आमतौर पर एक अतिरिक्त प्रयास के रूप में देखी जाने वाली, कर्नाटक की रजाई बनाने वाली कुशल महिलाएं, कपड़े के रंगीन टुकड़ों को खूबसूरत ‘पैबंद रजाई’ (पैचवर्क रजाई) में बदल कर अपनी विरासत को जीवित रखती हैं और अच्छा पैसा भी कमाती हैं।
कर्नाटक के मुंडरगी तालुका (विकास खंड) के जिन्दली सिरूर गांव के रजाई-ग्राम में आपका जोरदार और रंगीन स्वागत, सादगी के सौंदर्य के जापानी दर्शन, ‘वाबी-साबी’ का सही वर्णन करेगा।
सूरजमुखी की चमकदार फसल, खंभों पर लगे शंकु के आकार के लाउडस्पीकरों से संगीत, अपने सबसे बढ़िया सफ़ेद और तिरंगे अंगवस्त्रम पहने गलियों में घूमते पुरुषों और लड़कों के समूह – रंग और ध्वनियाँ एक सुरूर भरा प्रभाव पैदा करती हैं। और फिर भी इसमें जंतली की महिलाओं की खौदियों (रजाइयों) जैसा कुछ सुकूनदायक है।
‘नंदी आर्ट्स’ के सामाजिक उद्यमी रबी किरण ने यह पहेली सुलझाई।
किरण कहते हैं – “आज श्रावण का आखिरी दिन है और वे बसवन्ना जात्रा की पूर्व संध्या की तैयारी कर रहे हैं।”
लगभग चालीस वर्ष के एक व्यक्ति किरण, हर पखवाड़े 65 किमी की यात्रा करके, दर्जियों के द्वारा फेंके गए कपड़ों के टुकड़ों से भरी बोरियाँ, गांव की रजाई बनाने वाली लगभग 30 महिलाओं को पहुँचाते हैं।
वे पुराने कपड़ों को जिन मेज कवर और पैबंद-रजाइयों में बदलती हैं, वह अगस्त के अंत में होने वाले उनके त्यौहार की तरह ही जीवंत हैं। कपड़े की डोरियों पर लटकी हुई, चारपाइयों पर बिछी हुई, ट्रैक्टरों पर फैली हुई – खौदियाँ हर जगह हैं।
जिन्दली सिरूर गाँव मुंडरगी तालुका के 58 गांवों में से एक है, जो कल्याणी चालुक्य पुरातात्विक अवशेषों की जगह, डम्बल से 18 किमी दूर स्थित है। यहां कृषि मुख्य व्यवसाय है, लेकिन कृषि उपज हाल ही में अस्थिर रही है, क्योंकि दुनिया भर की कृषि अर्थव्यवस्थाओं की तरह, यह गांव भी जलवायु परिवर्तन से होने वाले परिवर्तनों से अछूता नहीं है। सूखे ने गाँव को बुरी तरह प्रभावित किया है और सिंचाई नहरों की अनुपस्थिति ने हालात और भी बदतर कर दिए हैं।
जब जिंदगी कबाड़ दे, तो रजाई बना लो
और उत्तरी कर्नाटक के गांवों की महिलाएं इसमें बहुत अच्छी हैं। पीढ़ियों से चले आ रहे सिलाई के कौशल से लैस, वे रंग और संरचना को छोड़कर खौदियाँ बनाती हैं।
जिस तरह से वे इसे बनाती हैं, वह वास्तव में देखने लायक है। यह रचनात्मकता अपने सर्वोत्तम रूप में है।
हम जो भी रजाई बनाते हैं, वह अनोखा होता है और उसके पीछे बताने के लिए एक अनोखी कहानी होती है। रंगीन पैबंद से बनी प्रत्येक रजाई उस महिला का प्रतिबिंब है, जिसने इसे सिला है।
रजाई का अनोखा पैचवर्क पैटर्न बनाने के लिए, कपड़े के टुकड़ों को ज्यामितीय आकार में सफाई से काटा जाता है। आधार कपड़े को मुलायम बनाया जाता है और फिर कटे हुए पैबन्दों को टांके के साथ उस पर एक-एक करके सिल दिया जाता है। प्रत्येक टुकड़े पर बारीक, लगातार टाँके लगाए जाते हैं।
तीसरी पीढ़ी की खौदी बनाने वाली और ग्राम पंचायत कर्मचारी, 60-वर्षीय अंधम्मा कोनी कहती हैं – “जब से मुझे याद है, तब से मैं इन्हें बना रही हूँ। हम जो भी रजाई बनाते हैं, वह अनोखी होती है और उसके पीछे बताने के लिए एक अनोखी कहानी होती है। रंगीन पैबन्दों से बनी प्रत्येक रजाई उस महिला का प्रतिबिंब है, जिसने इसे सिला है।”
सही समय पर सही कदम
यह गांव 150 वर्षों से ज्यादा समय से रजाई बना रहा है और 200 से ज्यादा परिवार रजाई बनाने का काम करते हैं।
ऐसे शिल्प के लिए युवा पीढ़ी के पास धैर्य और समय कहां है?
अंधम्मा कहती हैं – “सिलाई में अपनी जन्मजात विशेषज्ञता और उपयोग की जाने वाली बेहतर सामग्री के कारण हम समृद्ध हुए।”
और लोग भी इसमें अपनी पूरी ताकत लगाते हैं, लेकिन लंबे समय में कई लोग हिम्मत हार जाते हैं।
क्या युवा पीढ़ी की इसमें रुचि है?
55 वर्षीय परम्मा अलवंडी इसका जवाब सवाल के साथ देती हैं – “ऐसे शिल्प के लिए उनके पास धैर्य और समय कहाँ है?”
पैबंद के काम में धैर्य चाहिए – बहुत ज्यादा
इसमें समय लगता है, विशेष रूप से तब, जब अलग-अलग आकार, प्रकार और बनावट के 60-70 कपड़े के पैबंद हों। फिर कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनमें ज्यामितीय रूप से फैले चन्द ही पैबंद होते हैं।
महिलाएं सरल, व्यावहारिक रजाइयां इकट्ठा करके सिलती हैं। पूरे मद को सुरक्षित करने के लिए, किनारों को चिपका दिया जाता है। फिर प्रत्येक खोदी को एक लंबी, लगातार सिलाई से रजाई के रूप तैयार किया जाता है।
रजाई बनाने वाली तेजी से काम करती है। कुशल हाथ एक समय में चार टांके लगाते हैं, जिससे एक आनंददायक लय बनती है।
धागा, जिसे स्थानीय रूप से लम्बे टांके के कारण ‘नूलू दारा’ के नाम से जाना जाता है, मुंबई से ख़रीदे जाता है। इसकी कीमत 350 रुपये प्रति किलोग्राम है और यह काफी मजबूत है, जो रजाई के कठोर और उठा-पटक वाले इस्तेमाल को झेल सकता है। एक रजाई में करीब आधा किलो धागा लगता है।
रेखाएं और आकार बनाने वाले सजावटी वर्गाकार टुकड़ों, कोने की कड़ियों, लटकन और बिंदु-से-बिंदु वर्गों की परतों के साथ, पैटर्न गहराई का एक अतिरिक्त आयाम बनाते हैं और रजाई को एक बेहतर गुणवत्ता देते हैं।
रजाई का आराम
रजाइयों से अच्छा पैसा मिलता है, लेकिन जिंदली सिरूर के ग्रामीण अब भी रजाई बनाने को, कभी भी आय का प्राथमिक श्रोत नहीं मानते, बल्कि एक फुर्सत और आजीविका के बीच की गतिविधि मानते हैं।
दो दशकों से अधिक समय से रजाई बनाने वाली, अनुभवी 45 वर्षीय निर्मला नवलगुंड कहती हैं – “हम सिलाई का ज्यादातर काम अपना घरेलू काम खत्म करने के बाद दोपहर में करते हैं और रात के खाने के बाद फिर से शुरू करते हैं।”
उनकी खौदियों के संरक्षक बेंगलुरु, चेन्नई और मुंबई जैसे शहरों में हैं, जहां लोग उनका ज्यादातर इस्तेमाल आरामदायक होने के कारण करते हैं।
प्रत्येक रजाई बनाने वाला महीने में एक या दो रजाई बनाता है और 1,500 रुपये से 2,000 रुपये के बीच कमाता है। कुदरती रूप से, सर्दियों में इस व्यवसाय में तेजी आती है।
पैचवर्क देखने पर्यटक आते हैं
22 किलोमीटर दूर के गडग शहर जैसे स्थानों से लोग इस गांव में आते हैं।
लेकिन महामारी के इन दो वर्षों में ये यात्राएं बहुत कम हो गईं।
नंदी आर्ट्स के रबी किरण कहते हैं – “महामारी के महीनों में, मांग बेहद कम हो गई थी और हम केवल मुट्ठी भर लोगों को ही नौकरियाँ दे सके। चीजें अब ठीक हो रही हैं।”
एक ललित कला शिक्षक, वह शादी के बाद विजयनगर के हुविना हड़ागली में चले गए और अपने एक सहपाठी द्वारा परिचित कराने के बाद, 2015 में जिन्दली सिरूर की खौदियों से जुड़ गए।
कर्नाटक की खौदियों की तरह, भारत के लगभग हर राज्य में हाथ से बने बेडकवर का अपना संस्करण है।
पश्चिम बंगाल का ‘कांथा’; लोक कला और पत्थर-कला से मिले अपने गतिशील डिजाइनों के साथ झारखंड के ‘लेदरा’ और ‘गुदड़ी’; ओडिशा के ‘कोन्था’; उत्तर प्रदेश के बहराईच के ‘कंदूरी’, राजस्थान की ‘जयपुरी रजाई’; मध्य प्रदेश के ‘गोडाल’; गोवा के ‘गोधाडी’, ‘मानेस’ और ‘कपिला’; बनाने वाली महिलाओं के रोजमर्रा के जीवन को दर्शाती खूबसूरत डिज़ाइन वाली बिहार की ‘सुजनी’; करघे पर दोहरा बुनाई वाली जेबों में डाले अस्तर के साथ गुजरात के भरूच की ‘सुजनी’ इनमें शामिल हैं।
वे भारत के सांस्कृतिक इतिहास के एक बड़े हिस्से को एक साथ जोड़ते हैं। और प्रत्येक एक मित्र की तरह है, सुकून का एक बड़ा स्रोत।
मुख्य फोटो में एक सुंदर रजाई दिखाई गई है, जो कपड़े के रंगीन टुकड़ों से बनी है (फोटो – नंदी आर्ट्स के सौजन्य से)
हिरेन कुमार बोस ठाणे, महाराष्ट्र में स्थित एक पत्रकार हैं। सप्ताहांत में वह एक किसान के रूप में भी काम करते हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?