सरकारी हस्तक्षेपों को आदिवासी परिवार कैसे देखते हैं?
इस आम राय के विपरीत, कि जनजातियाँ उपेक्षित हैं, वे न केवल अपने कल्याण की विभिन्न सरकारी योजनाओं से अवगत हैं, बल्कि उनके कार्यान्वयन के बारे में खुश हैं।
इस आम राय के विपरीत, कि जनजातियाँ उपेक्षित हैं, वे न केवल अपने कल्याण की विभिन्न सरकारी योजनाओं से अवगत हैं, बल्कि उनके कार्यान्वयन के बारे में खुश हैं।
अनुसूचित जनजातियों के लोग उन इलाकों में निवास करते हैं, जिन्हें परम्परागत रूप से खराब संपर्क और सुविधाओं की कमी से ग्रस्त समझा जाता है। आम तौर पर, यदि उन्हें सामान्य समावेशी नाम “आदिवासी” कहा जाए, तो ये लोग उबड़-खाबड़, पहाड़ी और चट्टानी क्षेत्रों में रहते थे, जिन्हें वन संपदा में समृद्ध माना जाता था । यह माना जाता था कि जंगल उनकी आजीविका और संस्कृति का एक अभिन्न अंग हैं।
आदिवासी लोग मुख्य रूप से ऊंचे स्थानों पर रहते हैं, जहां की ख़राब मिट्टी और ढलानदार जमीन उपयुक्त नहीं है और इसलिए वहां पर्याप्त भोजन और फसलों का उत्पादन नहीं हो सकता।
अनुसूची-5 में परिसीमित भौगोलिक क्षेत्रों के एक महत्वपूर्ण हिस्से में, जहां अनुसूचित जनजातियों के लोग रहते हैं, संविधान के अंतर्गत विशेष दर्जा प्राप्त है। संबंधित राज्य सरकारों को राज्यपाल द्वारा गठित एक जनजातीय सलाहकार परिषद के परामर्श से और जनजातीय लोगों के प्रतिनिधियों को शामिल करके प्रशासित करना होगा।
अनुच्छेद 275 (ए) में वित्त आयोगों को इन क्षेत्रों के विकास के लिए विशेष प्रावधान करने होंगे और यह विशेष धन राज्य सरकारों को आवंटित करना होगा, ताकि वे उसका उपयोग आदिवासी लोगों के कल्याण के लिए कर सकें। 2011 की जनगणना तक के वर्षों के पर्याप्त आंकड़ों की मदद से, पारम्परिक पारंपरिक राय यह है कि सामान्य रूप से आदिवासी लोगों ने अनुपात के हिसाब से विस्थापन और बेदखली का सामना किया है, और उनकी उपेक्षा की गई है।
सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि उन्हें सड़क, स्कूल, स्वास्थ्य सुविधाएं, बिजली आपूर्ति, सिंचाई, आदि जैसी बुनियादी सुविधाओं के अपने हिस्से से कम प्राप्त हुआ है। समय के साथ जैसे जैसे वन सम्पदा में कमी हुई और आकांक्षाएं बढ़ी, तो आदिवासी लोग देश के प्रवास में अनुपात से अधिक योगदान करते प्रतीत होते हैं।
पिछले सात-आठ सालों में इन लोगों का रहन-सहन कैसा रहा है? वे अपने लिए सरकार के हस्तक्षेपों को कैसे देखते हैं? लॉकडाउन और उसके आर्थिक प्रभावों से सबसे बुरी तरह प्रभावित लोगों में से होने के नाते (क्योंकि वे प्रवास स्थानों पर मजदूरी से होने वाली आय पर निर्भर थे), उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा उनके हालात में सुधार के लिए शुरू की गई योजनाओं को कैसे देखा?
कुल 5,000 से ज्यादा परिवारों पर किए गए एक व्यापक सर्वेक्षण से उल्लेखनीय निष्कर्ष निकालते हैं। यह सर्वेक्षण इस लेख के लेखकों सहित, प्रोफेशनल असिस्टेंस फॉर डेवलपमेंट एक्शन(PRADAN) की एक टीम द्वारा किया गया था।
वर्ष 2021 में, जब COVID-19 के आर्थिक प्रभावों ने देश को तबाह कर दिया था, किए गए इस सर्वेक्षण में एक ठोस पद्धति का पालन किया गया था, उसमें बड़ी संख्या में जनजातीय (और उनमें भी ‘विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह’ यानि PVTG) लोगों का पर्याप्त सैंपल था और तुलना के उद्देश्य से गैर-आदिवासी परिवारों का छोटा सैंपल था।
इस सर्वेक्षण के परिणाम झारखंड और ओडिशा की पहली ‘आदिवासी आजीविकाओं की स्थिति’ (SAL) में दर्ज किए गए हैं। एक प्रमुख आयाम, जिसका अध्ययन किया गया, वह इस बात से संबंधित था कि आदिवासियों ने अपने क्षेत्रों में सरकारी हस्तक्षेपों को कैसे समझा। जिन सरकारी योजनाओं पर राय ली गई, उनमें ‘उज्जवला योजना’, पीएम-किसान, जननी सुरक्षा योजना, मनरेगा आयुष्मान भारत, स्वच्छ भारत मिशन और पीएम आवास योजना शामिल हैं।
जानकारी तीन पहलुओं पर इकट्ठी की गई – क्या उत्तरदाता योजना के बारे में जानती थी और वह उसकी कद्र कर रही थी; क्या वह प्रावधान की पात्र थी और उसने आवेदन किया था; और क्या वह सरकार से सेवाएं प्रदान करने को लेकर संतुष्ट थी।
जानकारी चौंकाने वाली थी।
सरकार द्वारा तैयार की गई योजनाओं की व्यापक सराहना और संतुष्टि थी। एक तरह से इन दूरदराज के क्षेत्रों के आदिवासी और गैर-आदिवासी लोग समान रूप से संतुष्ट महसूस करते थे कि सरकार द्वारा ऐसी योजनाएं लागू की थी। यह संतुष्टि ऊंची बनी हुई है, चाहे वे पात्र थे और उन्होंने आवेदन किया था या नहीं। योजना लागू करने को लेकर भी संतुष्टि काफी ज्यादा पाई गई और यह किसी “पसंदीदा समूह” तक सीमित नहीं थी।
वह सरकारी योजनाएं, जिनके लिए तीन-चौथाई से ज्यादा उत्तरदाता ने ख़ुशी जाहिर की, वह थी शिक्षा का अधिकार, उज्ज्वला योजना और जननी सुरक्षा योजना। यहां तक कि पात्र लोगों को धन का काफी लाभ लाभ देने वाली पीएम आवास योजना और स्वच्छ भारत योजना जैसी योजनाओं के लिए भी, लगभग दो-तिहाई उत्तरदाताओं ने प्रसन्नता व्यक्त की।
सिर्फ ‘आयुष्मान भारत योजना’ के लिए संतुष्टि का स्तर मामूली था, जिसे बहुत से उत्तरदाताओं ने प्रत्यक्ष रूप से प्रासंगिक महसूस नहीं किया होगा, क्योंकि इसमें लाभ अस्पताल में भर्ती होने पर मिलता है, जिसकी जरूरत कम लोगों को पड़ती है।
सरकारी योजनाओं के बारे में जागरूकता असल में ही बहुत ज्यादा थी। वे यह पहचान सकते थे कि योजना क्या है और यह उनके परिवार के लिए है या नहीं। इस जागरूकता ने बदले में संतुष्टि पैदा की। एक तरह से यह तर्क दिया जा सकता है कि यह बढ़ी हुई पारदर्शिता का प्रभाव था। जमीनी स्तर पर योजना लागू करने वाले, अब सिर्फ अपने खास लोगों को योजना और पात्रता मानदंड की जानकारी नहीं दे सकते थे।
दूसरे, सराहना इतनी ज्यादा थी कि हमें संतुष्टि की भावना का यह अनुमान लगाना आसान था कि आखिरकार ऐसे दूरदराज के इलाकों में रहने वाले लोगों की जरूरतों को कोई पहचान रहा था और उन्हें कुछ ऐसा प्रदान कर रहा था, जो उनके मतलब का था।
वास्तविक प्रदर्शन को लेकर संतुष्टि का स्तर भी पूर्ण अर्थों में काफी ज्यादा था, हालांकि यह इस तरह की योजनाओं के लागू होने पर खुशी की भावना से कम थी। इसकी वजह विशिष्ट कार्यान्वयन की हिचक हो सकती है, जो विभिन्न स्थानों पर हुई हो सकती हैं।
सर्वेक्षण की जानकारी स्पष्ट रूप से दिखाती हैं कि ग्रामीण गरीबों के कल्याण के लिए बनाई गई अधिकांश योजनाएं दूरदराज के क्षेत्रों और 2011 की जनगणना अवधि तक सहज रूप से उपेक्षित लोगों तक पहुँच रही हैं। किसी को यह अनुमान लगाने के लिए क्षमा किया जा सकता है कि यदि दूरदराज के आदिवासी स्थानों के ग्रामीण लोग सरकारी कार्यक्रमों से बहुत खुशी व्यक्त करते हैं, तो संपन्न लोगों को भी ये कल्याणकारी लाभ प्राप्त होंगे।
सर्वेक्षण का विश्लेषण उन लोगों द्वारा दर्ज सामान्य स्थान के अवलोकन को प्रमाणित करता है, जो ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर आते हैं, जो कि सड़क और ग्रामीण आवास जैसे बुनियादी ढांचे में काफी तेजी से होने वाला सुधार देखते हैं।
ग्रामीण भारत वास्तव में बेहतर भविष्य की ओर बढ़ रहा है।
इस लेख के शीर्ष पर मुख्य फोटो में दूरदराज के एक गांव के निवासियों को नल का उपयोग करते हुए दिखाया गया है (फोटो – ‘प्रदान’ के सौजन्य से)
किरण लिमये नरसी मोंजी विश्वविद्यालय, मुंबई में अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं। इससे पहले वे ‘विकास अण्वेश फाउंडेशन, पुणे में काम करते थे।
संजीव फणसळकर विकास अण्वेष फाउंडेशन, पुणे के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान, आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फणसळकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद के फेलो हैं।
विचार लेखकों के अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे उनके संस्थानों या ‘प्रदान’ को प्रतिबिंबित करें।
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