विनाशकारी बाढ़, ओडिशा के किसानों का नया संकट
चक्रवातों की मार से बर्बाद, ओडिशा की कृषि भूमि अब बाढ़ की चपेट में है और इसके किसान बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान झेल रहे हैं और सरकारी मुआवजे की उम्मीद कर रहे हैं।
अपने खेत में खड़े, तुलु बिस्वाल ने अपनी बाढ़ग्रस्त फसलों को देख कर मुँह बनाया। कीचड़ के ऊपर दिख रहे धान के कुछ पौधों को छोड़कर, आपको पता भी नहीं चलेगा कि यह धान का खेत था।
ओडिशा के पुरी जिले के पिपिली ब्लॉक के कांति गांव के 45-वर्षीय किसान, पिछले दो दशकों से अपनी पांच एकड़ जमीन में धान की खेती कर रहा है।
वह गांव के उन 300 किसानों में से एक है, जो आजीविका के लिए धान और सब्जियां उगाते हैं।
रुँधे गले से बिस्वाल कहते हैं – ”गीली मिट्टी के ढेर ने अब मेरे धान के खेत को ढक दिया है।”
और यह पिछले कुछ वर्षों में ओडिशा के किसानों द्वारा झेली गई कई विपत्तियों में से एक है।
बांधों से अतिरिक्त पानी छोड़े जाने के साथ ही, अगस्त की बारिश ने राज्य के 24 जिलों में कहर बरपाया। पुरी, अंगुल, संबलपुर और बरगढ़ जिले बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।
पानी छोड़ने को लेकर दोनों राज्य सरकारों के बीच समन्वय की कमी साफ नजर आती है। इसके फलस्वरूप हमें बहुत कष्ट सहना पड़ा है।
नारायण खेता
ग्रामीणों का कहना था कि महानदी की एक सहायक नदी, ‘दया’ नदी का जलस्तर बढ़ गया और अगस्त के मध्य में खेतों में घुस गया, जिससे पूरे क्षेत्र में बाढ़ आ गई।
पिपिली ब्लॉक के 52-वर्षीय किसान, बिनय दास कहते हैं – “मीडिया रिपोर्टों से हमें पता चला कि छत्तीसगढ़ राज्य में लगातार बारिश के कारण, अधिकारियों को महानदी पर हीराकुंड बांध से अतिरिक्त पानी छोड़ना पड़ा। इससे निचले इलाकों और दया नदी और आखिर में हमारे खेतों में बाढ़ आ गई।”
सरकारी अधिकारियों ने स्वीकार किया कि भारी बारिश और पानी छोड़ने के लिए बांध के गेट खोलना कृषि भूमि के लिए विनाशकारी साबित हुआ।
एक किसान, नारायण खेता ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “पानी छोड़ने को लेकर दोनों राज्य सरकारों में स्पष्ट रूप से समन्वय की कमी नजर आती है। इसके कारण हमें बहुत नुकसान उठाना पड़ा है।”
कई किसानों ने कहा कि उन्होंने पिछले चार दशकों में इतनी भीषण बाढ़ कभी नहीं देखी।
खेता कहते हैं – “हमें अब भी 1982 की भीषण बाढ़ याद है, जब हम छोटे थे। लेकिन इस बार पानी हमारी गर्दन तक पहुंच गया। अपनी फसलों की हालत देखने के लिए हमें नाव से जाना पड़ा।”
राज्य सरकार के अधिकारियों का कहना था कि अकेले पिपिली ब्लॉक में कुल 18,000 हेक्टेयर फसल वाली भूमि में से 1,614 हेक्टेयर भूमि नष्ट हो गई है।
नाम गुप्त रखने की शर्त पर एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कहा – “राज्य भर में हुए अन्य नुकसानों के अलावा, 1.26 लाख हेक्टेयर में फैली लगभग 33% फसलें नष्ट हो गई हैं।”
अधिकारी के अनुसार, बाढ़ के कारण 5,036 हेक्टेयर फसली भूमि मिट्टी से पट गई है।
खेता ने रोते हुए कहा – “मैं हर रोज खेत में आता हूँ, लेकिन अंत में अपनी मरी हुई फसलों को देखता हूं।”
बिस्वाल ने खेती के लिए एक स्थानीय बैंक से 90,000 रुपये का कर्ज लिया था।
उन्होंने विलेज स्क्वेयर को बताया – “क्योंकि बाढ़ ने सब कुछ बहा दिया है, इसलिए मैं कर्ज़ नहीं चुका सकता। यह मेरी क्षमता से परे है।”
तीन एकड़ जमीन के मालिक खेता ने अच्छी फसल की उम्मीद में स्थानीय सहकारी बैंक से 50,000 रुपये का कर्ज़ लिया था।
वह कहते हैं – “मैंने जुलाई में बुआई के मौसम में 8% वार्षिक ब्याज पर ऋण लिया था। मुझे अच्छी फसल की उम्मीद थी। लेकिन बाढ़ ने मेरे खेत को मिट्टी के खेत में बदल दिया है।”
हालाँकि कुछ फसल बची है, लेकिन उन्हें डर है कि इससे कुछ खास मिलने वाला नहीं है।
एक 64-वर्षीय किसान, हलतो किशोर बेहरा कहते हैं – “कटाई के बाद हम धान को लंबे समय तक रोककर नहीं रख सकते, क्योंकि हममें से ज्यादातर लोग कर्ज़ लेकर ही काम शुरू कर सकते हैं और हमें बैंकों या साहूकारों को भुगतान करना होता है, जो ऊंची ब्याज दर वसूलते हैं।” .
किसानों के लिए इससे उबरना और भी मुश्किल है, क्योंकि यह उन कई विपत्तियों में से एक है, जो उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में झेले हैं।
कई किसानों ने दुःख जताया कि वे अब भी 2019 के चक्रवात ‘फानी’ और फिर महामारी के लगे प्रतिबंधों में हुए नुकसान से उबर नहीं पाए हैं। बाढ़ एक बड़ा झटका बनकर आई है।
पिपिली ब्लॉक की सहायक कृषि अधिकारी, जयलक्ष्मी साहू ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “पिछले दिसंबर में ‘जवाद’ चक्रवात से भी किसानों को नुकसान हुआ था। इस साल ब्लॉक के 38 गांवों को बाढ़ का दंश झेलना पड़ा।”
कांति गाँव के 48-वर्षीय एक किसान सुरेंद्र सामंत रॉय ने बताया कि बहुत से किसानों को अभी तक फानी के दौरान हुए नुकसान का मुआवजा नहीं मिला है और बाढ़ ने उनकी परेशानियां बढ़ा दी हैं।
रॉय कहते हैं – “हम प्रकृति की दया पर निर्भर हैं। बार-बार आने वाली प्राकृतिक आपदाएँ हमें मानसिक और आर्थिक रूप से तोड़ देती हैं।”
64-वर्षीय हलतो किशोर बेहरा जैसे किसानों को लगता है कि खेती लगातार नुकसान का सौदा होती जा रही है।
बेहरा ध्यान दिलाते हैं – “मजदूरी के खर्च के साथ-साथ बीज और खाद जैसे कच्चे माल की लागत में भारी वृद्धि का मतलब किसानों की आय कम होना है। धान उत्पादन की प्रति हेक्टेयर लागत लगभग 15,000 रुपये है, लेकिन हमें सिर्फ 13,000 रुपये और कभी-कभी इससे भी कम मिलते हैं।”
लगातार नुकसान से निराश और जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती उनकी मुसीबतों के चलते किसानों के बच्चे अन्य व्यवसायों में जा रहे हैं।
बेहरा ने आगे कहा – “मेरे बेटे पहले ही दूसरे राज्यों में चले गए हैं और वहां काम कर रहे हैं। नुकसान के कारण वे खेती नहीं करना चाहते। जलवायु परिवर्तन ने हमें बार बार आने वाली प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील बना दिया है।
फिर भी बिस्वाल जीवन को नए सिरे से शुरू करने के लिए बस थोड़ा सा मुआवजा चाहते हैं।
“हम पहले ही अपनी धान की फ़सल खो चुके हैं और यदि सरकार कर्ज माफ़ी की घोषणा नहीं करती, तो हम पर कर्ज़ चुकाने का बोझ है। मैं बस प्रशासन से कुछ मुआवजा चाहता हूँ, ताकि मैं अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकूँ,” यह कहते हुए चले गए, क्योंकि आसमान में फिर से काले बादल छा गए थे और भारी बारिश की सम्भावना बन रही थी।
मुख्य फोटो में लगातार बारिश के बाद जलमग्न खेतों को दिखाया गया है (फोटो – स्टीव डगलस, ‘अनस्प्लैश’ से साभार)
गुरविंदर सिंह कोलकाता स्थित पत्रकार हैं।
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