कभी ‘बोझ’ रहा लद्दाख का दो कूबड़ वाला ऊँट, आज बेशकीमती
एक समय बोझ समझे जाने वाला और लद्दाख के दूरदराज के हिस्सों में सिर्फ सामान ढोने के लिए इस्तेमाल होने वाला, दो कूबड़ वाला ऊंट अब इस क्षेत्र के कई परिवारों के लिए आजीविका का मुख्य स्रोत है।
एक समय बोझ समझे जाने वाला और लद्दाख के दूरदराज के हिस्सों में सिर्फ सामान ढोने के लिए इस्तेमाल होने वाला, दो कूबड़ वाला ऊंट अब इस क्षेत्र के कई परिवारों के लिए आजीविका का मुख्य स्रोत है।
लद्दाख में नुब्रा के सुदूर इलाके के एक 56-वर्षीय ग्रामीण ने, एक को छोड़कर अपने सभी चार दो-कूबड़ वाले ऊँट दूर के रिश्तेदार को दे दिए थे, क्योंकि उनके पास उन्हें खिलाने के लिए संसाधन नहीं थे। आज उसी ग्रामीण का 32-वर्षीय बेटा मोहम्मद इब्राहिम नुब्रा के ठंडे पहाड़ों में एक सफल पर्यटक सफारी व्यवसाय चलाने के लिए आठ ऊंटों का एक समूह रखता है। घटना को याद करते हुए, इब्राहिम कहते हैं कि उनको अच्छी तरह याद है कि कैसे वह और उनके पिता उन ऊंटों को एक परिचित को सौंपने के लिए दूर के गांव दिस्किट, सफेद रेत के टीलों के पार मीलों तक गए थे।
सौभाग्य से, जिस ऊँट को हमने रख लिया था, वह अब हमारे लिए समृद्धि का स्रोत बन गया है। इब्राहिम, जो अब अपने दो छोटे भाइयों के साथ नुब्रा घाटी में अपने हुंडर गांव में एक सफल ऊंट सफारी व्यवसाय चला रहे हैं, कहते हैं कि उन्होंने लगभग एक चौथाई दर्जन बैक्ट्रियन ऊंट पाले हैं और भगवान का शुक्र है कि मैं उन सभी का उपयोग पर्यटक सफारी के लिए करता हूँ।
कभी बोझ समझे जाने वाले और लद्दाख के दूरदराज के हिस्सों में सिर्फ सामान और राशन ढोने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला पहाड़ का जहाज, अब इस क्षेत्र के कई परिवारों के लिए आजीविका का मुख्य स्रोत है।
इब्राहिम ही नहीं, इस ऐतिहासिक आदिवासी गांव के युवाओं की एक पीढ़ी का बड़ा हिस्सा अब क्षेत्र में ऊँट सफारी और अन्य पर्यटन सेवाएं चलाने में लगी हुई है, जिससे उनकी आजीविका चल रही है।
रोज सैकड़ों पर्यटक हंडर और डिस्किट गांव के रेत के टीलों के बीच, डबल कूबड़ वाले ऊंट पर अपने सपनों की सवारी करते हैं।
लद्दाख की नुब्रा घाटी के एक सुदूर गांव हुंडर ने पर्वतीय पर्यटन में कई आयाम जोड़े हैं। और एक सवारी और वह भी डबल कूबड़ वाले ऊंट पर, उनमें से कभी भी न चूकने वाला काम है। गांव में बड़ी संख्या में पर्यटकों को ऊंटों की सवारी करते और बेशकीमती जानवर के साथ सेल्फी लेते देखा जा सकता है।
पुणे की एक स्कूल शिक्षिका रवीना, जो अपने पति के साथ लद्दाख की यात्रा पर हैं, कहती हैं – “मैंने इस ऊँट के बारे में एक मित्र से सुना था, जो पहले भी इस जगह आ चुका है। तब से मैंने इस अच्छे दोस्त के साथ एक सवारी और सेल्फी का सपना देखा था।” खुश रवीना ने आगे कहा कि इस तरह के अनोखे ऊंट की सवारी करना वास्तव में जीवन भर का अनुभव है।
नुब्रा घाटी के एक स्थानीय टूर ऑपरेटर फ़िरोज़ अहमद के अनुसार, रोज सैकड़ों पर्यटक घाटी में आते हैं। माउंटेन बाइकिंग, ट्रैकिंग, विरासत यात्राओं से लेकर सांस्कृतिक खोज तक, ये पर्यटक विभिन्न गतिविधियों में संलग्न होते हैं। लेकिन इन सभी लोगों के लिए ऊँट की सवारी करना और बेशकीमती जानवरों के साथ सेल्फी लेना जरूरी आनंद होगा। हाल ही में बैक्ट्रियन ऊँट क्षेत्र के युवाओं के लिए अच्छी सीजनल आय का स्रोत बन गया है।
गाँव में कभी एक दुर्लभ दृश्य, चट्टानी पहाड़ों में लोकप्रियता का एक नया प्रतीक, दो कूबड़ वाले ऊँटों की संख्या भी बढ़ गई है।
सत्तर के दशक में अस्तित्व के लिए संघर्ष करने वाले, भारत में सिर्फ नुब्रा में पाए जाने वाले, दो कूबड़ वाले ऊँटो की आबादी में वृद्धि देखी गई है। एक दशक पहले जहां लगभग 40 थे, अब इस क्षेत्र में सैकड़ों ऊँट हैं।
लेह के मुख्य पशुपालन अधिकारी मोहम्मद इकबाल के अनुसार, विभाग द्वारा की गई नवीनतम जनगणना के अनुसार, इस क्षेत्र में 298 दो कूबड़ वाले ऊँट हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि क्षेत्र में गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों की आबादी में वृद्धि का मुख्य कारण, पर्यटक सफारी के माध्यम से कई स्थानीय परिवारों की आय में उनकी उपयोगिता है।
ऊँट पालकों के अनुसार, वे सीजन के दौरान एक ऊँट से रोज लगभग 1500-2000 रुपये कमाते हैं। हालांकि इस जानवर को विशेष देखभाल की जरूरत होती है।
अधिकांश बैक्ट्रियन ऊँट ‘लेह बेर’ (सीबकथॉर्न) खाते हैं, जो इस क्षेत्र में सामुदायिक चरागाहों में आमतौर पर पाई जाने वाली एक प्रमुख झाड़ी है। लेकिन यह झाड़ी केवल गर्मियों के कुछ महीनों में ही उपलब्ध होती है।
इब्राहिम कहते हैं कि सर्दियों में जानवरों को खाना खिलाना बहुत मुश्किल होता है, क्योंकि इस क्षेत्र में बेहद ठंड होने के कारण किसी भी व्यवहार्य पौधे की कमी होती है।
इब्राहिम कहते हैं – “हमारी महिलाएँ सर्दियों के मौसम में जानवरों को खिलाने के लिए जंगल से अल्फाल्फा घास इकट्ठा करती हैं। लेकिन जैसे-जैसे जानवरों की संख्या बढ़ी है, जानवरों के लिए पर्याप्त घास नहीं मिल पाती है। इसलिए सर्दी के हर मौसम में ऊँट के लिए चारा उपलब्ध नहीं हो पाता।” वह कहते हैं कि सर्दियों में उन्हें खिलाने के लिए, वे काफी रकम खर्च करते हैं।
कड़ी मेहनत के अलावा, दो कूबड़ वाले ऊँट ने ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण हंडर गांव को एक नई पहचान दी है।
लेह शहर से लगभग 135 किलोमीटर दूर, नुब्रा घाटी के हुंडर गांव में अब अच्छी संख्या में पाया जाने वाला दो कूबड़ वाला ऊँट 17वीं शताब्दी में पड़ोसी तिब्बती क्षेत्र से लद्दाख आया था। भारत में लद्दाख के अलावा यह अनमोल ऊँट मध्य एशिया के होर क्षेत्र में पाया जाता है।
चोचुट के सरकारी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक, पी. स्तोबदान के अनुसार, लेह प्रसिद्ध सिल्क रूट का एक हिस्सा था। हाल के समय तक यह क्षेत्र उस ऐतिहासिक मार्ग का एक महत्वपूर्ण पारगमन स्थल बना हुआ था। इन ऊँटों का व्यापार के लिए भार और सामान ढोने के लिए व्यापक रूप से उपयोग किया जाता था। लेकिन 1950 में सिल्क रूट बंद होने के बाद, इस क्षेत्र में कुछ ही ऊँट पीछे रह गए थे, जो अब इस क्षेत्र में पर्यटन गतिविधियों में व्यापक रूप से उपयोग किए जाते हैं।
शीर्ष की मुख्य फोटो में नुब्रा में एकदम पंक्तिबद्ध चलते बैक्ट्रियन ऊँटों की पीठ पर पर्यटक को सवारी का आनंद लेते दिखाया गया है (छायाकार – नासिर यूसुफ़ी)
नासिर यूसुफ़ी श्रीनगर स्थित एक पत्रकार हैं।
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