लुप्त होती बाँस की टोकरियाँ बुनने की कला
अपनी पारम्परिक आजीविका, बाँस की टोकरियाँ बुनकर पैसा कमाने के लिए संघर्ष कर रहे एक दंपति को देखकर, एक विकास प्रबंधन छात्र हैरान है कि क्या सरकार से कुछ सहायता की उम्मीद करना गलत है।
अपनी पारम्परिक आजीविका, बाँस की टोकरियाँ बुनकर पैसा कमाने के लिए संघर्ष कर रहे एक दंपति को देखकर, एक विकास प्रबंधन छात्र हैरान है कि क्या सरकार से कुछ सहायता की उम्मीद करना गलत है।
एक दंपत्ति न्यूनतम संसाधनों के साथ, अक्टूबर की गर्मी से बचाने लायक एक शेड तक के बिना, बाँस की टोकरियाँ बुनता दिखाई पड़ता है। आप को लग सकता है कि यह किसी पुरानी फिल्म का सीन है या दशकों पहले की कहानी है। अफसोस की बात, कि ऐसा नहीं है। यह बांसवाड़ा जिले के एक दूरदराज के गांव के केसरी की हकीकत है।
जब तक केसरी को याद है, वह बाँस की टोकरियाँ बुनती रही हैं। जब वह अपने माता-पिता के साथ थी, तब उन्होंने बुनना शुरू किया था और अब अपने पति के साथ जारी रखे हुए हैं।
केसरी बाँसफोड़ समुदाय से ताल्लुक रखती हैं। ‘बाँसफोड़’ नाम ‘बाँस’ शब्द से आता है, क्योंकि समुदाय पारम्परिक रूप से बाँस के उत्पाद बनाता है।
पिछले 30 साल से केसरी उसी जगह पर टोकरियाँ बुनकर, बेचने आ रही हैं।
जैसा कि हस्तकला व्यवसाय में होता है, आमदनी स्थिर नहीं होती है। किन्हीं दिनों में वह 2,000 रुपये कमा लेती हैं, तो कभी कई दिनों तक सामान बिना बिके रह जाता है।
बाँस की टोकरियाँ बुनकर जो पैसा वे कमाते हैं, उससे केसरी और उनके पति अपने बेटे को पढ़ा रहे हैं, इस उम्मीद में कि उसका भविष्य बेहतर होगा।
बांसवाड़ा नाम की उत्पत्ति इस क्षेत्र के ‘बाँस’, या बाँस के जंगलों से हुई है। और बाँस का सामान यहां बहुतायत में है।
लेकिन यह क्षेत्र अपने पारम्परिक शिल्प और आधुनिक समय में अपना महत्व खो रहा है।
केसरी का कहना था कि यह भूमि कभी अपने बाँस के लिए प्रसिद्ध थी और उन लोगों को गुजारे में मदद करती थी, जो इससे उत्पाद बनाते थे।
जब हम अपने उत्पादों को बाज़ार में रखने की कोशिश करते हैं, तो लोग हमें भगा देते हैं। सिर्फ बड़ी दुकानों को ही स्टॉल लगाने के लिए जगह मिलती है।
वह कहती हैं – “हमारी आजीविका बाँस पर निर्भर थी। लेकिन अब हमारा गुजारा मुश्किल से होता है।”
केसरी और उनके पति की जीवन से बहुत बड़ी अपेक्षाएं नहीं हैं। वे सिर्फ शांति से काम करना चाहते हैं।
वह कहती हैं – “जब हम अपने उत्पाद बाज़ार में रखने की कोशिश करते हैं, तो लोग हमें भगा देते हैं। सिर्फ बड़ी दुकानों को ही स्टॉल लगाने के लिए जगह मिलती है। सरकार हमारे लिए कुछ नहीं करती है।”
उनकी एकमात्र आशा यह है कि उन्हें अपना माल बेचने के लिए एक स्थायी जगह आवंटित की जाए। तब उन्हें न इधर उधर घूमना पड़ेगा और न ही जगह पाने के लिए रिश्वत देनी पड़ेगी।
अपनी टोकरियाँ बेचने के लिए जगह न होना वे फिर भी स्वीकार कर सकते हैं। लेकिन वे उम्मीद करते हैं कि कम से कम वे सड़कों पर शांति से काम करके, जीवनयापन करने का प्रयास कर सकें।
पहले ‘हाट’ (बाजार) व्यवस्था हुआ करती थी, लेकिन इसने नए चलन और मांगों के सामने घुटने तक दिए हैं।
केसरी को लगता है कि सरकार को समाज में उनके अस्तित्व को स्वीकार करना चाहिए और उन्हें लाभ पहुँचाने वाली योजनाएं शुरू करनी चाहिए। हालांकि उन्हें बाँस खरीदने के लिए सब्सिडी मिलती है, लेकिन यह काफी नहीं है, क्योंकि यह तीन साल में केवल एक बार दी जाती है।
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उनकी मामूली आमदनी से बामुश्किल उनका घर चल पाता है। लेकिन जब बीमारी का ईलाज कराने जैसी अप्रत्याशित घटनाएँ होती हैं, तो यह और भी मुश्किल हो जाता है।
केसरी कहती हैं – “सरकार क्या सोचती है कि कैसे हम इससे तीन साल काम चला सकते हैं? जब हमारा इलाज सरकारी अस्पतालों में नहीं हो पाता, तो हमें निजी अस्पताल में जाना पड़ता है। खर्चे बढ़ते जाते हैं, लेकिन हमारे पास कोई चारा नहीं है।”
वे अपने काम की पहचान चाहते हैं, क्योंकि उनकी आदिवासी कला सरकारी मदद के बिना मर रही है।
हालात और भी बदतर हो रहे हैं, क्योंकि युवा पीढ़ी इस शिल्प को जारी नहीं रखना चाहती।
केसरी को काम पसंद है और कठिनाई के बावजूद वह जो करती हैं, उससे संतुष्ट रहती हैं।
लेकिन उनका यह भी कहना है – “कुछ सहूलियत की इच्छा करने में क्या हर्ज है? मैं चाहती हूँ कि मेरे बच्चों को मुझसे बेहतर जिंदगी मिले। यदि मुझे इसके लिए सरकार से कुछ मदद चाहिए, तो इसमें गलत क्या है?”
केसरी के साथ हुई इस बातचीत ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया: क्या बेहतर जीवन की उम्मीद करना गलत है? और उस सरकार से मदद की उम्मीद करना, जो जनता के लिए, जनता के द्वारा बनी है, क्या गलत है?
इस लेख की लेखिका शुभलक्ष्मी दलवी हैं, जो इंडियन स्कूल ऑफ़ डेवलपमेंट मैनेजमेंट में विकास प्रबंधन की छात्रा हैं। (फोटो – शुभलक्ष्मी दलवी के सौजन्य से)
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