प्रसाद को मिट्टी के चूल्हे पर पकाना महत्वपूर्ण है, जिन्हें मुसलमान अपनी पारिवारिक परम्परा को जारी रखते हुए चूल्हे बनाते हैं। वे कम मुनाफे के बावजूद, हिंदू त्योहार छठ पूजा में अपने योगदान पर गर्व करते हैं।
जैसे जैसे पूरे भारत में फुलझड़ियों की रोशनी और पटाखों की आवाज़ कम होती है, बिहार में छठ पूजा की जोरदार तैयारी शुरू हो जाती है।
इस साल 28 से 31 अक्टूबर तक मनाए जाने वाला यह चार दिवसीय त्योहार, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल के हिंदुओं के लिए सबसे लोकप्रिय त्योहारों में से एक है।
प्रसाद को मिट्टी के चूल्हों पर पकाना छठ पूजा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। और अंदाज़ा लगाइये कि ये स्टोव बनाता कौन है? महिलाएँ।
जहां परिवार घर की सफाई करने और हिंदू त्योहार के लिए जरूरी फल और सामान खरीदने में व्यस्त हैं, वहीं दर्जनों मुस्लिम महिलाएं मिट्टी गूंथने और उन्हें मिट्टी के चूल्हे का आकार देने में व्यस्त हैं। हालाँकि ये चूल्हे ज्यादातर मुस्लिम महिलाएँ ही बनाती हैं, लेकिन कुछ जगहों पर हिंदू महिलाएँ भी मिट्टी के चूल्हे बनाती हैं।
मिट्टी के चूल्हे की परम्परा को जीवित रखना
गरीबी से त्रस्त होने के बावजूद, मुश्तकीमा खातून को छठ से पहले मिट्टी का चूल्हा बनाने में मजा आता है।
खातून, जिनकी उम्र लगभग 50 वर्ष है, अपने परिवार की बहुत सी महिलाओं की तरह लगभग 25 वर्षों से मिट्टी के चूल्हे बना रही हैं। पैसे कमाने से ज्यादा, उन्हें मिट्टी का चूल्हा बनाना पसंद है, क्योंकि यह उनके परिवार की परम्परा का हिस्सा है।
जिस तरह छठ हिंदुओं के लिए एक वार्षिक त्योहार है, उसी तरह खातून और उनके परिवार के लिए बर्तन बनाना एक वार्षिक अनुष्ठान है।
बिहार की राजधानी पटना के मध्य में, एक व्यस्त सड़क के फुटपाथ पर चूल्हे को अंतिम रूप देते हुए खातून पूछती हैं – “यदि हम मिट्टी के चूल्हे नहीं बनाएंगे, तो श्रद्धालु छठ पूजा का प्रसाद कैसे पकाएंगे?”
छठ और इसकी परम्पराएँ
मिट्टी का चूल्हा श्रद्धालुओं के लिए आवश्यक वस्तुओं में से एक है, जो छठ के दौरान पारम्परिक और प्राकृतिक सामग्री के उपयोग का प्रतीक है, जिसे स्थानीय तौर पर बिहार में महापर्व के रूप में जाना जाता है।
लाखों श्रद्धालु व्रत, प्रार्थना और सूर्य देव की पूजा करके छठ पर्व मनाते हैं।
पहले दिन वे किसी जलाशय में डुबकी लगाते हैं। जबकि वे तीसरे दिन शाम को डूबते सूर्य की पूजा करते हैं, वे चौथे दिन सुबह उगते सूर्य की पूजा करते हैं, जो एक सदियों पुरानी परम्परा का प्रतीक है।
भक्त प्रसाद पकाने के लिए मिट्टी के चूल्हे में ईंधन के रूप से आम की सूखी लकड़ियों का उपयोग करते हैं। वे मिट्टी के बर्तन, बांस की टोकरियाँ, फल, सब्जियाँ, नई फसल के चावल और गन्ने के ताज़े रस का भी उपयोग करते हैं।
खातून कहती हैं – “मिट्टी के चूल्हों में वे आम के पेड़ों की सूखी लकड़ी का उपयोग जलाऊ लकड़ी के रूप में करते हैं। वे उबले चावल एवं लौकी का पारम्परिक भोजन और एक मीठा पकवान पकाते हैं।”
कुछ अनुष्ठानों में ‘सात्विक’ भोजन (बिना प्याज और लहसुन के बनाया गया भोजन) और स्नान करने के बाद ही भोजन करना शामिल है।
कम लाभ के बावजूद मिट्टी के चूल्हे बनाना
हालाँकि ख़ातून को परम्परा में अपनी भूमिका पसंद है, लेकिन वह मानती हैं कि इसे जारी रखना कभी-कभी आर्थिक रूप से संघर्षपूर्ण होता है, क्योंकि कच्चे माल, मुख्य रूप से अच्छी गुणवत्ता वाली मिट्टी, की लागत ज्यादा है।
मिट्टी तैयार करना भी आसान नहीं है। मिट्टी के चूल्हे को हाथ से बनाने में अतिरिक्त ध्यान रखने की जरूरत होती है और उसे सुखाने में काफी समय लगता है।
वह कहती हैं – “यह आसान नहीं है। लेकिन मैं मिट्टी के चूल्हे बनाती हूँ, क्योंकि लोग उम्मीद करते हैं।”
एक आलीशान मनोरंजन केंद्र, प्रसिद्ध ‘पटना क्लब’ के पीछे बड़ी झुग्गी बस्ती में रहने वाली, 20 से ज्यादा अधिक महिलाएं उनकी बात से सहमति व्यक्त करती हैं।
वे कहती हैं – “जब हम थक जाते हैं, तो पास के पेड़ों की छाया में आराम करते हैं। यह गहन श्रम और समय लेने वाला काम है और इसमें कोई विशेष मुनाफ़ा नहीं है।”
एक पारिवारिक परम्परा
बच्चों सहित अपने परिवार के सदस्यों के साथ, बहुत सी महिलाएँ छठ पूजा के लिए जितना संभव हो सके, मिट्टी के चूल्हे बनाने के लिए सुबह से देर शाम तक काम करती हैं।
ऐसे पुरुषों और महिलाओं के समूह पटना और उसके आसपास विभिन्न स्थानों पर चूल्हे बनाने में लगे हुए हैं।
दस साल से ज्यादा समय से चूल्हे बनाने वाली संजीदा खातून कहती हैं – “हम सभी कई दिनों तक कड़ी मेहनत करते हैं, गर्मी और धूल और गुजरते वाहनों के धुएं के बावजूद सड़क के किनारे स्टोव बनाते हैं। हमें कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है, लेकिन हम मिट्टी के चूल्हे बनाने के लिए उन्हें नजरअंदाज कर देते हैं, जो हमारी परम्परा है।”
असमा खातून और उनके भाई मोहम्मद जावेद ने अब तक 250 से अधिक मिट्टी के चूल्हे बनाए हैं और 50 और जोड़ने की उम्मीद करते हैं। वह कहती हैं – “पहले के विपरीत, जब हमारे परिवार के बुजुर्गों को सस्ती मिट्टी मिलती थी, अब एक ट्रैक्टर भर मिट्टी की कीमत 3,000 से 4,000 रुपये है।”
हालाँकि वे सड़क किनारे अपनी अस्थायी दुकानों में स्टोव बेचते हैं, लेकिन वे इस काम को गर्व के साथ करते हैं।
संजीदा खातून ने कहा – “पहले मेरी सास और अन्य लोग चूल्हे बनाते थे। अब मैं पारिवारिक परम्परा को जारी रखे हुए हूँ। मुझे गर्व है कि मैं छठ का व्रत रखने वालों के लिए ये बनाती हूँ।”
उनके रिश्तेदार मोहम्मद इस्लाम का कहना था कि वे ‘बाप -दादा’ (पारिवारिक) की परंपरा को जारी रखते हैं, मिट्टी के चूल्हे बनाते हैं, मामूली लाभ पर बेचते हैं।
चूल्हे बनाते समय समन्वयित अनुष्ठान
इस्लाम कहते हैं – “हमारे द्वारा बनाए गए मिट्टी के चूल्हों की मांग बहुत ज्यादा है, क्योंकि हम इन्हें पूरी निष्ठा के साथ बनाते हैं और सख्त जीवनशैली का पालन करते हैं।”
दरअसल, उनके रिवाज़ और जीवनशैली वैसी ही होती है, जैसी छठ पूजा करने वाले भक्तों की होती है।
मोहम्मद इस्लाम के अनुसार, चूल्हा बनाने वाले लोग स्नान कर के ही काम शुरू करते हैं।उन्होंने कहा कि वेसाफ सूती कपड़े पहनते हैं और भक्तों की तरह लहसुन-प्याज का त्याग कर, सात्विक भोजन करते हैं।
वे छठ पूजा से जुड़ी पवित्रता और भक्ति के विचार के साथ केवल शाकाहारी भोजन खाते हैं।
इस्लाम ने कहा – “हम इन सबका पालन वैसे ही करते हैं, जैसे हमने बचपन से देखा है।”
लोगों की प्रशंसा मनोबल बढ़ाने वाली
यह केवल पटना में ही नहीं, बल्कि पूरे बिहार के कई छोटे शहरों में भी, सैकड़ों गरीब, ज्यादातर महिलाएँ, छठ त्योहार के लिए मिट्टी के चूल्हे बनाते हैं।
वे दुर्गा पूजा के तुरंत बाद शुरू कर देते हैं, और ग्राहकों की प्रशंसा उन्हें प्रेरित करती रहती है।
एक श्रद्धालु ने कहा – “हम इन गरीब लोगों के आभारी हैं, जो मिट्टी की ऊंची लागत, कड़ी मेहनत और घटते मुनाफ़े के बावजूद, स्टोव बनाते हैं।”
उनका मानना है कि बहुत से श्रद्धालु उनके काम और परम्परा की सराहना के रूप में, उनसे खरीदारी करते हैं। वे खुश हैं कि उनकी मेहनत को प्रशंसा और सम्मान मिलता है।
ये सभी अपने मिट्टी के चूल्हों की भारी मांग से उत्साहित हैं।
खातून कहती हैं – “दिवाली से पहले ही हम दर्जनों चूल्हे बेच चुके थे। दिवाली के बाद भी बड़ी बिक्री होती है। हमें उम्मीद है कि महामारी के पिछले दो वर्षों की तुलना में इस साल हम ज्यादा बिक्री करेंगे।”
मुख्य फोटो में छठ त्योहार की एक झलक दिखाई गई है, जब श्रद्धालु पवित्र स्नान करते हैं (फोटो – दिबाकर रॉय, ‘अनस्प्लैश’ के सौजन्य से)
मोहम्मद इमरान खान बिहार स्थित एक विकास कार्यों से जुड़े पत्रकार हैं, जो पर्यावरणीय मुद्दों, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, आजीविका और सतत विकास पर नियमित रूप से रिपोर्ट करते हैं।
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