छह साल पहले, सूखा प्रभावित होट्टल के किसान अपनी आजीविका कमाने के लिए शहरों की ओर पलायन करते थे। लेकिन वर्षा जल संचयन की बदौलत, भूमिगत जलश्रोत भर गए हैं और अब वे साल में तीन जैविक फसलें उगा रहे हैं।
होट्टल गाँव का चौराहा एक जीवंत जगह है। लोग कृषि हार्डवेयर, बीज और खाद खरीदने के लिए किसान-उत्पादक कंपनी की दुकान में आते-जाते रहते हैं। ग्राम सभा कार्यालय में, स्वयं सहायता समूहों की महिलाएँ अपनी बचत बढ़ाने के तरीकों पर जीवंत चर्चा करती हैं। विराम के दौरान चाय और नाश्ता होता है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सभी को ठंडा रखने के लिए भरपूर पानी के जग होते हैं।
सड़क के पार खेतों में सुबह की हवा में फसलें खुशी से झूम रही हैं। अमरूद के बाग़ फलों से लदे हुए हैं। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं था।
गांव की चहल-पहल से पहले कुछ भी नहीं था
छह साल पहले की बात करें तो होट्टल में बड़े पैमाने पर पलायन हुआ था, क्योंकि उस समय सूखी जमीन पर कुछ भी नहीं उगता था।
हालांकि नांदेड़ जिला, जहां यह गाँव स्थित है, महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र के अन्य हिस्सों में सूखा कम गंभीर था, फिर भी यह इतना बुरा तो था कि किसानों को अपने फावड़े छोड़कर 83 कि.मी. दूर तेलंगाना के निज़ामाबाद में कमरतोड़ मेहनत करके हल चलाने की तुच्छ मजदूरी करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। कुछ लोग बीदर, हैदराबाद और कामारेड्डी चले गए थे। कई लोग मुंबई पहुँच गए।
वे गन्ने के खेतों में, हल्दी के खेतों में, निर्माण स्थलों, ईंट भट्टों और चावल मिलों में काम करते थे। कुछ लोग शादियों में रसोइया और बैरों के रूप में काम करने के लिए, 150 कि.मी. दूर हैदराबाद चले जाते थे। तेलंगाना और कर्नाटक की सीमाओं के करीब स्थित, बहुत से लोग निज़ामाबाद जाना पसंद करते थे।
2,300 से ज्यादा लोगों के गाँव को छोड़कर अन्य स्थानों पर खेतिहर मजदूर के रूप में काम करने वाले सैकड़ों लोगों में से एक 40-वर्षीय नागनाथ दसरवाड़ भी थे।
घर पर उनकी तीन एकड़ ज़मीन थी। होट्टल में नहर से सिंचाई नहीं होती थी, इसलिए बहुत से दूसरे ग्रामीणों की तरह, उम्मीद लिए नागनाथ ने अपने पैरों के नीचे देखा।
जल, जीवन का अमृत
लेकिन वहां भूजल नहीं था। यहां तक कि भूमिगत जलस्रोत भी सूख चुके थे और उन्हें फिर से भरने के लिए बारिश भी नहीं हो रही थी।
नागनाथ ने बोरवेल खोदने में बहुत सारा धन खर्च कर दिया।
वह कहते हैं – “तीन प्रयासों और 600 फीट की गहराई तक खुदाई के बाद भी हम जल पाने में असफल रहे।”
इसके बाद निजामाबाद की ओर मार्च शुरू हुआ, जिसका रिवाज उन्होंने लगभग एक दशक तक जारी रखा।
लेकिन आज, होट्टल जल संरक्षण का एक ज्वलंत उदाहरण है।
नागनाथ वापस लौटे और उनके खेत में साल में तीन फ़सलें पैदा होती हैं। और वह अकेले नहीं थे।
दूसरी जगह चले गए गाँव वाले वापस आ गए हैं। उल्टा प्रवास। घर भरे हुए हैं और कुएं भी भरे हुए हैं।
होट्टल सूखाग्रस्त क्षेत्र से समृद्धि की ओर कैसे पहुंचा?
लाजवाब बदलाव, लेकिन हुआ कैसे?
इसका जवाब 44-वर्षीय शेषराव सूर्यवंशी के पास है, जिन्होंने 2016 में गाँव के सरपंच के रूप में पहल की और सूखे माहौल को हरे-भरे खेतों में बदलने के लिए जल संरक्षण के कई उपाय शुरू किए।
निर्णायक क्षण तब आया, जब 300 ग्रामवासियों ने होट्टल के पश्चिम में पहाड़ी की तलहटी में एक किलोमीटर लम्बी जलधारा मार्ग से गाद हटाई। मिट्टी और गाद को खेतों तक ले जाने के लिए ट्रैक्टर को 1,200 चक्कर लगाने की जरूरत पड़ी।
ग्रामवासियों ने सुनिश्चित किया कि वर्षा का पानी व्यर्थ न जाए, जिसके फलस्वरूप हर साल 138.20 लाख लीटर पानी जलश्रोतों तक पहुंच रहा है
इसके बाद राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की मदद से और भी प्रयास किए गए, जैसे कि खाइयां खोदना, गैबियन किलेबंदी और पत्थर के बांध बनाना। नाबार्ड एक सरकारी वित्त पोषण बैंक है, जिसने 13 लाख रुपये की प्रारंभिक पूंजी दी थी।
गैर सरकारी संगठनों ने भी इसमें सहयोग दिया।
‘एटलस कोप्को चैरिटेबल फाउंडेशन’ ने 27 लाख रुपए और समाजसेवी प्रकाश टंडेल ने 10 लाख रुपए दान दिए। छह दशक पुरानी गैर-लाभकारी संस्था ‘संस्कृति संवर्धन मंडल’ को नाबार्ड ने इस कार्य की देखरेख के लिए नोडल एजेंसी नियुक्त किया।
यह सारी पूंजी और गाँव वालों की ताकत की बदौलत 52 कुओं की सफाई हो गई। इस काम से गाँव में ही मजदूरी मिलना सुनिश्चित हो गया।
संस्कृति संवर्धन मंडल के परियोजना प्रबंधक, वसंत रावनगांवकर कहते हैं – “ग्रामीणों ने सुनिश्चित किया कि बारिश का पानी बर्बाद न हो, जिसके फलस्वरूप हर साल 138.20 लाख लीटर पानी जलसंग्रहों तक पहुंच रहा है।”
जब वर्षा जल संचयन प्राथमिकता हो
उपलब्ध जल का विवेकपूर्ण उपयोग किया जाता है।
उस बंजर 732 हेक्टेयर भूमि पर किसान तीन फसलें उगाते हैं, 22 एकड़ भूमि पर फूल उगाते हैं तथा 20 हेक्टेयर बंजर भूमि पर बाग-बगीचे हैं।
मुख्य फसल सोयाबीन है, जबकि पपीता, शरीफा और अमरूद से अतिरिक्त आय प्राप्त होती है। सब्जियाँ भी उगाई जाती हैं, जिन्हें 8 किमी दूर, नजदीकी शहर डेग्लूर में बेची जाती हैं । और सब कुछ जैविक, रसायन-मुक्त है।
मुख्यतः चौड़ी सड़कों, शौचालयों, स्वास्थ्य सुविधाओं और यहां तक कि एक पुस्तकालय की सौर श्रृंखलाओं से प्राप्त बिजली भी पानी की भेंट चढ़ गई।
घरों के नलों से बहता पानी इस सच्चाई को झुठलाता है कि यह क्षेत्र भारत के सबसे अधिक सूखे वाले क्षेत्रों में से एक है। और जलमार्गों के किनारे लगाए गए 2,000 बाँस के पौधे भी यही बयां करते हैं।
वर्षा पर निर्भर इस गाँव में एक स्वचालित मौसम केंद्र और 610 सदस्यों वाली एक किसान-उत्पादक कंपनी है।
पार्टी के लिए तैयार होट्टल
अपने भूमिगत जलश्रोतों के पुनर्भरण के साथ, होट्टल अपना ध्यान अपने सबसे प्रशंसित केन्द्र-बिन्दुओं पर केन्द्रित कर रहा है – सिद्धेश्वर , सोमेश्वर , पार्वती और परमेश्वर के विस्तृत नक्काशीदार बेसाल्ट-पत्थर के मंदिर, जो 11वीं और 12वीं शताब्दी के हैं और जिनका निर्माण चालुक्य राजाओं ने किया था।
मारोती शिंदे कहते हैं – “सिद्धेश्वर मंदिर में नृत्य मुद्रा में 42 अप्सराएं हैं।”
पर्यटन तेजी से बढ़ रहा है और “होट्टल उत्सव” इन दिनों एक स्थायी कार्यक्रम है।
अपनी भोगौलिक स्थिति की बदौलत अधिकांश ग्रामीणों की तरह, मराठी के साथ साथ तेलुगु और कन्नड़ भी बोल सकने वाले सूर्यवंशी कहते हैं – “जनवरी में आयोजित उत्सव में 10,000 से ज्यादा आगंतुक आए थे।”
इस उज्ज्वल भविष्य के साथ, कई ग्रामवासी अपने गुलदस्ते में पर्यटन को भी जोड़ने का सपना देखते हैं।
शीर्ष की मुख्य फोटो में नांदेड़ के गांवों में किए जा रहे जलग्रहण उपायों को दर्शाया गया है (छायाकार – हिरेन कुमार बोस)
हिरेन कुमार बोस महाराष्ट्र के ठाणे में स्थित पत्रकार हैं। वह सप्ताहांत में किसानी भी करते हैं।
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