ठंडक बनाए रखने में सहायक मिट्टी के घर
विकास कार्यकर्ता, ज्योति राजपूत देखती हैं कि जहां कुछ लोगों के लिए मॉनसून तपती गर्मी से राहत लेकर आती है, वहीं कैसे राजस्थानी जनजातियां अपने मिट्टी के घरों में गर्मी को मात देती हैं।
विकास कार्यकर्ता, ज्योति राजपूत देखती हैं कि जहां कुछ लोगों के लिए मॉनसून तपती गर्मी से राहत लेकर आती है, वहीं कैसे राजस्थानी जनजातियां अपने मिट्टी के घरों में गर्मी को मात देती हैं।
जब इस साल गर्मियों में भारत तपती गर्मी झेल रहा था, राजस्थान में कुछ जनजातियों को कोई समस्या नहीं थी।
नहीं, वे महँगी एयर कंडीशनिंग पर निर्भर नहीं थे। लेकिन उनके पारम्परिक मिट्टी के घरों ने उन्हें कठोर गर्मी में ठंडक बनाए रखने में मदद की।
मौसम कोई भी हो, मिट्टी की दीवारों वाले घर कुदरती ढाल का काम करते हुए सामान्य तापमान बनाए रखते हैं, जिससे घर के अंदर आराम रहता है।
सभी मौसम के लिए अच्छे प्राकृतिक ताप-रोधी
तेज गर्मी में, घर के अंदर का तापमान नीचा रहता है। और सर्दियों में मिट्टी की दीवारें घर में गर्माहट प्रदान करती हैं। यह मिट्टी की छिद्रदार प्रकृति और प्राकृतिक ताप-रोधी गुणों के कारण होता है।
आदिवासियों का मानना है कि यदि घड़ा अपने आप एक घेरे में घूमता है तो बारिश अच्छी होगी।
इन घरों के फर्श गाय के गोबर, मिट्टी और पानी के मिश्रण से बने होते हैं, जिनकी प्रकृति भी ठंडी होती है।
खुरदरी मिट्टी से बनी पारम्परिक टेराकोटा टाइल वाली छतें, पानी के ठहराव को रोकती हैं और धूप, बरसात, हवा और दूसरे कठोर मौसम के हालात का सामना कर सकती हैं।
लकड़ी और बाँस के सहारे टिकी छत का डिज़ाइन घर को प्राकृतिक रूप से हवादार बनाता है।
दिलचस्प बात यह है कि इन मिट्टी के घरों के डिजाइनर और निर्माता ग्रामीण हैं।
वे अपना घर अपने हाथों से बनाते हैं। इस प्रक्रिया में महिलाएं भी परम्परागत रूप से शामिल होती हैं। इन घरों का रखरखाव भी महिलाएं करती हैं और होली या दिवाली जैसे प्रमुख त्योहारों से पहले घर की साफ-सफाई करती हैं।
ये मिट्टी के घर इस बात का सिर्फ एक उदाहरण हैं कि ग्रामीण भारत हमेशा अपने घरों के लिए पर्यावरण के अनुकूल सामग्री का उपयोग करता रहा है।
मिट्टी के घरों का रख-रखाव का खर्च बहुत कम होता है, जिससे महंगी सामग्री पर निर्भरता कम हो जाती है। इसकी बजाय, मिट्टी, गाय के गोबर, भूसी और लकड़ी जैसे आसानी से उपलब्ध स्थानीय, प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया जाता है, जिससे ढुलाई की लागत भी कम हो जाती है।
तोड़े गए मिट्टी के घरों की सामग्री का दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है। टूटने के बाद मिट्टी फिर से प्रकृति के साथ मिल कर फिर नए निर्माण के लिए तैयार हो सकती है।
कुल मिलाकर, मिट्टी के घर न केवल टिकाऊ होते हैं, बल्कि कठोर गर्मी और ठण्ड के मौसमों से बचाकर आराम से रहने में मदद करते हैं।
गर्मी ही वह समय भी है, जब आदिवासी बारिश की भविष्यवाणी के लिए इकट्ठे होते हैं।
आदिवासी गर्मियों में बारिश की भविष्यवाणी के लिए आधुनिक उपकरणों की बजाय, पारम्परिक विधि पर भरोसा करते हैं, क्योंकि वे शायद आधुनिक पूर्वानुमान विधियों के बारे में जानते नहीं हैं।
बुजुर्गों और अगुआ लोगों द्वारा तय किए गए गर्मी के एक विशेष दिन, ग्रामीण अच्छी फसल के लिए अपने देवता की प्रार्थना के लिए भविष्यवाणी एवं पूजा के लिए इकट्ठा होते हैं।
गेहूँ या दूसरे अनाज का फर्श पर एक ढेर बना दिया जाता है और उस के बीच में मिट्टी का घड़ा रखा जाता है। फिर वे बर्तन में एक दीपक जलाते हैं, जिसमें भी कुछ अनाज होता है। ग्रामीण मिट्टी के घड़े के पास मौजूद पुजारी की ओर एक हाथ फैलाकर प्रार्थना करते हैं।
जब पुजारी बारिश के देवता से प्रार्थना करता है, तो एक स्वयंसेवक बर्तन पर अपना संतुलन बनाता है। आदिवासियों का मानना है कि यदि घड़ा अपने आप एक घेरे में चलने लगे, तो अच्छी बारिश होगी।
ग्रामीणों का कहना है कि वे अपने पूर्वजों के समय से इस परम्परा का पालन करते आ रहे हैं और उनकी पारम्परिक भविष्यवाणी कभी गलत नहीं हुई।
उनका कहना है कि इस साल अच्छी बारिश होगी।
इस लेख के शीर्ष पर फोटो में गुजरात के मिट्टी के घर दिखाए गए हैं – फोटो – अर्जुन वसावा द्वारा।
ज्योति राजपूत टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई से सामाजिक कार्य में पोस्ट ग्रेजुएट हैं। वह एक स्वतंत्र विकास पेशेवर हैं।
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