पैसा और पुरुषत्व: ग्रामीण परिवारों में बदलती लैंगिक भूमिकाएँ
बढ़ते कृषि तनाव और अनिश्चित आय के समय में, गाँवों में महिलाएँ भी पुरुषों की तरह ही परिवारों की प्रदाता बन रही हैं, लेकिन पितृसत्ता की बुरी पकड़ ढीली होने से इनकार कर रही है।
बढ़ते कृषि तनाव और अनिश्चित आय के समय में, गाँवों में महिलाएँ भी पुरुषों की तरह ही परिवारों की प्रदाता बन रही हैं, लेकिन पितृसत्ता की बुरी पकड़ ढीली होने से इनकार कर रही है।
हमारे जैसे पितृसत्तात्मक समाजों में, पारम्परिक रूप से यह धारणा रही है कि परिवार में सत्ता पुरुषों की होती है, क्योंकि वे ही परिवार के प्रदाता, संरक्षक और जरूरी होने पर दंड देने वाले होते हैं। वे घर से बाहर जाकर और कड़ी मेहनत या बाज़ार या पेशेवर करियर में, सभी तथाकथित कठिनाइयों का सामना करके पैसा कमाते हैं। महिलाएं बहुत अधिक ‘सुरक्षित’ माहौल में रहती हैं और उन्हें ‘केवल’ घर संभालना और बच्चों का पालन-पोषण करना होता है। इसलिए जब बेचारे थके हुए पुरुष घर लौटते हैं, तो यह स्वाभाविक है कि उनकी ‘देखभाल’ की जाती है और ‘उन्हें आराम दिया जाता है।’
जीवन तेजी से बदल रहा है और पुरुषों के प्रदाता होने की सबसे महत्वपूर्ण धारणा पर शायद चुनौती बढ़ती जा रही है। बदलाव हमेशा की तरह समाज के शिक्षित अभिजात वर्ग में, महिलाओं की शिक्षा के साथ शुरू हुआ। महिलाएँ शिक्षक, डॉक्टर, वकील आदि बनने लगीं। जब तक महिला प्राथमिक विद्यालय की अध्यापिका जैसी ‘स्त्रीवत’ नौकरियां कर रही थी और मामूली रकम कमा रही थी, तब तक ‘उन्हें अपना वेतन पॉकेट मनी के रूप में खर्च करने की अनुमति देते हुए’, पति प्रदाता होने का दिखावा कर सकते थे।
लेकिन बहुत से शहरी परिवारों में महिलाएँ अपने पतियों से ज्यादा नहीं, तो बराबर कमाती हैं। जिन घरों में ऐसा होता है, वहां दम्पत्तियों के बीच ज्यादा बातचीत देखी गई है और पारम्परिक पितृसत्तात्मक पारिवारिक व्यवस्था से ज्यादा दुराव देखा गया है। शहरी मध्यम वर्ग मेरी रुचि का सामाजिक समूह नहीं है। लेकिन अब देश के कई हिस्सों में गरीब ग्रामीण परिवारों को कमोबेश ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ रहा है।
बहुत से ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुष आज भी किसान हैं। उनकी आय कुदरत की अनिश्चितताओं और बाज़ारों में कीमतों के उतार-चढ़ाव से, ज्यादा नहीं तो उतनी ही निर्धारित होती है। उत्तरी बिहार जैसे क्षेत्रों में पारिवारिक भूमि के निरंतर विभाजन के कारण, पर्याप्त आय अर्जित करना कठिन है।
इस प्रकार शुष्क भूमि वाले क्षेत्रों के साथ-साथ, सुरक्षित कृषि क्षेत्रों के बड़े इलाकों में, पुरुषों के लिए अपने परिवारों का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त आय अर्जित करना अधिक कठिन हो गया है। समस्या और भी विकट हो रही है, क्योंकि आशाएं और आकांक्षाएं अधिक नकदी प्रवाह की मांग करती हैं।
फिर भी उन्हें प्रदाता होने की भूमिका निभानी पड़ी है। सबसे मार्मिक स्थिति विदर्भ जैसे क्षेत्रों में पैदा हुई है, जहां वास्तविक आय और पारम्परिक पितृसत्तात्मक भूमिका में पैसे की मांग के बीच अंतर के कारण, अत्यधिक तनाव और आत्महत्याएं हुई हैं। इन क्षेत्रों में, आर्थिक अवसरों की व्यापक कमी का मतलब यह है कि महिलाएँ जो भी काम कर सकती हैं, उनसे पर्याप्त आय अर्जित नहीं कर पाती हैं।
उपनगरीय क्षेत्रों के साथ-साथ कई स्थानों पर, जहां महिला स्व-सहायता समूहों के माध्यम से गरीबी-विरोधी कार्यक्रमों ने जड़ें जमा ली हैं और सफल रहे हैं, स्थिति पुरुषों जितनी ही चुनौतीपूर्ण है और अलग तरह की समस्याओं को जन्म देती है। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे कार्यक्रमों के माध्यम से, मुर्गी पालन, थोड़ी सब्जियों की खेती और अन्य आजीविका गतिविधियों जैसे अपने काम से, महिलाओं की आय में काफी वृद्धि हुई है।
उपनगरीय क्षेत्रों में, महिलाओं ने घरेलू काम के लिए नजदीकी शहरों में आना-जाना शुरू कर दिया है और स्थिर और साधारण आय अर्जित करना शुरू कर दिया है। ऐसे मामलों में, उनकी आय अक्सर उनके पतियों की आय से ज्यादा हो गई है। उनके पति ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं, न ही उनके पास ज्यादा हुनर है। इसलिए वे या तो कम वेतन वाले कामों में नियुक्त किए जाते हैं या कभी-कभार काम पाते हैं या बेरोजगार होते हैं।
बड़े शहरों के आस-पास के गांवों में, युवाओं के समूहों को चाय की दुकान के आसपास बैठे और पूरे दिन समय बिताते हुए देखना असामान्य नहीं है, क्योंकि उनके पास कोई स्थिर नौकरी नहीं है। उनकी पत्नियाँ घरों में घरेलू सहायिका के रूप में काम करती हैं और पैसे लाती हैं, जिससे परिवार चलता है।
लेकिन ये लोग भारी भौतिक आकांक्षाओं वाले पुरुष हैं। पुरुष अपने मोबाइल और बाइक चाहते हैं और आराम चाहते हैं, जो संभवतः उनके मेहनती, ‘प्रदाता’ पिताओं के पास थे। पितृसत्ता की तुलना में समृद्धि ज्यादा तेजी से ख़त्म हो जाती है। ये युवा पुरुष यह दिखावा करना चाहते हैं कि वे अब भी अपने परिवारों के प्रदाता, रक्षक और दंड देने वाले हैं। शारीरिक रूप से वे अपनी अत्यधिक काम करने वाली, और कभी-कभी कमजोर या गर्भवती पत्नियों से ज्यादा मजबूत बने रहते हैं। उनके लिए यह मुश्किल नहीं है कि महिला के पास जो भी थोड़ा पैसा है, उसे हड़प लें और अपनी शराब या धूम्रपान पर खर्च कर दें।
ये लोग कभी-कभी स्थानीय गुंडे या राजनेता की तैयार सेना होते हैं, जो राजनीतिक क्षेत्र में अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहते हैं। उसे शायद कभी-कभार चंद सौ रुपये फेंकने पड़ते होंगे या इन लालची लोगों की वफ़ादारी खरीदने के लिए शराब देनी पड़ती होगी।
लेकिन इन परिवारों में क्या हो रहा है? पितृसत्ता की पकड़ अब भी बहुत मजबूत है और ये गरीब महिलाएँ भी मानती हैं कि उनका पति ‘धनी’ या ‘मालिक’ है। वे खुले तौर पर आर्थिक ताकत का दावा नहीं करती हैं और न ही पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देती हैं।
लेकिन आखिर नकदी प्रवाह की असलियत महिलाओं के सामने आनी चाहिए। यह कैसे प्रकट होता है? महिलाओं की नई आर्थिक शक्ति पुरुषों की कौमपरस्ती और शारीरिक ताकत से किस प्रकार मेल खाती है या टकराती है? आख़िरकार, हर किसी को वास्तविकता के साथ सामंजस्य बिठाना होगा।
ये पुरुष प्रदाता होने के अपने दिखावे और आश्रित होने की वास्तविकता के बीच स्पष्ट विरोधाभास को कैसे हल कर रहे हैं? क्या इससे उनमें भारी निराशा पैदा हो रही है? क्या वह हताशा घरेलू हिंसा, यौन हमलों और अन्य प्रकार के गुंडागर्दीपूर्ण व्यवहार के बढ़ते स्तर का मूल कारण है?
तो फिर इलाज क्या है? क्या शिक्षित शहरी परिवार, जहां महिलाओं ने अपनी उच्च आय क्षमता साबित की है, सभ्य समाधान विकसित किए हैं? क्या ये शिक्षित शहरी परिवार इस समस्या से जूझ रहे उन ग्रामीण परिवारों को रोल मॉडल प्रदान कर सकते हैं?
यह लेख गौतम जॉन, अनीश कुमार और अनिर्बन घोष के साथ, पुरुषों द्वारा समझी जाने वाली लैंगिक भूमिकाओं के प्रति उभरती चुनौतियों पर चर्चा का परिणाम है। संजीव फणसळकर ‘ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन’ से करीब से जुड़े हुए हैं। वह पहले इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फणसळकर भारतीय प्रबंधन संस्थान, अहमदाबाद (IIMA) के फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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