लद्दाख के वीणा निर्माता ने ‘ड्रान्येन’ को दिया नया जीवन
लेह में रहने वाले शिल्पकार, त्सेरिंग अंगचुक ने छह तारों वाले पतले संगीत वाद्ययंत्र को पुनर्जीवित करने में मदद की है, जो कभी ‘जंगथांग खरनाक’ के ऊंचे इलाकों के खानाबदोशों का पर्याय था।
लेह में रहने वाले शिल्पकार, त्सेरिंग अंगचुक ने छह तारों वाले पतले संगीत वाद्ययंत्र को पुनर्जीवित करने में मदद की है, जो कभी ‘जंगथांग खरनाक’ के ऊंचे इलाकों के खानाबदोशों का पर्याय था।
त्सेरिंग अंगचुक को याद है कि बचपन में वे छह तारों वाली वीणा की मधुर ध्वनि सुनते थे, जिसे स्थानीय भाषा में ड्रान्येन कहा जाता था।
लद्दाख की राजधानी लेह से 100 किलोमीटर से ज्यादा दूर हिमालय में, एक कठोर लेकिन पुरातन क्षेत्र, जंगथांग खरनाक के ऊंचे इलाकों में, ड्रान्येन जीवन शैली का एक हिस्सा था।
लेकिन यह तब की बात है, जब अंगचुक बड़े हो रहे थे।
तब से अब तक बहुत कुछ बदल चुका है।
अंगचुक अब बुजुर्ग हो चुके हैं और 55 साल के हैं। बहुत से लोग ड्रान्येन को भी पुराने ज़माने का मानते हैं।
इसका मतलब यह था कि आमतौर पर लकड़ी के एक ही टुकड़े को तराश कर बनाए जाने वाले लंबी गर्दन वाले दो कमर वाले वाद्य यंत्र की मांग खत्म हो गई थी।
कई मायनों में, ड्रान्येन की घटती लोकप्रियता ने यह भी दर्शाया कि किस प्रकार लद्दाख के पूर्वी भाग में इस समुदाय के जीवन में तेजी से बदलाव आया है।
पहले इस क्षेत्र के खानाबदोश, जिनकी तिब्बत के लोगों, रीति-रिवाजों और परम्पराओं से काफी समानता थी, अपने रेवड़ चराते समय ड्रान्येन बजाते और लोक गीत गाते थे।
इस वाद्य यंत्र को बनाने की तकनीक 17 वीं शताब्दी से चली आ रही है और इसकी उत्पत्ति तिब्बत के पश्चिमी भाग से हुई है, जिसे न्गारी कहा जाता है।
लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद भारतीय सेना के आगमन और कई तरह की विकास परियोजनाओं के कारण चरागाह की ज्यादातर भूमि लुप्त हो गई।
लगभग 70% स्थानीय ‘खरनाकपा’ लोग, बेहतर आजीविका की तलाश में 1990 के दशक में लेह चले गए।
अंगचुक भी 20 वर्ष की उम्र में लेह चले गए। जीवन यापन के संघर्ष करने के अलावा, उन्हें अपने घर की याद आती थी और वे वहां की जीवनशैली के लिए तरसते थे।
तभी उन्हें एक विचार आया।
लकड़ी की कारीगरी में हमेशा निपुण रहे अंगचुक ने बहुत कम समय में ड्रान्येन को तराश दिया।
वाद्य यंत्र ने सही सुर बजाये, जिससे अंगचुक को आनंद आ गया। उसने और ड्रान्येन बनाए।
उनकी बदौलत ड्रान्येन, जो किसी तरह से अनुपयोगी हो गया था, को कुछ हद तक नया जीवन मिल गया है।
अंगचुक ने बताया – “ड्रा का अर्थ है धुन और न्येन का अर्थ है राग, अर्थात वह वाद्य जो मार्मिक धुनें उत्पन्न करता है। तिब्बती पठार और हिमालय में इसका भौतिक आकार अलग-अलग हो सकता है। लद्दाख में यह मुख्य रूप से घोड़े के सिर जैसा आता है।”
अंगचुक ने नए ड्रान्येन बनाना बंद नहीं किया है। इसे आकार देने के लिए विलो पेड़ की लकड़ी को प्राथमिकता दी जाती है।
वह कहते हैं – “लकड़ी जितनी मोटी होगी, ध्वनि उतनी ही बेहतर होगी। एक पूरी वीणा बनाने में आमतौर पर 3-4 दिन लगते हैं।”
यह कठिन काम है। लेकिन उनकी दृढ़ता ने अब फल देना शुरू कर दिया है।
शुरू में इसकी कोई मांग नहीं थी और वह खुद ही बिना बिके वाद्ययंत्र बजाकर समय बिताते थे।
अब वह हर साल 40-50 वीणा बेचते हैं, जिनमें प्रत्येक की कीमत 6,500 से 8,000 रुपये के बीच है।
राज्य प्रशासन ने ड्रान्येन को बढ़ावा देने में अपना योगदान दिया है। ऑल इंडिया रेडियो के लेह स्टेशन ने अंगचुक और उनके दोस्तों को प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया था।
प्रदर्शन के लिए उन्होंने राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों का दौरा भी किया है। इस बीच, उन्होंने एक कार्यक्रम के लिए प्राग (चेक रिपब्लिक) का दौरा किया।
अंगचुक कहते हैं – “एक संगीतकार और शिल्पकार के तौर पर मुझे यह कहते हुए गर्व हो रहा है कि ड्रान्येन लद्दाख का अकेला हाथ से और स्थानीय रूप से बना वाद्य यंत्र है। यहां तक कि दमन (ड्रम) और सुरना (शहनाई जैसा वाद्य) भी लद्दाख के बाहर से लाए जाते हैं।”
ड्रान्येन के पुनः बाजार में आने के बाद से, लद्दाख का संगीत परिदृश्य बदल गया है।
युवा, स्कूल और विभिन्न संस्थाएं इस वाद्य यंत्र को सीखने के लिए बड़ी मात्रा में खरीद रही हैं। इसकी फैलती प्रसिद्धि के साथ, अंगचुक ने 400 ड्रान्येन बेचे हैं।
मुनाफे के अलावा, ड्रान्येन के पुनरुद्धार को भी काफी प्रशंसा मिल रही है।
ड्रुक पद्मा कार्पो विद्यालय में संगीत शिक्षक, 28-वर्षीय जिग्मत रबस्तान कहते हैं – “मैं ड्रान्येन जैसे लोक वाद्य यंत्र के माध्यम से अपनी जड़ों और संस्कृति से फिर से जुड़ रहा हूँ। मेरी पीढ़ी को यह शुभ वाद्य यंत्र, उपलब्ध न होने के कारण सीखने का अवसर कभी नहीं मिला।”
लद्दाख की एक लंबे समय से लुप्त संगीत परम्परा, अंगचुक और उनके ड्रान्येन के सौजन्य से वापस आ रही है।
मुख्य फोटो में अंगचुक को जंगथांग खरनाक के एक पारम्परिक खानाबदोश तम्बू के पास अपने हाथ से बनी वीणा को बजाते हुए दिखाया गया है (छायाकार – दावा डोल्मा)
दावा डोल्मा लेह स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। वह जलवायु परिवर्तन, समुदायों और हिमालय की संस्कृति के बारे में लिखती हैं। वह यूथ हब, विलेज स्क्वेयर में ‘ग्रामीण मीडिया फेलो 2022’ हैं।
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