शहरीकरण एक अन्य प्राचीन उद्योग, बाँस कारीगरी को लील रहा है, क्योंकि विशाल निर्माण कार्यों का मतलब न सिर्फ बाँस की मात्रा कम होना है, बल्कि मचान बनाने वालों की ओर से बाँस की मांग बढ़ना गुरविंदर सिंहभी है।
मणिपुर के इम्फाल पश्चिम जिले के पाटसोई गांव के ए. इतोमाचा मैतेई चार दशकों से बाँस की पारम्परिक टोकरियाँ बना रहे हैं।
यह 53-वर्षीय व्यक्ति प्रतिदिन अलग-अलग आकार की दो से तीन टोकरियाँ बनाता है और उन्हें स्थानीय बाजार तथा थोक विक्रेताओं को 250-350 रुपये में बेचता है।
मैतेई का दावा है कि वह दो गुना टोकरियाँ बना सकते थे और अपनी आय बढ़ा सकते थे, लेकिन बाँस की कमी के कारण ऐसा नहीं कर पाते।
बाँस की घटती आपूर्ति
उन्होंने विलेज स्क्वेयर को बताया – “पहले हमें बाँस नियमित रूप से उपलब्ध होते थे और हम बिना किसी व्यवधान के काम कर सकते थे।”
लेकिन अब उन्हें ताजा आपूर्ति मिलने के लिए दो से तीन दिन तक इंतजार करना पड़ता है।
चेहरे पर चिंता के स्पष्ट भाव के साथ उन्होंने कहा – “इससे मेरा व्यवसाय प्रभावित होता है और मेरी आय कम हो जाती है।”
हम अपने काम में कुशल हैं और कुछ ही घंटों में टोकरियाँ बना लेते हैं। लेकिन बांस की नियमित आपूर्ति अब एक समस्या है।
यही कहानी 70-वर्षीय टी. बिलाशिनी देवी की भी है, जो मछली जाल की टोकरियाँ बनाती हैं। वह हर दिन दो से तीन टोकरियाँ बनाती हैं, जो 90-100 रुपये प्रति टोकरी बिकती है, जिससे उन्हें हर महीने 3,000 रुपये की कमाई होती है। लेकिन अब नहीं।
वह कहती हैं – “मैं पांच दशकों से मछली जाल की टोकरियाँ बना रही हूँ और अब भी रोज 4-5 टोकरियाँ बना सकती हूँ, लेकिन बाँस की आपूर्ति नियमित नहीं है।”
यह गाँव कारीगरों का केंद्र है, जहां 300 लोग बाँस से टोकरियाँ और अन्य घरेलू सामान बनाते हैं।
देवी कहती हैं – “हम पीढ़ियों से यह काम करते आ रहे हैं, क्योंकि हमारे पूर्वज भी इसी पेशे से अपनी आजीविका कमाते थे। हम अपने काम में कुशल हैं और कुछ ही घंटों में टोकरियाँ बना लेते हैं। लेकिन अब बाँस की नियमित आपूर्ति एक समस्या है।”
मणिपुर में बाँस का क्षेत्र कम हो रहा है
उनकी चिंता अकारण नहीं है, क्योंकि पहाड़ियों से घिरे पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में तेजी से हो रहे शहरीकरण के कारण, वन क्षेत्रों के सफाए के कारण अपना हरित क्षेत्र खो रहा है।
मणिपुर में बाँस की लगभग 35 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। Bambusa tulda, Bambusa jaintiana और Gigantochloa andamanica आम हैं, जिनका उपयोग आवास, फर्नीचर, हस्तशिल्प, बाड़ लगाने, चटाई और टोकरी बनाने के लिए किया जाता है।
टोकरी बनाने वालों ने बताया कि इन दिनों बाँस कम दिख रहा है और हर गुजरते दिन के साथ इसकी संख्या कम होती जा रही है।
भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, मणिपुर में कुल बाँस क्षेत्र 2017 के 10,687 वर्ग कि.मी. से 2019 में घटकर 9,903 वर्ग कि.मी. और 2021 में 8,377 वर्ग कि.मी. रह गया।
आपूर्ति में कमी का इतना गंभीर प्रभाव पड़ा है कि तीन साल पहले तीन कागज मिलें, एक नागालैंड में और दो असम में, मणिपुर से बाँस आपूर्ति की कमी के कारण बंद हो गईं, जिससे कई कर्मचारियों की नौकरी चली गई।
एक कारीगर के. तबाम मस्सी (72) कहते हैं – “पहले हम गाँवों के हर नुक्कड़ और कोने में बाँस उगते हुए देखते थे। यह हमेशा से हमारे जीवन का हिस्सा रहा है, क्योंकि जन्म से लेकर मृत्यु तक, इसका उपयोग हमारे सभी अनुष्ठानों में किया जाता है। हमारे आंगन में बाँस उगते थे, लेकिन शहरीकरण और बढ़ती आबादी के कारण लोग उन्हें हटाने पर मजबूर हो रहे हैं।”
बाँस के मचान की मांग से संसाधनों में कटौती
मस्सी कहती हैं – “हमारे परिवार एकल होते जा रहे हैं और अनेक मकान बन रहे हैं।”
हालांकि ग्रामीणों ने बताया कि सड़कों और रेलवे नेटवर्क के निर्माण से बाँस के क्षेत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, लेकिन निर्माण उद्योग में तेजी से भी उन्हें और ज्यादा नुकसान हो रहा है।
मणिपुर में ‘राष्ट्रीय बाँस मिशन’ के सहायक राज्य मिशन निदेशक, एन. सोमोरेन्द्रो ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “इमारतों के निर्माण में बाँस का इस्तेमाल मचान बनाने में किया जाता है। इसलिए पिछले 10 सालों में इसकी मांग कई गुना बढ़ गई है।”
अफीम की अवैध खेती से बढ़ी परेशानी
अफीम की खेती के कारण भी बाँस क्षेत्र में कमी हो रही है।
पिछले कुछ वर्षों में मणिपुर की रणनीतिक स्थिति के कारण, अफीम की अवैध खेती में वृद्धि हुई है।
यह लाओस, म्यांमार और थाईलैंड के करीब है, जिन्हें दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में नशीली दवाओं के व्यापार का सुनहरी त्रिकोण माना जाता है। अफीम की खेती के लिए वन क्षेत्रों को साफ किया जा रहा है। सरकारी कार्रवाई के बावजूद, बाँस की खेती अफीम से हार रही है।
लेकिन वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों का कहना था कि राज्य सरकार बाँस क्षेत्र बढ़ाने के प्रति गंभीर है और बाँस उत्पादन बढ़ाने के लिए पर्याप्त कदम उठा रही है।
सरकार ने 2018-19 में 1,245 हेक्टेयर में बाँस की खेती शुरू की है। सिंह के अनुसार राज्य के विभिन्न जिलों में तीन बाँस प्रोसेसिंग इकाइयां और चार हस्तशिल्प इकाइयां भी स्थापित की गई हैं।
राज्य सरकार के प्रयासों पर ज़ोर देते हुए सिंह ने कहा – “सरकार ने 2018-19 में राज्य में बाँस की 16 नर्सरियाँ भी शुरू की। राज्य में लगभग एक लाख बाँस उत्पादक किसान हैं।”
बाँस को बढ़ावा देने के लिए
बाँस के लिए काम करने वाले एक योद्धा और गैर-लाभकारी व्यापार संगठन, ‘दक्षिण एशिया बाँस फाउंडेशन’ के संस्थापक, कामेश सलाम ने बताया कि केरल और महाराष्ट्र के विपरीत, मणिपुर बाँस को बढ़ावा देने के प्रति गंभीर नहीं है।
सलाम कहते हैं – “हमारे सुरक्षा और अर्द्धसैनिक बल के जवान बाँस के सामान के सबसे बड़े खरीदार हो सकते हैं, क्योंकि वे दूसरे राज्यों से बड़ी संख्या में उत्तर-पूर्व के विभिन्न हिस्सों में स्थित अपने सैन्य ठिकानों पर आते हैं। लेकिन दुख की बात है कि बाँस के सामान को ज़्यादा बढ़ावा नहीं दिया जाता और बहुत से घरों में प्लास्टिक ने पहले ही इसकी जगह ले ली है।”
उनके अनुसार, जब तक गंभीर प्रयास नहीं किए जाएंगे, हालात में कोई बदलाव नहीं होगा या वे और भी खराब हो सकते हैं।
उन्होंने सुझाव दिया कि बाँस को बढ़ावा देने के लिए सरकारी विभागों और मंत्रालयों को, समानांतर काम करने की बजाय मिलकर काम करना चाहिए।
वह सुझाव देते हैं – “इसके लिए हमारे राज्यों की खेल हस्तियों को ब्रांड एंबेसडर के रूप में शामिल किया जा सकता है।”
मुख्य फोटो में बाँस के पेड़ दिखाए गए हैं, हालांकि मणिपुर में इनकी संख्या तेजी से घट रही है, जिससे बाँस कारीगरों की आजीविका प्रभावित हो रही है (फोटो – ‘चटरस्नैप, अनस्प्लैश’ से साभार)
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