क्या “फ़िल्मी गाँव” असली ग्रामीण भारत दिखाते हैं?
अतीत की फिल्मों के गाँव या तो मनोहर होते थे या फिर निराशाजनक। लेकिन आजकल की फ़िल्में ज्यादा यथार्थवादी हैं, जो शहरी और ग्रामीण दृष्टिकोण के बीच की खाई को पाटती हैं।
अतीत की फिल्मों के गाँव या तो मनोहर होते थे या फिर निराशाजनक। लेकिन आजकल की फ़िल्में ज्यादा यथार्थवादी हैं, जो शहरी और ग्रामीण दृष्टिकोण के बीच की खाई को पाटती हैं।
क्या आपको 1995 की काजोल-शाहरुख़ की फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ याद है? जी हां, वही फिल्म जिसने हमें लंदन और स्विटजरलैंड को भरपूर मात्रा में दिखाया।
उसकी तुलना 2020 में शुरू होने वाली वेब सीरीज ‘पंचायत’ से कीजिए। यह हमें मध्य प्रदेश के महोदिया गाँव में शूट किया गया, काल्पनिक फुलेरा गाँव दिखाती है।
क्या इनमें कोई संबंध है? नहीं, यह बिल्कुल उल्टा है।
झारखण्ड के कोल्हान विश्वविद्यालय में राजनीतिक वैज्ञानिक और प्रोफेसर, अनवर शहाब कहते हैं – “लगभग दो दशक पहले तक, फिल्मों की सफलता विदेशी स्थानों पर शूटिंग से जुड़ी थी और इसमें संभ्रांतवादी मूल्य शामिल होते थे। हाल ही में, शहरी और महानगरीय लोगों से जुड़ने के लिए फिल्मों और वेब श्रृंखलाओं की शूटिंग गांवों में की जाती है।”
क्या इसका मतलब यह है कि हिंदी फिल्मों में ग्रामीण भारत का चित्रण अब हाल ही में किया जाने लगा है?
पिछले कुछ वर्षों में ग्रामीण भारत के बारे में कई फिल्में बनी हैं, जैसा कि पंचायती राज मंत्रालय द्वारा जारी भारतीय गांवों में सेट या शूट की गई भारतीय फिल्मों की सूची से पता चलता है। हालांकि कुछ फ़िल्में अन्य भारतीय भाषाओं में हैं, लेकिन ज्यादातर हिंदी यानि बॉलीवुड फ़िल्में हैं।
लेकिन कुछ को छोड़कर, किसी विशेष गाँव या ग्रामीण संस्कृति के जीवन और समय में गहराई से उतरने की बजाय एक गाँव आम भारतीय ग्रामीणता को दर्शाने वाला एक सिनेमाई सहारा था।
कुछ उल्लेखनीय अपवाद भी थे।
भारत की श्वेत क्रांति की पृष्ठभूमि पर बनी, श्याम बेनेगल की फिल्म ‘मंथन’ ने गुजरात के सांगनवा गांव को जीवंत कर दिया। दो बेहतरीन ऐतिहासिक नारीवादी फ़िल्में, केतन मेहता की ‘मिर्च मसाला’ और शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’, क्रमशः गुजरात के कच्छ क्षेत्र और उत्तर प्रदेश के आसपास के स्थानों और रीति-रिवाजों का यथार्थवादी प्रतिनिधित्व थी।
प्रसिद्ध सामाजिक मनोविश्लेषक आशीष नंदी ने एक बार लोकप्रिय सिनेमा को “राजनीति का झुग्गियों के प्रति दृष्टिकोण” का सूचकांक कहा था।
वह ‘नकली गांवों’ को झुग्गी बस्तियों के रूप में दिखाने का जिक्र कर रहे थे, जो ग्रामीण भारत को सामाजिक रूप से ज्यादा रूपक या काव्यात्मक रूप में दर्शाता था।
फिल्म और मीडिया इतिहासकार रवि वासुदेवन के लिए बॉलीवुड, ग्रामीण जीवन को मनहूस शहर के विरोधाभास के रूप में व्यक्त करता था, जो सुखद “लालसा की वस्तु” होती थी।
हालांकि भारतीय लोकप्रिय सिनेमा विश्व स्तर पर आलोचनात्मक सोच और शोध का विषय है, लेकिन सिनेमा में ग्रामीण भारत के बारे में कम चर्चा होती है। तो आइए, इसे गहराई से देखें।
लंबे समय से भूला हुआ ‘ग्राम भारत’ बॉलीवुड की कल्पनाओं और इच्छाओं में वापिस आ गया है।
अरूप कुमार
वर्ष 2010 के आसपास तक, ज्यादातर बॉलीवुड गाँव किसी भी उत्तर भारतीय गाँव की तरह ही संचालित होते दिखाई पड़ते थे।
उदाहरण के लिए, कर्नाटक के पास शूट हुई ‘शोले’, उत्तर भारतीय कस्बे को दिखाती है। राजस्थानी गाँव की पृष्ठभूमि की राजस्थान में बनी फिल्म, ‘करण अर्जुन’, उस स्थान को सही ठहराने के लिए ज्यादा कुछ नहीं करती है।
लेकिन हाल ही में, विशेष रूप से 2010 के बाद, बॉलीवुड और ओटीटी वेब सीरीज़ ड्रामा, जिनमें व्यापक रूप से देखी और पसंद की गई ‘मसान’, ‘मिर्ज़ापुर’, ‘गुल्लक’, ‘पाताल लोक’, ‘आरण्यक’ और ‘पंचायत’ शामिल हैं, भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय दर्शकों ने समान रूप से पसंद किया है।
प्रसिद्ध समाजशास्त्री और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के प्रोफेसर, अश्विनी कुमार का मानना है कि गांव और छोटे शहर के इस पुनर्जीवन में कुछ आत्ममुग्धता है।
कुमार ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “लंबे समय से भूला हुआ ‘ग्राम भारत’ बॉलीवुड की कल्पनाओं और इच्छाओं में वापस आ गया है। ‘पंचायत’ के काल्पनिक फुलेरा गांव की शातिर, चमकदार और मोहक छवि, प्राचीन कपड़ों और आधुनिक डिजाइनों के साथ खानाबदोशी को एक फैशनेबल जीवन शैली अनुभव के रूप में पेश करते हुए, अलौकिक ग्रामीण ठाठ का प्रतीक बन गई हैं।
कवि एवं विद्वान, बसुधरा रॉय चटर्जी के अनुसार – “बॉलीवुड की कल्पना में, गाँव शहर के लिए ‘अन्य’ बना हुआ है, और इसलिए यह अपनी जीवंत पहचान के परिचय, विदेशीकरण और व्याख्या की मांग करता है।”
जैसा कि उन्होंने बताया, कई बॉलीवुड नायक ग्रामीण इलाकों से आए हैं।
उन्होंने विलेज स्क्वेयर को बताया – “लेकिन आम तौर पर केंद्रीय पात्रों की ‘वीरता’ शहरों में पनप सकती है। फ़िल्मी कल्पना में ग्रामीण स्थानों को अब भी शहरवासियों की मंजूरी की जरूरत है।”
आल इंडिया रेडियो की कार्यक्रम निर्माता, मीनाक्षी मुंड इस बात से सहमत हैं।
वह कहती हैं – “इनमें से ज्यादातर फिल्में शहरी दर्शकों के नजरिए से बनाई गई हैं, जिनमें ग्रामीण जीवन के कुछ पहलुओं को अवास्तविक रूप से महिमामंडित किया गया है।”
उत्साही लोग इस बात से खुश हो सकते हैं कि फ़िल्मी पर्दे पर परंपरा, पितृसत्ता और यहाँ तक कि आधुनिकता को भी चुनौती देते हुए, गाँव और कस्बे अधिक बहुमुखी विषयों, मानवीय व्यक्तिपरकता, राजनीतिक व्यापकता और भावनात्मक सार्वभौमिकता के साथ दर्शाए गए हैं।
मुंड 70 के दशक से पहले का समय याद करती हैं, जब ‘दो बीघा जमीन’, ‘अंतर्नाद’ और ‘नदिया के पार’ जैसी फिल्मों में शांति और संवेदनशीलता के साथ ग्रामीण भारत के वास्तविक सार को बारीकी से प्रस्तुत किया।
उन्होंने विलेज स्क्वेयर को बताया – “लेकिन ग्रामीण जीवन की झलक पेश करती, ‘पैडमैन’ और ‘NH 10’ जैसी फिल्में दिखाती हैं कि ग्रामीण भारत सामाजिक असमानताओं, कठोर पदानुक्रमों और विनाश की सामान्य भावना से ग्रस्त है।”
जैसे-जैसे भारत के दूरदराज के इलाकों की कहानियाँ वैश्विक होती जा रही हैं, विभिन्न भारतीय संस्कृतियों के बारे में उनके नायकों की आलोचना या निंदा किए बिना जानने का उत्साह बढ़ता जा रहा है।
गाँवों और कस्बों पर नई नजर, विवादास्पद और वर्जित मुद्दों को गैर-हठधर्मी प्रतिनिधित्व के साथ जोड़ने की कोशिश कर रही है।
जहां ‘पंचायत’ की कहानी जाति और वर्ग की राजनीति, अंधविश्वास और लैंगिक असमानता पर आधारित है, ‘डॉ. अरोड़ा – गुप्त रोग विशेषज्ञ’ एक चिकित्सा विशेषज्ञ और अपने भुगतभोगी ग्राहकों के लेंस से, वैवाहिक कामुकता के बेहद लांछित मुद्दे की पड़ताल करता है।
‘मिर्ज़ापुर’ बड़ी मात्रा में घातक मर्दानगी और बन्दूक की हिंसा पेश करती है, बिना इस का महिमामंडन किए या बिना महिला पात्रों के पितृसत्ता-विरोध के पक्षधरों के रूप में उनकी बुरी प्रवृत्तियों को दबाने की कोशिश किए।
और ‘अरण्यक’ रवीना टंडन की छोटे पर्दे पर वापसी को चिह्नित करते हुए, मनाली के हिल स्टेशन में एक खोजी पुलिसकर्मी की एक मजबूत महिला प्रधान भूमिका प्रस्तुत करती है।
गाँव अब उन निराश नायकों के बारे में नहीं रह गए हैं, जो पीपल या कटहल के पेड़ों के चारों ओर घूमते हुए महिला-प्रेमियों के साथ प्रेमगीत गाते हैं।
कुमार कहते हैं – “ग्रामीण भारत अब एक भुतहा या एक अंधकारमय घुसपैठिया नहीं है; यह अक्सर एक ऐसा नकाबपोश और पर्देदार अंतरंग जानवर बन गया है, जिसे न तो गांधी और न ही अंबेडकर पहचान सकते हैं।”
उन्हें दलितों और आदिवासियों के अधिक प्रतिनिधित्व की उम्मीद है, खासकर जब ग्रामीण भारत की बात आती है।
मुंड ने कहा – “हालांकि भारत का अधिकांश हिस्सा गांवों में रहता है, फिर भी ग्रामीण वास्तविकताओं पर काफी फिल्में नहीं बनी हैं।”
वह कहती हैं – “हालांकि ऐसी कई फिल्में हैं, जो नायकों के ग्रामीण से शहरी इलाकों में प्रवास को दर्शाती हैं, लेकिन शायद ही ऐसी कोई फिल्में हैं, जो इस रुझान को उलटती हों।”
आधुनिक ग्रामीण भारत के वास्तविकतावादी और मुखर फ़िल्मी जीवन की लड़ाई, निश्चित रूप से शहरी कल्पना की सीमाओं से टकरा रही है। यह भारत के लचीले और आकांक्षी गांवों के लिए, राजनीति और सिनेमा में पुनर्विचार की मांग करता है।
‘बरेली की बर्फी’, ‘पंचायत’ और ‘सूई धागा’ जैसी फ़िल्में शहरी और ग्रामीण मानसिकता के बीच की खाई को पाट रही हैं, जो शहाब के अनुसार सही दिशा में एक बहुत वांछित कदम है।
शहाब के विचार वरिष्ठ पत्रकार और संपादक, जयराज सिंह की राय से मेल खाते हैं।
सिंह ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “बहुत पहले की बात नहीं है, जब मुंबई कार्यालयों में बैठे लोगों का एक समूह, भारत के विचार, विशेष रूप से इसके ग्रामीण क्षेत्र को आदर्श रूप में प्रस्तुत करता था। लेकिन मल्टीप्लेक्स और ओटीटी मंचों के आगमन के साथ यह बदल गया, जिससे मुद्दों का अति-स्थानीयकरण हो गया।”
सिंह याद करते हैं कि कैसे दिवंगत इरफान खान अपनी फिल्मों के सेट वाले गांवों में लम्बा समय बिताने की बात करते थे, ताकि वे “लोगों के बात करने और व्यवहार करने के तरीके में महारत हासिल कर सकें।… भारतीय शहरों से परे जीवन कैसा है, इसकी गहराई से जानकारी प्राप्त कर सकें।”
अब अभिनेता, फिल्म निर्माता और दर्शक सभी इस दृष्टिकोण को बराबर साझा करते हैं।
यदि कोई एक बात है जिस पर सभी सहमत हैं, तो वह है पर्दे पर ग्रामीण भारत के ज्यादा विश्वसनीय प्रस्तुति की जरूरत।
लेख के शीर्ष पर मुख्य चित्र में ग्रामीण भारत को दिखाने वाली प्रमुख बॉलीवुड फिल्मों को दिखाया गया है (चित्र – अंकिता स्वरूप)
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