सदियों पुरानी एक परम्परा के अनुसार, डल झील के आसपास के इलाकों में लोग, पानी के पार एक-दूसरे पर पटाखे फेंकते हैं, जो 21 दिसंबर को शीतकालीन संक्रांति का प्रतीक है, और 40 दिनों की कठोरतम सर्दी की शुरुआत है।
जैसे ही सर्दियों के सूरज की बड़ी लाल किरणें क्षितिज पर उतरी, सैकड़ों दीपों की लपटों ने डल झील के भीतर एक पड़ोस में, कुछ दूरी तक पानी के दोनों ओर किनारों को रोशन कर दिया।
धधकती लपटों और रीढ़ कंपा देने वाली ठंड के झोंकों के बीच, एक लड़के ने पटाखा जलाया और बेताबी से उसे पानी के दूसरी तरफ फेंकने की कोशिश की। कई कोशिशों के बाद, बारिक अहमद जीत के स्वर में चिल्लाया, क्योंकि उसका पटाखा दूसरी तरफ लोगों की भीड़ में धमाके के साथ जा गिरा।
‘बौबे जंग’ नाम के सालाना दोस्ताना मुकाबले के दौरान आम दृश्य है।
बौबे जंग – भीषण ठंड की शुरुआत का जश्न
स्थानीय परम्परा के अनुसार, शीतकालीन संक्रांति की पूर्व संध्या पर हर साल 21 दिसंबर को, अहमद की तरह आस-पास के इलाकों से सैकड़ों लोग प्रसिद्ध डल झील के अंदरूनी हिस्से में, रैनावारी के ‘मियां शाह’ इलाके में कश्मीर में सर्दियों की 40 दिन की सबसे कठोर अवधि, चिल्ला-ए-कलां की शुरुआत का जश्न मनाने के लिए इकट्ठा होते हैं।
उत्सव की शुरुआत जलाशय के किनारे दीये जलाने से होती है। सूफी संत मियां शाह की दरगाह के पास इकट्ठा होने के बाद, भीड़ दो समूहों में बँट जाती है। दोनों समूह पानी के विपरीत किनारों पर खड़े हो जाते हैं और एक दूसरे पर पटाखे फेंकते हुए, एक-दूसरे पर चिल्लाते हुए, चीखते हुए और हूटिंग करते हुए एक दोस्ताना मुकाबले में शामिल होते हैं।
जैसे ही पटाखा दूसरी तरफ गिर कर फूटता है, पटाखे फेंकने वाला दूसरा पक्ष जीत की खुशी मनाता है। इस सालाना मैत्रीपूर्ण लड़ाई को स्थानीय भाषा में ‘बौबे जंग’ यानि दोस्ताना मुकाबला कहा जाता है।
केवल पटाखे ही नहीं, बल्कि गर्म अंगारे, जलती हुई बत्तियां और आग वाले बर्तन, लोग एक-दूसरे पर जो कुछ भी हाथ में आता है, फेंकते हैं।
लड़कों के एक समूह ने कहा – “हम बचपन से इस परम्परा में भाग लेते आ रहे हैं। यह बिल्कुल अलग तरह का त्यौहार है, जिसमें हर कोई एक-दूसरे पर जलती हुई चीज़ें और पटाखे फेंकने का आनंद लेता है। भावनाओं के चरम पर, हम जो कुछ भी मिलता है, उसे फेंक देते हैं, चाहे वह जलती हुई लकड़ी का टुकड़ा हो या कोई गत्ता।”
और बेशक वे सुरक्षा का ध्यान रखते हुए खेलते हैं।
सदियों पुरानी परम्परा
संयोगवश, यह दिन 16वीं शताब्दी के सूफी संत मियां शाह के उर्स यानि पुण्यतिथि पर पड़ता है।
घाटी में इस अनोखी परम्परा, चिल्ला-ए-कलां की शुरुआत का श्रेय लोकप्रिय सूफी संत मियां शाह और एक सिद्ध हिंदू ऋषि को जाता है। ऐसा माना जाता है कि दोनों आध्यात्मिक हस्तियों को बहुत सी चमत्कारी शक्तियाँ प्राप्त थी।
मियाँ शाह इलाके के 80 वर्षीय मोहम्मद मकबूल मीर ने विलेज स्क्वेयर को यह कहानी सुनाते हुए बताया – “एक स्थानीय कहानी के अनुसार, एक ब्राह्मण ऋषि और मियाँ शाह नदी के दोनों ओर रहते थे। 21 और 22 दिसंबर के बीच की रात में जब तापमान शून्य से नीचे गिरा और सर्दियों का मौसम शुरू हुआ था, तो ऋषि ने मियाँ शाह से ठंड से बचने का उपाय पूछा।”
वह कहते हैं – “सूफी संत ने सौहार्दपूर्ण तरीके से साधु की ओर एक गर्म जलता हुआ अंगारा फेंका। ऐसा माना जाता है कि साधु को चारों ओर तुरंत गर्मी महसूस हुई। तब से एक-दूसरे पर गर्म और जलती हुई चीजें फेंकने की दोस्ताना लड़ाई की परम्परा सदियों से चली आ रही है।”
हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि पटाखे कब से बौबे जंग प्रथा का हिस्सा बन गए।
इस दिन का दूसरे नजरियों से भी बहुत सामाजिक महत्व है।
यह लड़ाई हिंदू-मुस्लिम सद्भाव का प्रतीक है
बौबे जंग के परम्परागत त्यौहार को इलाके के मुस्लिम और हिंदू पंडित समुदाय दोनों मनाते हैं। पंडित समुदाय के घाटी से पलायन करने से पहले, दोनों समुदाय के लोग इस त्यौहार को एक साथ मनाते थे।
जम्मू पलायन से पहले श्रीनगर के हब्बाकदल में रह चुके, पंडित काकाजी भट्ट ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “मुझे आज भी याद है कि कैसे पंडित नदी के किनारे दीये जलाते थे। दोनों समुदायों के लोग प्यार और सांप्रदायिक बंधन के प्रतीक के रूप में एक-दूसरे पर गर्म अंगारे फेंकते थे।”
भट्ट याद करते हुए कहते हैं – “हम इस उत्सव पर एक-दूसरे के परिवारों से मिलने भी जाते थे। वे हमारे घर आते थे और हम उनके घर जाते थे। यह एक प्यारा बंधन था।”
मियां शाह में होने वाले उत्सव में पंडित समुदाय की भागीदारी पिछले कुछ वर्षों में कम हो गई है, विशेष रूप से नब्बे के दशक में घाटी से समुदाय के पलायन के बाद, फिर भी घाटी में अब भी रह रहे समुदाय के कुछ सदस्य इस आयोजन में भाग लेते हैं।
सामाजिक ताने-बाने को मजबूत करने के अलावा, यह मैत्रीपूर्ण मुकाबला भोजन प्रेमियों के लिए एक दावत भी बन जाता है।
दावतों का समय
क्योंकि इस कार्यक्रम में कुछ विशेष स्थानीय व्यंजन परोसे जाते हैं, इसलिए मियां शाह और आस-पास के इलाकों के लोग इस अवसर पर अपने मित्रों और परिवारजनों के लिए ‘नद्र गाडे’, ‘गाडे हाख’ और ‘मुज गाडे’ व्यंजनों के साथ भव्य भोज का आयोजन करते हैं।
इलाके में रहने वाले दर्शनशास्त्र के एक छात्र नजीर अहमद के अनुसार, इस दिन क्षेत्र के लगभग हर घर में मछली से विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने की परम्परा दशकों से चली आ रही है और धीरे-धीरे यह आयोजन क्षेत्र के भोजन प्रेमियों के लिए एक मिलन समारोह में बदल गया है।
यह दिन आनंद और उल्लास से भरा होता है। जब लोग चिल्ला-ए-कलां की शुरुआत और साथ ही संत के उर्स का जश्न मनाते हैं, मछली चावल की दावतें, ‘गाडे बाटे दावत’ इतनी अच्छी होती हैं कि उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता।
मुख्य फोटो में डल झील के आस पास के लोगों को पानी के एक संकरे हिस्से में एक-दूसरे पर पटाखे फेंकते हुए दिखायागया है (छायाकार – नासिर यूसुफ़ी)
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?