सैकड़ों महिलाएं पर्यावरण-अनुकूल, साल के पत्ते के कप और दांत साफ करने वाली दातून बेचती हैं, लेकिन मुश्किल से 70 रुपये प्रतिदिन कमा पाती हैं। फिर भी, कठिन जीवन के बावजूद उनकी मुस्कुराहट बनी रहती हैं।
यदि आपके आमने-सामने, वास्तविक दंत चिकित्सा देखभाल उत्पाद का विज्ञापन कभी बनाया जाए, तो सलचरिया देवी की चमकते दांतों वाली मुस्कान लाखों टूथब्रश बेच सकती है।
लेकिन दांत और पंजे पर हकीकत लाल होती हैं।
यह 68-वर्षीय खैरवार आदिवासी महिला, झारखंड के पलामू जिले के डाल्टनगंज रेलवे स्टेशन के पास एक पेड़ की छाया में, साल के पत्तों से बने कप एवं दोने और दातून दस-दस के बंडल में बेचती हैं।
अपने आस-पास की अन्य विक्रेताओं की तरह, वह अपना माल अपने सामने एक कपड़े पर फैलाती हैं। वह दिन भर मिट्टी पर बैठकर, साल के पेड़ की बड़ी पत्तियों से दोने बनाती हैं।
तीन दिनों में उनकी कमाई?
यदि वह पूरा माल मेच पाए, तो “400 से 500 रुपए” – वह अनुमान लगाती हैं।
“कप और होंठ के बीच कई चूक”
फिर भी वह हर तीन-चार दिन में लातेहार जिले के कुमेंडी गांव के अपने घर से, डाल्टनगंज के लिए ट्रेन में सवार होती हैं। वह अपने मामूली निजी सामान से भरे छोटे बैग के साथ, साल के पत्तों और दातून की दो बोरियां लेती हैं।
वह एक पेड़ के नीचे बैठ जाती हैं, जो तीन दिनों के लिए उनका अस्थायी घर बन जाता है।
फिर वह अपने स्टॉक को फिर से भरने के लिए साल के जंगल के पास स्थित अपने गाँव के लिए 65 कि.मी. की दूरी तय करती हैं।
वह एक कटार जैसा उपकरण, एक पानी की बोतल, ऊंची शाखाओं से पत्तियां तोड़ने के लिए एक बांस की छड़ी और अपने दिन की मेहनत को घर ले जाने के लिए एक बोरी से लैस होकर जंगल में जाती है।
साल के पत्ते लाने के लिए हम मच्छरों, जोंकों और कीड़ों से भरी झाड़ियों से होकर गुजरते हैं। इसमें काफी समय लगता है।
तीन दशक से दोना बनाने और बेचने वाली यह महिला कहती हैं – “शहर वापस जाने से पहले पत्तियां इकट्ठा करने के लिए दो दिन और दोने बनाने के लिए एक पूरा दिन लगता है।” या कभी कभी इससे भी ज्यादा।
बारिश का मौसम उनकी ताकत और आत्मा की परीक्षा लेता है।
लगातार बनी रहने वाली अपनी मुस्कान के साथ वह कहती हैं – “साल के पत्ते लाने के लिए हम मच्छरों, जोंकों और कीड़ों से भरी झाड़ियों से होकर गुजरते हैं। इसमें बहुत समय लगता है।”
दोना और दातून
वे किसी नाटक के पात्रों की तरह लगते हैं। शायद एक त्रासदीपूर्ण कॉमेडी।
कई आदिवासी महिलाएं रोज सुबह 5 बजे के आसपास डाल्टनगंज पहुंचती हैं और दोना एवं दातून बेचने के लिए शहर भर में घूमती हैं। रात को वे वापिस स्टेशन पर इकट्ठा होती हैं।
कूपे गांव की 55-वर्षीय गीता खैरवार कहती हैं – “पुलिस हमें फुटपाथ पर सोने नहीं देगी।”
गीता अपने गांव में अपने दो एकड़ खेत में धान और मक्का उगाने के लिए, मानसून के दौरान दोना और दातून बनाने से छुट्टी लेती है।
लेकिन इस साल बारिश नहीं हुई और “पौधे अंकुरित नहीं हुए” – उन्होंने कहा।
पेट भरने का उनके पास केवल एक ही विकल्प है – वह जंगल, जो सदियों से उनके लोगों का भरण-पोषण करते रहे हैं, हालांकि उनका आकार पिछले कुछ वर्षों में कम हुआ है। लातेहार के लगभग 46% लोग उन जनजातियों से हैं, जिनका जीवन किसी न किसी रूप में उनके पूजनीय जीवन-वृक्ष साल से जुड़ा है।
दोना और कटोरा कैसे बनते हैं?
साल का पेड़ (Shorea robusta) भारत का मूल पेड़ है।
ऊँची शाखाओं से हाथ के आकार की पत्तियाँ इकट्ठा करने के बाद परिवर्तन शुरू हो जाता है, जब पत्तियाँ अभी भी हरी और लचीली होती हैं।
दोना कप और कटोरे बनाने के लिए पत्तियों की सतहों की एक साथ कसकर और लीक-प्रूफ सिलाई की जाती है, इतनी कसकर कि वे तरल और ठोस को समान रूप से थाम सकें।
सलचरिया कहती हैं – “मैं इन्हें घर पर, ट्रेन में और शहर में सिलती हूँ।”
दातून क्या है?
दातून दांतों को साफ करने की ‘उपयोग करो और फेंक दो’ वाली डंडी होती है, जो आमतौर पर नीम के पेड़ की टहनी को आकार में काट कर बनती है। लगभग छह इंच लम्बी।
प्लास्टिक के टूथब्रश के आम होने से पहले, लोग इसका इस्तेमाल करते थे।
एक सस्ते, हर्बल विकल्प के रूप में इसका उपयोग किया जाता है, जिसमें टूथपेस्ट की जरूरत नहीं होती। बस छड़ी के एक सिरे को तब तक चबाएं, जब तक कि रेशे खुल न जाएं और फिर अपने दांतों को ब्रश करें।
यह सलचरिया की हज़ार-वाट मुस्कान का कोई गुप्त सूत्र नहीं है।
प्याली भर दुख
आज के हालात में, दोना-दातून व्यापार का कोई आर्थिक अर्थ नहीं है।
इस पूरी कड़ी मेहनत के लिए, एक दर्जन दोने के 4 रुपये और एक दातून-बंडल के 5 रुपये मिलते हैं।
यदि मैं उन्हें अगले चार दिनों में बेच दूँ, तो मैं 200 रुपये घर ले जा सकती हूँ। या शायद 300 रुपये। अन्यथा सब कुछ बेकार जाएगा।
सलचरिया के बगल में विक्रेता राधा देवी कहती हैं – “मैंने कल सिर्फ पांच बंडल दोना (20 रुपये) और पांच बंडल दातून (25 रुपये) बेचे।” यह पैसे भोजन खरीदने पर खर्च हो गए। “आज कुछ कमाऊंगी तो खाना खाऊँगी।” नहीं तो..?
56 साल की उम्र में, वह सलचरिया से छोटी है, लेकिन वह छड़ी के बिना नहीं चल सकती। उसका चलना फिरना विकलांगता के कारण बाधित है। उसका एक बेटा उसके लिए पत्ते लाता है और उसे स्टेशन पर छोड़ देता है।
यदि उत्पाद सूख जाएं, तो उनका कोई मूल्य नहीं है।
वह फेंके हुए दातूनों के ढेर की ओर इशारा करते हुए कहती हैं – “यदि मैं सारा सामान अगले चार दिन में बेच लेती हूँ, तो 200 रुपये घर ले जाऊंगी। या शायद 300 रुपये। नहीं तो सब कुछ उस तरह बर्बाद हो जाएगा।”
हरित सामान के उपभोक्ता और बाबू कहां हैं?
इस साल जुलाई में एकल-उपयोग वाले प्लास्टिक उत्पादों पर सरकार के प्रतिबंध से उम्मीदें जगी हैं।
दोने की बिक्री बढ़ी, लेकिन लंबे समय तक नहीं।
और फिर भी, साहसी महिलाएँ रोज 70 रुपये से भी कम कमाते हुए भी इस बिक्री के कठिन परिश्रम में लगी रहती हैं, क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं है।
क्या सरकार मदद नहीं करेगी?
पलामू के सांसद विष्णु दयाल राम का कहना था कि वे इस बात पर विचार कर रहे हैं कि दोना और दातून निर्माताओं को साल भर बाजार कैसे उपलब्ध कराया जाए। लेकिन उनका मानना है कि उपभोक्ताओं को भी और अधिक करना चाहिए।
राम कहते हैं – “इसका एक बाज़ार है – विवाह, छोटे समारोह, पूजा, इत्यादि। लेकिन ये मौसमी हैं। लोगों को इन पर्यावरण-अनुकूल उत्पादों का अधिक उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।”
सहयोग की छोड़िये, भोजन, आश्रय, पूरी नींद मूलभूत जरूरतों के बिना, महिलाएँ स्टेशन पर आपस में बातें करती हैं, या एक-दूसरे को चिढ़ाती हैं। और इसके साथ दोना और दातून बनाना जारी रहता है।
हर समय इस आशा के साथ कि अगले दिन अधिक ग्राहक आएंगे और वे थोड़ी देर के लिए अपने कष्टों को भूल जाएंगी।
मुख्य फोटो में गीता देवी को दिखाया गया है – जिनकी चमकदार मुस्कान हमेशा बनी रहती है – डाल्टनगंज रेलवे स्टेशन के पास सड़क के किनारे बिक्री के लिए साल पत्ती के दोना कप और कटोरे की सिलाई करते हुए (छायाकार – अश्विनी कुमार शुक्ला)
अश्विनी कुमार शुक्ला एक झारखंड स्थित पत्रकार हैं। वह भारतीय जनसंचार संस्थान (इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन) के पूर्व छात्र हैं और ग्रामीण भारत, जेंडर, समाज और संस्कृति के बारे में लिखते हैं।
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