लवणता से निपटने के लिए तटीय किसानों ने अपनाए नवाचार उपाय
तटीय तमिलनाडु के किसान वर्षा जल संचयन और पारम्परिक जैविक खेती के तरीकों को पुनर्जीवित करके, सूखे और भूजल स्तर में गिरावट के कारण होने वाली लवणता का मुकाबला कर रहे हैं।
तटीय तमिलनाडु के किसान वर्षा जल संचयन और पारम्परिक जैविक खेती के तरीकों को पुनर्जीवित करके, सूखे और भूजल स्तर में गिरावट के कारण होने वाली लवणता का मुकाबला कर रहे हैं।
मुथुकृष्णन को कुंभकोणम की अपनी नर्सरी से धान की पौध लाने के लिए ट्रेन द्वारा एक घंटे की यात्रा करना याद है। यह 13 साल का बच्चा तटीय शहर थारंगमबाड़ी में अपनी दादी के लिए पौध लाता था, उन्हें रोपने में उनकी मदद करता था और घर लौट आता था। उनकी दादी का खेत बंगाल की खाड़ी तट से लगभग 500 मीटर दूर था।
56 साल की उम्र में, वह अब अपने खेत की मिट्टी और भूजल में लवणता देखते हैं, जो तट से लगभग 20 कि.मी. दूर है। उनके और दोस्तों के एक समूह की तिरुवरूर जिले में नन्नीलम तालुक के कडगाम गाँव में 20 एकड़ सांझी भूमि है।
अपर्याप्त बारिश और सूखे के कारण, तमिलनाडु के बहुत से तटीय गाँवों में भूजल स्तर कम हो रहा है। इसके फलस्वरूप समुद्री जल घुसने से पानी और मिट्टी में लवणता का स्तर बढ़ गया है। किसान जैविक कृषि पद्धतियों और कुछ नवाचार उपायों के द्वारा लवणता से निपट रहे हैं।
मुथुकृष्णन के खेत सहित कडगाम और उसके आसपास की मिट्टी चिकनी है। कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) के अधिकारी मानते हैं कि लवणता के कारण खेती अस्थिर हो रही है। केवीके के एक अधिकारी कहते हैं – “यदि बिजली की चालकता (ईसी), जो मिट्टी की लवणता और उसके स्वास्थ्य का संकेतक है, 4 डेसीसीमेंस प्रति मीटर (डीएस/एम) से ज्यादा है, तो किसी भी फसल को उगाना मुश्किल होगा।”
वर्तमान में मृदा स्वास्थ्य आँकड़े उपलब्ध नहीं होने के कारण, अधिकारियों का अनुमान है कि EC लगभग 7dS/m है। लेकिन किसानों का दावा है कि वे जैविक पद्धतियों से सफलतापूर्वक फसलें उगा रहे हैं।
भूमि तैयार करने के लिए, किसान खेत को पशुओं के बाड़े में बदलने की वकालत करते हैं। किसान राजेंद्रन इसे एक पारम्परिक पद्धति के रूप में याद करते हैं, जब घुमन्तु चरवाहे फसलों की कटाई के बाद खेतों को बाड़े के रूप में इस्तेमाल करते थे।
मुथुकृष्णन ने VillageSquare.in को बताया – “हम बकरियों को कुछ दिनों के लिए खेत के एक हिस्से में बांधते हैं, फिर उन्हें दूसरे हिस्से में ले जाते हैं और तब तक ऐसा करते हैं जब तक पूरी जमीन जानवरों के मल से ढक न जाए।” जिन स्थानों पर चरवाहे नहीं आते, वहां किसान अपनी गायों को खेत में बांधते हैं।
जब 2004 में तमिलनाडु के पूर्वी तट पर सुनामी आई, तो खेत समुद्री कीचड़ से भर गए और नमक से भर गए। एक जैविक खेती के समर्थक स्वर्गीय नम्मालवार के मार्गदर्शन में, कुछ किसानों ने जैविक पद्धतियों को अपनाया और सफलतापूर्वक अपनी भूमि सुधार ली।
किसानों ने सुनामी के बाद ही हरी खाद का चलन शुरू किया। जहां जैविक किसान आमतौर पर ढैंचा (Sesbania bispinosa) और जूट (Crotalaria juncea) उगाते हैं और फूल आने पर उन्हें मिट्टी में मिला देते हैं। मुथुकृष्णन ‘कोलिंजी’ (Galega purpurea) को सबसे प्रभावी पाते हैं। वह कहते हैं – “अन्य पौधे नाइट्रोजन बांधते हैं और मिट्टी की उर्वरता में सुधार करते हैं, लेकिन कोलिंजी लवणता को दूर करता है।”
कराईकल के एक किसान, तमिलसेल्वन ने VillageSquare.in को बताया – “सुनामी के बाद स्थिति में सफलतापूर्वक बदलाव को देखते हुए, मैंने केवल जैविक खेती करने का फैसला किया। उस समय हमें पता चला कि पौधों का कचरा और जानवरों का मल हमारी भूमि को पुनः प्राप्त करने का सबसे अच्छा समाधान है, और मैं वही पद्धति अपना रहा हूँ।”
तमिलसेल्वन बांधों के करीब खाइयाँ खोदते हैं और उन्हें पत्तों के कूड़े और पेड़ की कटी हुई शाखाओं से भर देते हैं। वह कहते हैं – “सुनामी के बाद, हमने गड्ढे खोदे और गिरे हुए पेड़ों की शाखाओं से गड्ढों को भर दिया। तभी मुझे पता चला कि मिट्टी को ताड़ के पत्तों और इसी तरह से पोषित करना एक पारम्परिक पद्धति है।”
मुथुकृष्णन ने भी अपने खेत में खाइयाँ खोदी हैं, लेकिन वह उनका उपयोग थोड़ा अलग तरीके से करते हैं। उन्होंने धान और बेल वाली सब्जियां उगाने के लिए एक एकड़ जमीन अलग रखी है। एक एकड़ का यह प्लॉट बाकी खेत से लगभग 3 फुट नीची है। एक वैकल्पिक चिकित्सा पेशेवर प्रेम आनंद, जिन्होंने हाल ही में जैविक खेती की ओर रुख किया है, ने VillageSquare.in को बताया – “यह लगभग एक तालाब जैसा है, लेकिन उन्होंने खोदे गए क्षेत्र में, 12 फुट के अंतराल पर 3 फुट ऊँची मेड़ बनाई हैं।”
कराईकल क्षेत्र में, अगस्त के मध्य से दिसंबर के मध्य तक मानसून का मौसम होता है, जो लगभग 120 दिनों तक चलता है। जब बारिश होती है, तो खाइयाँ भर जाती हैं। मुथुकृष्णन खाइयों में 100 दिन की धान की पारम्परिक किस्म उगाते हैं। खाइयों में भरा पानी धान की खेती और लवणता से निपटने में मदद करता है।
धान की कटाई के बाद मेड़ों पर उगने वाले खरपतवार को वापस मिट्टी में मिला दिया जाता है। खाइयाँ चार फुट चौड़ी हैं, जो इतनी चौड़ी हैं कि हाथ से चलने वाले मिनी ट्रैक्टर से जुताई की जा सके।
पांच फुट ऊंचे ग्रेनाइट खंभों के ऊपर एक धातु के तार की जाली प्लॉट को कवर करती है। धान की कटाई के बाद, मुथुकृष्णन मेड़ों पर तोरई, करेला और ‘चिंचिडा’ (सर्पगंधा) जैसी बेल वाली सब्जियाँ उगाते हैं। वह कहते हैं – “सब्जी की बेलों की लंबाई को ध्यान में रखते हुए मेड़ों की दूरी तय की जाती है।”
खारेपन से निपटने के लिए किसान वर्षा जल को वहीं रोकने में विश्वास करते हैं, जहां यह गिरता है। मुथुकृष्णन की 20 एकड़ भूमि में वर्षा जल संचयन के लिए पाँच तालाब हैं। उन्होंने खेत की परिधि पर और भीतर बांध बनाए हैं, जहां फसलों के अनुसार और सिंचाई के लिए जरूरी पानी के स्तर के अनुसार खंडों को बांटा जाता है।
प्रेम आनंद ने VillageSquare.in को बताया – “हम हल्दी और काले चने और हरे चने जैसी दालें मेड़-फसलों के रूप में उगाते हैं। बांध न केवल मिट्टी बहने से रोकते हैं, बल्कि यदि पड़ोसी किसान जैविक खेती नहीं करते, तो नमक को रिसाव से अंदर आने से भी रोकते हैं।”
चिकनी मिट्टी के लिए धान के उपयुक्त उपयुक्त होने के कारण, धान की पारम्परिक किस्में वहां आदर्श हैं, जहां मिट्टी और पानी खारा हो गया है। कुछ किस्में विशेष रूप से लवणीय भूमि के लिए उपयुक्त हैं। मुथुकृष्णन किचिली सांबा, सीरगा सांबा, पूंगर, थूयामल्ली और करुप्पु कवुनी उगाते हैं, जो सभी पारम्परिक धान की किस्में हैं।
जहां राजेंद्रन कुरुविकर और किचिली सांबा उगाते हैं, वहीं तमिलसेल्वन कुझिवेदिचन और पूंगर किस्में उगाते हैं। राजेंद्रन के अनुसार, जो लोग अपनी भूमि में पशुओं के लिए बाड़ नहीं लगा सकते हैं, वे भी खाइयों में जैविक पदार्थ भरकर और वर्षा जल को जमीन में सोखने देकर, अपनी भूमि को पुनः प्राप्त कर सकते हैं और बनाए रख सकते हैं।
मुथुकृष्णन ने दोहराया कि जहां वर्षा जल गिरता है वहां रोककर और जैविक पद्धतियों के द्वारा, मिट्टी की विशेषताओं को बदला जा सकता है और कृषि को टिकाऊ बनाया जा सकता है। राजेंद्रन ने VillageSquare.in को बताया – “समुद्र के स्तर में वृद्धि और जलवायु खतरों के साथ, तटीय गांवों में रहने वाले हम लोगों के लिए मिट्टी की लवणता हमेशा एक समस्या रहेगी। केवल जैविक और पारम्परिक पद्धतियों ही हमें आगे बढ़ा सकती हैं।”
जेन्सी सैमुअल चेन्नई स्थित एक सिविल इंजीनियर और पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
यह कहानी GIZ-CMS मीडिया फ़ेलोशिप के माध्यम से तैयार की गई थी।
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