तमिलनाडु के लुप्त हो रहे पवित्र उपवनों में कुछ बचे खुचे लुप्तप्राय उष्णकटिबंधीय शुष्क सदाबहार वन पाए जाते हैं, जिन्हें बहाली के लिए देवताओं द्वारा संरक्षण के बावजूद, इंसानी मदद की जरूरत है।
भारत भर में सदियों से बहुत से जंगलों को स्थानीय उग्र देवताओं द्वारा संरक्षित किए जाते देखा गया है, जिनकी मूर्तियां इन पवित्र उपवनों पर नजर रखती थी।
तमिलनाडु में अय्यनार , कुर्रूपुसामी, वीरन, नल्ला थंगल, कन्नीमार्गल जैसे स्थानीय लोककथाओं में वर्णित देवताओं के खुले में बने मंदिर, गांवों के बाहरी इलाके में जंगल के बीच पाए जा सकते हैं।
इन ग्रामीण देवताओं की शक्ति का मतलब था कि ग्रामीण उनके मंदिरों या पवित्र उपवनों को अपवित्र करने की हिम्मत नहीं करेंगे, नहीं तो वे इनके क्रोध का शिकार हो जाएंगे।
इस डर ने सदियों से पवित्र उपवनों और उनकी समृद्ध जैव विविधता को बचा कर रखा।
लेकिन जैसे-जैसे मान्यताएं और सामाजिक व्यवस्थाएं बदल रही हैं, वैसे-वैसे ये पवित्र उपवन घटते जा रहे हैं।
स्थानीय जलवायु तंत्र को होने वाले सभी लाभ हमेशा के लिए ख़त्म हो जाने से पहले, उन्हें पुनर्जीवित करने में कुछ इंसानी मदद की जरूरत है।
गायब हो रहे पवित्र उपवन
तमिलनाडु के पवित्र उपवनों का दस्तावेजीकरण करने वाली विकास संस्था, ‘धान फाउंडेशन’ के परियोजना समन्वयक, एस ईलामुहिल कहते हैं – “इस समय तमिलनाडु में अधिकारिक तौर पर दर्ज, 1,262 पवित्र उपवन हैं। बहुत से अभी दर्ज नहीं हुए हैं।”
‘फ्रेंच इंस्टिट्यूट ऑफ़ पांडिचेरी’ के वरिष्ठ शोधकर्ता, एन बालचंद्रन के अनुसार, आस्था और मान्यताएं इन ‘कोइल काडु’ पुकारे जाने वाले उपवनों की रक्षा करती थी।
बालचंद्रन कहते हैं – “किसी समय एक पूरा उपवन एक पवित्र पेड़ में बदल गया था। तभी एक पेड़ के नीचे एक पत्थर पर एक मूर्ति बनी हुई थी। ऊपर एक छोटी सी छत के साथ, यह एक छोटे से मंदिर में तब्दील हो गया।”
पवित्र उपवनों के आस-पास आम तौर पर बहुत से सामाजिक नियम होते हैं, जैसे पशु चराने को रोकने से लेकर लोगों को लकड़ी काटने तक, शराब पीने या यहाँ तक कि नए पेड़ लगाने से रोकने तक।
ईलामुहिल ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “लेकिन समय के साथ इन उपवनों की रक्षा करने वाली सामाजिक व्यवस्था गायब हो गई। किसानों द्वारा दूसरी आजीविकाएं अपनाने पर, उन्हें भूमि या उपवनों की रक्षा करने की जरूरत महसूस नहीं हुई।”
पवित्र उपवनों के औषधीय पौधे
पहले के समय में समुदाय द्वारा उपवनों की रक्षा करने का एक और कारण था। पारंपरिक चिकित्सा में इस्तेमाल होने वाले पौधे और पेड़ इन उपवनों में पाए जाते थे।
देशी TDEF किस्मों का संरक्षण करने वाले एक प्रकृतिवादी, विमल राज कहते हैं – “उदाहरण के लिए, माविलगम माहवारी से जुड़ी समस्याओं से निपटने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। नन्नारी ठंडक प्रदान करता है। थनीर विट्टन किझांगु शुक्राणु उत्पादन में सुधार करता है।”
कहा जाता है कि इन जंगलों में पाई जाने वाली करुंगली या तेंदू में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले गुण होते हैं।
लेकिन बात बीएस इतनी नहीं है।
पवित्र उपवन जलवायु की दृष्टि से महत्वपूर्ण क्यों हैं?
कोरोमंडल तट के साथ साथ, पवित्र उपवनों में उष्णकटिबंधीय शुष्क सदाबहार वन (TDEF) पाए जाते हैं, जो दुनिया के बचे हुए आखिरी तीन शुष्क सदाबहार वनों में से एक है।
विमल राज ने बताया – “TDEF किस्मों की ऊंचाई 9 से 12 मीटर के बीच होती है। इसलिए लोग इन्हें बंजर भूमि की झाड़ियां मान लेते हैं और इन्हें काट देते हैं।”
लेकिन जंगल वर्षा जल संचयन, प्रदूषण और कार्बन कम करने जैसी जलवायु तंत्र संबंधी सहायता प्रदान करते हैं।
राज के अनुसार, TDEF की ज्यादातर किस्में ठोस लकड़ी के पेड़ हैं और अपने तने में बहुत ज्यादा कार्बन जमा करती हैं।
अपनी टीम के साथ बालचंद्रन ने 2004 की भीषण सुनामी के बाद, TDEF किस्में लगाकर कुड्डालोर में आश्रयों का निर्माण किया। उनका मानना है कि इस प्रकार के जंगलों का उपयोग जलवायु के अध्ययन के लिए भी किया जा सकता है।
उन्होंने विलेज स्क्वेयर को बताया – “पूर्वी और पश्चिमी घाटों में पाई जाने वाली एक ही किस्म में, जलवायु के अनुसार, अलग-अलग फूल और फल के स्वरूप मिलते हैं। इसे जलवायु परिवर्तन को समझने के लिए एक संकेतक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।”
TDEF में कई देशी और लुप्तप्राय किस्में भी पाई जाती हैं। इसलिए बालचंद्रन मानते हैं कि जैव विविधता के इस खजाने को संरक्षित किया जाना चाहिए।
लेकिन इस बदलते समय में इनकी सुरक्षा करना इतना आसान नहीं है।
संरक्षण की चुनौतियां
संरक्षणवादियों के अनुसार, मूल TDEF का केवल 0.1% बचता है।
दक्षिण भारत का तटीय क्षेत्र, वह एकमात्र स्थान जहां TDEF पाया जाता है, बड़े पैमाने पर भवन निर्माण विकास का शिकार रहा है।
संरक्षणवादियों का दावा है कि इस मानवीय दखल के कारण यह बर्बाद हुआ है।
विमल राज बताते हैं – “वन विभाग को इन TDEF वनों को संरक्षित करना मुश्किल लगता है, क्योंकि वे दूर दूर स्थित हैं। अक्सर इसका स्वामित्व कुछ परिवारों या समुदायों के पास रहता है। आरक्षित वनों में भी, नीलगिरी (Eucalyptus) जैसी व्यावसायिक रूप से लाभदायक किस्मों ने TDEF की जगह ले ली है।
उनका सुझाव है कि सरकार देशी TDEF किस्मों को उनके जलवायु सम्बन्धी फायदों के लिए पुनर्जीवित कर सकती है।
राज और उनके मित्र के. रामन, अपने ‘स्वदेशी जैव विविधता फाउंडेशन’ के माध्यम से, भारत के दक्षिण-पूर्वी तट पर TDEF किस्मों को बढ़ावा देते हैं।
पुडुचेरी में अपने घर के पीछे, रमन की एक नर्सरी है, जिसमें उन्होंने 88 दुर्लभ, देशी और संकटग्रस्त किस्में लगाई हैं।
लकड़ी की शिल्प कंघियां बनाने के लिए बेतहाशा काटे गए अगिल मारम (Drypetes porter) से लेकर, प्राकृतिक रूप से कठिन अंकुरण वाले मलाई पूवारासु तक, हर संकटग्रस्त TDEF किस्म के लिए यहाँ सुरक्षित स्थान है।
वह और उनकी पत्नी, ए. परकावी, बचे हुए पवित्र उपवनों से सावधानीपूर्वक उनके बीज एकत्र करते हैं। फिर वह उनके जीवनचक्र का अध्ययन और तब तक देखभाल करते हैं, जब तक कि उन्हें जलाशयों या गांव की सांझा भूमि, मंदिरों या संस्थानों के आसपास लगा नहीं दिया जाता।
रामन ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “TDEF किस्मों की चुनौती इसकी धीमी वृद्धि है। लेकिन एक बार जड़ें जमा लेने के बाद, इसका पनपना बहुत आसान है और इसके रखरखाव की जरूरत बहुत कम होती है।”
बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण के लिए उनका सुझाव है कि ‘कंटूर’ बांध बनाने और ‘मल्चिंग’ के उपयोग से पानी के वाष्पीकरण को रोका जा सकता है और अंकुरण में सुधार किया जा सकता है।
गहरे, घने और सदाबहार पत्तों वाली TDEF किस्मों का हाल ही में शहरी मालियों द्वारा संरक्षण किया जा रहा है।
विमल को दुख है कि TDEF को लेकर ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है।
वह कहते हैं – “हमें बचे हुए क्षेत्रों के मानचित्र बनाने और उनकी रक्षा करने की जरूरत है। सरकार को कोरोमंडल तट पर तटीय नर्सरी में देशी TDEF को बढ़ावा देने के लिए भी कदम उठाने चाहिए।
कभी ग्राम देवताओं द्वारा संरक्षित, इन पवित्र उपवनों को अब फिर से फलने-फूलने के लिए इंसानी मदद की जरूरत है।
इस लेख के शीर्ष पर मुख्य छवि में अय्यनार देवता द्वारा संरक्षित एक पवित्र उपवन को दिखाया गया है (छायाकार – बालासुब्रमण्यम एन)
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