बारपेटा सत्र: ब्रह्मचारी साधुओं की कम होती संख्या से परेशान असम के आध्यात्मिक केंद्र
परिवारों के एकल और छोटे होने से, वैष्णव मठों में ब्रह्मचर्य और कठोर सादगीपूर्ण जीवन जीने के लिए, कम बच्चे ‘केवलिया भक्त’ बनने की शपथ ले रहे हैं।
परिवारों के एकल और छोटे होने से, वैष्णव मठों में ब्रह्मचर्य और कठोर सादगीपूर्ण जीवन जीने के लिए, कम बच्चे ‘केवलिया भक्त’ बनने की शपथ ले रहे हैं।
प्याज के आकार के गुंबदों वाले इसके विशाल धनुषाकार द्वार, श्रद्धालु और जिज्ञासु आगंतुकों को एक ऐसे समय और स्थान में ले जाते हैं, जहां आशा और इतिहास सार के साथ बिना किसी चमक दमक के साथ गाया जाता है, जो उन्हें आध्यात्मिक समय यात्रा पर ले जाता है।
‘कीर्तन घर सत्र’ हिंदू धर्म के वैष्णव संप्रदाय का 16वीं सदी का मठ है। बारपेटा जिले में ‘बारपेटा सत्र’ के नाम से प्रसिद्ध, यह असम की राजधानी गुवाहाटी से लगभग 100 किमी पश्चिम में है।
इसकी चारदीवारी के अंदर, आप एक पल के लिए बाहरी दुनिया को भूल जाते हैं, जहां लोग धन, फैशन और जीवन की हलचल पर जोर देते हैं।
विशाल प्रांगण के सामने बने, अपने साधारण सामान वाले कमरे में बैठे हेमेन बुरहा भक्त कहते हैं – “‘केवलिया भक्त’ (ब्रह्मचारी भिक्षु) का जीवन भगवान के प्रति समर्पण और भक्ति से भरा है, जो विवाह, धन और अन्य सांसारिक मामलों से रहित है।”
52-वर्षीय भिक्षु उस समय 12 वर्ष के थे, जब उनके माता-पिता उन्हें ब्रह्मचर्य की शपथ लेकर आश्रम में जीवन जीने के लिए लाए थे।
हेमेन कहते हैं – “मैं चार भाई-बहनों में तीसरे नंबर पर था। मेरे माता-पिता ने एक बच्चे को देवत्व के मार्ग पर समर्पित करने का निर्णय लिया। पांचवीं कक्षा की परीक्षा पास करते ही, मुझे यहां लाया गया। तब से, ऐसे अवसरों को छोड़ कर, जब मेरा उपस्थित होना जरूरी हो, मैं शायद ही घर गया हूँ। बेशक, विवाह और अन्य सामाजिक समारोहों के लिए नहीं।”
‘केवलिया भक्त’ (ब्रह्मचारी भिक्षु) का जीवन विवाह, धन और अन्य सांसारिक मामलों से रहित, भगवान के प्रति समर्पण और भक्ति से भरा है।
लेकिन युवा पीढ़ी इस तरह का समर्पित, धीमा जीवन जीने में उतनी रुचि नहीं ले पा रही है, जिससे मठ में रहने वालों को इसके भविष्य के बारे में सोचना पड़ रहा है।
हेमेन का पारिवारिक घर सिर्फ 500 मीटर की दूरी पर है, लेकिन जब उनके बड़े भाई की दुर्घटना हुई और वह महीनों बिस्तर पर पड़े रहे, तब भी वह उन्हें देखने नहीं गए।
उन्होंने कहा – “मैंने सांसारिक जीवन त्याग दिया है।”
प्रार्थनाओं, धार्मिक रस्मों और अन्य बातें सीखने के अलावा, युवा भिक्षुओं को अपनी बुनियादी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए किसी शिल्प को चुनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
60-वर्षीय नारायण अतोय बुरहा भक्त, सत्र के एक अन्य भिक्षु हैं, जो 1985 में 23 वर्ष की उम्र में भिक्षु बने थे। लेकिन उन्होंने स्वयं भिक्षु बनना चुना, उनके परिवार ने नहीं।
नारायण कहते हैं – “मेरे परिवार ने मेरी शादी की योजना बनाई थी और जब मैंने अपने फैसले की घोषणा की, तो शुरू में इसका विरोध किया। ‘मैंने अपने जीवन में वह शांति पाई है, जो कोई भौतिक चीज नहीं दे सकती।”
कुछ लोगों के लिए सादगी आकर्षण का हिस्सा है। उनकी कोई आय नहीं होती, बल्कि वे दान पर निर्भर हैं। और उनका पूर्णतः शाकाहारी भोजन साधारण होता है, जिसमें चावल, गुड़, दूध और फल शामिल होते हैं।
नारायण ने कहा – “हमें अपनी सेवाओं के लिए कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाता। हम हाथ से बुने गद्दे, मिट्टी के बर्तन और अन्य हस्तशिल्प वस्तुएँ बनाते हैं। लोग हमें अनाज दान करते हैं।”
यह अकारण नहीं है कि भक्तों द्वारा बारपेटा सत्र को “दूसरा स्वर्ग” कहा जाता है।
ढोल की थाप और झांझ संगीत के साथ भजनों की लयबद्ध ध्वनि से पूरा वातावरण भर जाता है। धूप जलाने से हवा में सुगंध फैल जाती है। श्रद्धा से आंखें बंद करने से पहले, स्वर्ग का द्वार खुलने का विचार आकार लेता है।
तभी किसी का फ़ोन बजता है।
आधुनिकता और उसके उपकरणों से कोई बच नहीं सकता, यहां तक कि ईश्वर को समर्पित 500 साल पुराने संस्थान में भी नहीं।
बचपन में सिखाई गई सदियों पुराने श्लोकों के अलावा, हेमेन बुरहा भक्त अपने चारों ओर चल रहे पीढ़ीगत विभाजन के बारे में बहुत कम जानते हैं।
उनका कहना था कि युवाओं में इतनी दृढ़ता नहीं है कि वे अपना जीवन भगवान की सेवा में समर्पित कर सकें और केवलिया भक्त बन सकें।
उन्होंने कहा कि दूसरा कारण परिवारों का छोटा होता आकार है, जैसा उनके बचपन में नहीं था।
भगवान उन्हें देवत्व की ओर आने के लिए प्रेरित करेंगे। वह अपना घर खाली नहीं देख सकते। युवा बड़ी संख्या में आएंगे और सत्र शान से जीवित रहेगा।
केवलिया ने कहा – “ज्यादातर परिवार एकल हो रहे हैं और उनमें एक या दो बच्चे हैं।”
दो दशक पहले सत्र में लगभग 20 ब्रह्मचारी भिक्षु थे।
अब यह संख्या छह सक्रिय भिक्षुओं की रह गई है।
कुछ का निधन हो गया और कुछ बढ़ती उम्र के कारण गतिहीन हो गए।
हमें प्रसाद तैयार करने या कामकाज चलाने के लिए गैर-ब्रह्मचारी भिक्षुओं की मदद लेनी पड़ती है। यह एक दुखद स्थिति है।” लेकिन तुरंत उम्मीद जताते हुए वह कहते हैं – “भगवान उन्हें देवत्व की ओर आने के लिए प्रेरित करेंगे। वह अपना घर खाली नहीं देख सकते। युवा बड़ी संख्या में आएंगे और सत्र गौरव के साथ जीवित रहेगा।”
ब्रह्मचारी असमिया साधु का जीवन सादगी भरा होता है।
मठ के दायरे के बाहर की दुनिया से उनका कोई संपर्क नहीं है। एक भिक्षु के रूप में सेवा के लिए दृढ़ समर्पण और संकल्प की जरूरत होती है।
साधु जीवन पर एक नजर डालते हुए, हेमेन बुरहा भक्त कहते हैं – “यह कठिन है, यही कारण है कि बच्चों को इस क्रम में जल्दी शुरू कर दिया जाता है, जब उनका दिमाग शुद्ध होता है और वे आसानी से और जल्दी से कठोर नियमों को अपना लेते हैं। एक ब्रह्मचारी भिक्षु बनने के लिए कई वर्षों की शिक्षा और अभ्यास की जरूरत होती है। हमें एक दिनचर्या का सख्ती से पालन करना होता है, सुबह चार बजे उठकर सुबह का स्नान करना होता है।”
दिन की शुरुआत नाम घर में ध्यान और प्रार्थना से होती है।
उन्हें गैर-ब्रह्मचारियों को छूने की अनुमति नहीं है। उदाहरण के लिए, यदि कोई काम करते समय उनका हाथ किसी गैर-ब्रह्मचारी से छू जाता है, तो उन्हें सर्दी की ठंड में भी नहाना पड़ता है।
हेमेन ने बताया – “भज-घर (सत्र का गर्भगृह मणिकुट, जहां सत्र के मूल्यवान आभूषण रखे गए हैं) में, एक प्रदीप (दीपक) पिछले 500 वर्षों से जल रहा है। केवल ब्रह्मचारी भिक्षुओं को ही दीपक में तेल भरने की अनुमति है।’
आधुनिकता के जाल में फंसने से उनकी संरक्षित परम्पराओं और जीवन शैली में गिरावट के बावजूद, असम में कुछ सत्र अब भी दैनिक कार्यों के लिए, पूरी तरह से ब्रह्मचारी भिक्षुओं पर निर्भर हैं।
एक है ब्रह्मपुत्र के नदी द्वीप माजुली का कमलाबाड़ी सत्र, जिसे असम के 15वीं और 16वीं शताब्दी में 100 से अधिक वर्षों तक जीवित रहे संत-दार्शनिक, श्रीमंत शंकरदेव द्वारा प्रचारित नव-वैष्णववाद की गद्दी माना जाता है।
राज्य के सबसे बड़े, कमलाबाड़ी सत्र के ‘सत्राधिकार’ या मुख्य भिक्षु, जनार्दनदेव गोस्वामी कहते हैं – “ब्रह्मचारी भिक्षुओं को ‘उदासीन’ भी कहा जाता है। हम यहां ‘गृह भक्त’ (विवाहित भिक्षु) को अनुमति नहीं देते। हम किसी तरह काम चला रहे हैं, लेकिन अन्य सत्रों में स्थिति अच्छी नहीं है, जहां ब्रह्मचारी भिक्षुओं की संख्या कम हो रही है। लगभग दो दशक पहले राज्य भर के सत्रों में लगभग 1,000 ब्रह्मचारी भिक्षु थे। यह घट कर 700 रह गई है, जो चिंता की बात है।”
असम में लगभग 900 सत्र हैं और उनमें से प्रमुख माजुली द्वीप, बारपेटा, नागांव और धुबरी जिले में हैं। यह शब्द संस्कृत मूल का है और इसका उल्लेख भगवत पुराण में मिलता है।
बारपेटा के एमसी कॉलेज में इतिहास विभाग से सेवानिवृत्त प्रमुख, डॉ. बाबुल चंद्र दास कहते हैं – “इसका अर्थ है भक्तजनों की सभा। असम में 16वीं शताब्दी में श्रीमंत शंकरदेव और उनके अनुयाई माधवदेव के नेतृत्व में सत्रों का उदय हुआ।”
लेकिन उन्होंने कहा कि सत्र को धर्म के चश्मे से नहीं देखा जा सकता।
“सत्र असम की संस्कृति का केंद्र हैं, जिसमें संगीत, नृत्य, नाटक और ललित कलाएं शामिल हैं।”
शीर्ष की मुख्य फोटो में हेमेन बुरहा भक्त को भज-घर में प्रार्थना करते हुए दिखाया गया है (छायाकार – गुरविंदर सिंह)
गुरविंदर सिंह कोलकाता स्थित पत्रकार हैं।
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