संत-कवि जनाबाई के जीवन-गीतों को जीवित रखती मराठी महिलाएँ
वारकरी धार्मिक परम्परा का पालन करते हुए, महाराष्ट्र में महिलाएँ 13वीं सदी की मराठी धार्मिक कवयित्री और संत जनाबाई के बारे में और उनके गीत गाने में गर्व महसूस करती हैं।
वारकरी धार्मिक परम्परा का पालन करते हुए, महाराष्ट्र में महिलाएँ 13वीं सदी की मराठी धार्मिक कवयित्री और संत जनाबाई के बारे में और उनके गीत गाने में गर्व महसूस करती हैं।
जून की एक उमस भरी सुबह में, मानसून आने से ठीक पहले, मैं और दो दोस्त, पुणे शहर के पास आलंदी में संत ज्ञानेश्वर मंदिर की ओर जाने वाली सड़क पर आ जा रहे थे।
मैंने हाल ही में प्रसिद्ध भरतनाट्यम नृत्यांगना नव्या नटराजन के साथ मध्यकालीन संत, संत जनाबाई के जीवन और शिक्षाओं के चित्रण के लिए, एक नई परियोजना पर काम करना शुरू किया था।
निरक्षर होने के बावजूद, जनाबाई अपने गुरु संत नामदेव के परिवार के लिए, पत्थर की चक्की पर अनाज पीसते समय लिखे गए गीतों के लिए जानी जाती हैं।
पत्थर की चक्की पर गीत लिखने का यह दस्तूर आज भी कुछ ग्रामीण घरों में जारी है। और मुझे एक विशिष्ट वारकरी महिला से बात करने की आशा थी, जो ऐसे गीत जानती होगी। ‘वारकरी’ भक्ति आंदोलन के अंदर एक धार्मिक परम्परा है। मैं जनाबाई को उनकी आँखों से देखना चाहती थी।
वारकरी संत के बारे में जानने के लिए सबसे अच्छी जगह वारकरी परम्परा की गद्दी (पीठ) आलंदी होगी। मैं गलत नहीं थी।
मैंने मंदिर के पास फुटपाथ पर महिलाओं के एक समूह को बैठे पाया।
वे लगभग 700 किलोमीटर दूर, विदर्भ से आलंदी आई थी। वे अगले दिन, जून की शुष्क गर्मी में पैदल ही, पूज्य देवता विट्ठल के घर, पंढरपुर जाने के लिए तैयार हो रही थी। यह हिंदू महीने आषाढ़ में होने वाली वारकरियों की एक वार्षिक प्रथा है।
जब मैंने अपना परिचय दिया, तो उन्होंने विस्मय के भाव से मेरी ओर देखा।
उनमें से एक ने मुझे भजन मंडली, “‘दिंडी’ की हमारी अगुआ का इंतजार’ करने के लिए कहा। वह आपको जनाबाई के बारे में बता सकेगी।”
मैंने उनसे पूछा कि क्या वह किसी भी तरह से संत परम्परा से निकटता से जुड़ी हुई हैं।
इस महिला ने जोर देते हुए कहा, “बिलकुल! वह अपने ‘जाते’ (पत्थर की आटा चक्की) पर रोज बाजरी (बाजरा) पीसती है। वह जानती है कि वास्तव में कैसा महसूस होता है।”
हम चुपचाप इंतजार करते रहे, जब तक कि नौ गज की लाल साड़ी पहने एक महिला, फुटपाथ के सामने वाली एक टूटी-फूटी, पुरानी धर्मशाला से बाहर नहीं आई।
उन्होंने अपनी दोस्तों के साथ मिलकर संत जनाबाई से जुड़ा एक गीत गाया। गीत में बताया गया है कि कैसे ‘विठोबा’ (हिंदू देवता, जिन्हें विट्ठला भी कहते हैं) ने बच्ची जनाबाई को नहलाया, क्योंकि “उनके लिए ऐसा करने के लिए दुनिया में उनका कोई और नहीं था।”
गाते समय उनके आँसू और मुस्कान साथ साथ थे।
गीत के बाद मैंने अगुआ महिला से जनाबाई के बारे में पूछा, तो उन्होंने इतना ही कहा – ”बताओ किसी लड़की के बाल उसकी माँ के अलावा कौन धोता है! आप और क्या जानना चाहती हैं?” इस वर्ष यह उनकी पंढरपुर की 27वीं पैदल यात्रा थी।
मैं और मेरे दोस्त थोड़ा और घूमे, तो हमें महिलाओं का एक और समूह मिला, इस बार मराठवाड़ा से। वे गाने के लिए थोड़ा हिचक रही थी। लेकिन थोड़ा आग्रह करने के बाद, उन्होंने हमें संत के जीवन की कहानियाँ सुनाईं।
विठ्ठला झाड़ू-पोछा करने में उनकी मदद करती थी और संत नामदेव की कुटिया को लीपने के लिए गाय के गोबर के उपले बनाती थी। मैंने टोका और उनसे संत नामदेव के बारे में पूछा।
क्या वह कबीर से भी महान नहीं हैं! उन्हें अनपढ़ कौन कहेगा, बताओ!
उन्होंने कहा, ”वह जानी के गुरू थे और एक महान संत भी थे। लेकिन जानी विट्ठल की बेटी थी!”
उन्होंने अपनी कहानी जारी रखी, जिसमें जनाबाई ने महान सूफ़ी संत कबीर दास को भक्ति का एक पाठ पढ़ाया। उनके द्वारा बनाए गए गोबर के उपलों से विट्ठल का नाम गाया जाता था और इससे कबीर दास बहुत विनम्र हो जाते थे।
“क्या वह कबीर से भी महान नहीं है! उसे कौन अनपढ़ कहेगा, बताओ!”
मैंने उनसे पूछा कि क्या वे भी अपना बाजरा घर पर पीसते हैं। उन्होंने कहा कि वे नहीं घर पर नहीं पीसते। समय बदल गया है और अब अनाज पीसने के लिए बिजली से चलने वाली चक्कियाँ हैं। न ही वे पत्थर-चक्की का कोई गाना जानती थी। लेकिन वे दिन में एक बार मिलती हैं और वे गीत गाती हैं, जो वे सामूहिक भजनों में सीखती हैं, या कैसेट पर सुनते हैं।
हमारी आखरी मुलाकात गंगाखेड के एक वृद्ध दम्पति से हुई। जनाबाई का जन्म उसी गांव में वर्ष 1258 में हुआ था। दंपति और उनके बच्चे पहले लॉकडाउन के दौरान आलंदी में फंस गए थे। मैंने उनसे पूछा कि ऐसे मुश्किल समय में उन्होंने क्या किया।
यह मेरी पत्नी हैं। उन्हें संपूर्ण ज्ञानेश्वरी कंठस्थ है। वह दार्शनिक बहस में किसी भी बुवा को दो मिनट में चुप करा सकती हैं।
जवाब तुरंत आया।
“हमने घर-घर जाकर धन इकट्ठा किया और रोज फंसे हुए वारकरियों के लिए भोजन पकाया। उन गर्मियों में हमने 200 से ज्यादा बच्चों को खाना खिलाया होगा। साधारण ‘भाखरी’ और ‘भाजी’।”
मैं अपनी हैरानी छिपा नहीं सकी।
इन बुजुर्ग ने, जो अपने गाँव के एक प्रतिष्ठित कीर्तनकार भी हैं, मेरी आँखों में गहराई से देखा और रुंधे स्वर में कहा – “यह मेरी पत्नी हैं। उन्हें संपूर्ण ज्ञानेश्वरी (भगवद्गीता पर 13वीं शताब्दी की एक व्याख्या) कंठस्थ है। वह किसी भी ‘बुवा’ (अध्यात्म के विद्वान) को दार्शनिक बहस में दो मिनट में चुप करा सकती हैं। लेकिन हमारे जानी ने हमें सिखाया है कि ये जिंदगी किसी को चुप कराने के लिए नहीं है। यह जीवन निःस्वार्थ सेवा के लिए है!”
उन पर काम का बोझ न बढ़ाने के लिए, हमने उनके साथ दोपहर का भोजन न करने के लिए कई बहाने बनाए, क्योंकि हमने समझ लिया था कि उन्हें फिर से खाना बनाना पड़ेगा।
जब हम जाने लगे, तो उन्होंने कहा – ”जानी विठ्ठला की बेटी थी। इसीलिए वह उनकी बातों को अच्छी तरह समझती थी। यही कारण है कि वह 300 से ज्यादा ‘अभंगों’ की रचना कर सकी!”
जब हम वापिस आ रहे थे, मैं इस बात पर विचार कर रही थी कि ‘विट्ठला की बेटी’ होने का अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मतलब कैसे है।
उनमें से एक, उस राहत की याद दिलाता था, जिसे उन्हें शायद किसी तरह से नकार दिया गया था। दूसरा, इसका मतलब था महानता की स्थिति, भव्य, बुलंद, जो साधारण और रोजमर्रा से निकलती है। तीसरा, उस आध्यात्मिक गहराई की ओर संकेत देता है, जिसकी तलाश जीवन में आने वाली परेशानियों के बावजूद, एक सहनशील हृदय करता है।
इन तीनों में से किसी को भी गहन चिंतन के योग्य कैसे नहीं माना जाएगा?
आलंदी में घूमने से मैं तीन अलग-अलग धुनें सीख पाई, जो जीवन का गीत बनाती हैं।
शीर्ष पर मुख्य फोटो में वारकरी की महिलाओं को पंढरपुर मेले में विट्ठल मंदिर की ओर बढ़ते और गाते हुए दिखाया गया है (छायाकार – अरुण शम्भू मिश्रा, ‘शटरस्टॉक’ के सौजन्य से)
जाह्नवी फणसळकर एक कानून स्नातक और ‘ध्रुपद’ और ‘ख्याल’ की हिंदुस्तानी गायन संगीत शैलियों की एक कलाकार हैं। वह भरतनाट्यम नृत्य के साथ समसामयिक प्ररूप में अपने संगीत को मिलाकर, संत जनाबाई के गीतों को प्रस्तुत करने के एक प्रोजेक्ट पर काम कर रही हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?
यह पूर्वोत्तर राज्य अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, जहां कई ऐसे स्थान हैं, जिन्हें जरूर देखना चाहिए।