाने के लिए एक आदर्श स्थान है।
सूरज के क्षितिज में नीचे जाने के साथ, कोडार बांध का पानी सुनहरा पीला हो जाता है। जैसे ही दिन का उजाला गायब होता है, तट के पेड़ों में लटके जादुई लालटेन अंधेरे में जगमगाती हैं।
सुबह मौसमी जंगली फूल और खिले गुलाब आपका स्वागत करते हैं।
तम्बू गाड़ने और कुछ दिन रहने के लिए यह एकदम सही जगह है।
लेकिन जिनके पास टेंट नहीं है या कैंपसाइट पर खाना पकाना नहीं जानते, उनके लिए सारा काम एक नया इको-टूरिज्म साइट करता है।
इको कैंप कोडार की कैंपसाइट, शहरी भारतीयों के लिए एक प्राकृतिक आश्रय स्थल मात्र से कहीं ज्यादा है। यह कुहरी गांव के कुछ आदिवासी युवाओं को आजीविका भी प्रदान कर रहा है।
इको कैंप कोडार – खेती से पर्यावरण-टूरिज्म तक
कोडार बांध कैंपसाइट से लगभग 2 किलोमीटर दूर, कुहरी एक मध्यम आकार का गाँव है, जहाँ एक लंबी संकरी गली के घरों की दीवारों पर बनी रंगीन कला अलग दिखाई देती है।
यहां रहने वाले ज्यादातर गोंड आदिवासी किसान हैं। प्रत्येक परिवार के पास कुछ एकड़ जमीन होती है, जिसमें वे धान उगाते हैं।
लेकिन कुछ साहसी युवा अपनी खेती में इको-टूरिज्म शामिल करके इससे ज्यादा आय प्राप्त करने की कोशिश कर रहे हैं।
‘वन चेतना केंद्र’, महासमुंद जिला प्रशासन और वन विभाग की संयुक्त पहल से, पिछले साल नवंबर में ही शुरू किया गया था।
एक रात के रु. 1,600 के खर्च पर, 60 से 70 टेंट और लगभग 50 लोगों द्वारा नावों की सवारी से, इस पर्यावरण स्थल ने छह महीने के छोटे से अर्से में, लगभग 14 लाख रुपये कमा लिए हैं।
ग्रामीण भारतीयों के लिए नया आजीविका-पथ
पिछले साल कैंप-स्थल के लिए एक भर्ती अभियान में भाग लेने के बाद, सुखदेव साहू का जीवन बदल गया।
सौभाग्य से साहू कॉलेज तक पढ़ाई कर चुका था। उनकी डिग्री उनके काम आई, क्योंकि ज्यादातर ग्रामीण युवा स्कूल से आगे नहीं पढ़ पाते हैं। वह सबसे पहले चुने जाने वालों में से एक थे।
एक आकर्षक मुस्कान के साथ, साहू कुहरी के नौ अन्य युवकों के साथ साइट के सुचारू संचालन का काम देखते हैं। वे कैंप में आए लोगों की ज़रूरतों का ध्यान रखते हैं और नौकायन एवं पदयात्राओं का आयोजन करते हैं और मेहमानों के लिए भोजन तैयार करते हैं।
कैंप चलाने वाले युवाओं में से एक, कन्हैया लाल नागेश कहते हैं – “हम उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं, खासकर नौकायन के समय। जीवन-रक्षक जैकेट पहनना जरूरी है।”
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इको-कैंप कोडार के नौकाएं एवं पक्षी
कोडार बांध स्थल, जिसे ‘इको कैंप कोडार’ के नाम से जाना जाता है, सप्ताहांत में छुट्टी मनाने का एक आदर्श स्थान है, क्योंकि यह राजधानी शहर रायपुर से सिर्फ 70 किलोमीटर दूर है।
पास ही ‘बारनवापारा वन्यजीव अभयारण्य’ और सिरपुर के पुरातात्विक विरासत स्थल जैसे आकर्षक पर्यटन स्थल हैं।
यह सिरपुर तक साइकिल रैली के लिए भी एक महत्वपूर्ण स्थान बन गया है।
इको कैंप कोडार विश्राम, संगीत, ताज़गी, अल्पाहार और तारामंडल-अवलोकन और एडवेंचर प्रदान करता है।
नागेश ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “ज्यादातर पर्यटक नाव की सवारी का आनंद लेते हैं।”
लगभग इसी समय यहां, कोडार में इको-कैंप की अवधारणा के जनक, महासमुंद मंडल के वन अधिकारी, पंकज राजपूत द्वारा मोर गोरैया (चिड़िया) संरक्षण अभियान की भी शुरुआत की गई।
बांध के किनारे लगभग 70 तंबू लगाए गए हैं, जो सप्ताहांत में शिविर और बॉनफायर का एक बड़ा आकर्षण हैं।
आय से आगे प्रोत्साहन
जहां युवा अपनी पिछली आजीविकाओं के मुकाबले बेहतर कमाई कर रहे हैं, वहीं कुछ और प्रोत्साहन भी हैं।
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साहू पहले मामूली तनख्वाह पर गड्ढे खोदने और पौधे लगाने का काम करते थे।
उन्होंने विलेज स्क्वेयर को बताया – “कोडार कैंप से प्राप्त मासिक आय से निस्संदेह हमारे परिवारों की मदद मिली है।”
नवंबर से अप्रैल तक, केंद्र ने पर्यटन से लगभग 14 लाख रुपये की कमाई की।
साहू कहते हैं – “उसमें से हमने 50% आपस में बाँट लिए। बाकी राशि एक संयुक्त बैंक खाते में जमा की जाती है।”
नौकायन के लिए टिकट काटते हुए, शिव कुमार ध्रुव ने संतोष जताया कि उन्हें घर के नजदीक काम और उचित कमाई प्राप्त हो रही है।
कैंप की रूपरेखा तैयार करने और इसे स्थापित करने में सहायक रहे, रायपुर-स्थित राजेश लोहिया कहते हैं – “इको टूरिज्म जोर पकड़ रहा है और छत्तीसगढ़ में इसकी अच्छी संभावनाएं हैं। ऐसी साइट चार से पांच दूसरे जिलों में भी शुरू होने जा रही हैं।”
लेकिन ईको-साइट्स की सफलता के लिए उस तक पहुंचने में सुगमता जरूरी शर्त है। अच्छी तरह से जुड़े शहरों के पास यह कामयाब होते हैं और फलते-फूलते हैं। जबकि दूर दराज के स्थल भले ही सुन्दर अनुभव प्रदान करते हों, लेकिन उन्हें बनाए रखना मुश्किल हो सकता है।
जो भी हो, जितना ज्यादा ईको-टूरिज़म बढ़ेगा, उतने ही ज्यादा युवा कठिन श्रम वाले कामों के लिए शहरों में प्रवास की इच्छा छोड़ कर, अपने गाँवों में रहेंगे और ग्रामीण भारत को फलने-फूलने में मदद करेंगे।
इस लेख के शीर्ष पर फोटो में कोडार की पर्यावरण-टूरिज्म कैंपस्थल को दिखाया गया है (फोटो – इको कैंप कोडार के सौजन्य से)
दीपन्विता गीता नियोगी दिल्ली स्थित एक पत्रकार हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?