ग्रामीण महिला किसान वित्तीय स्वतंत्रता की ओर अग्रसर

टोंक, राजस्थान

स्वयं सहायता समूहों और गैर सरकारी संगठनों द्वारा प्रोत्साहन से, जो महिलाएं कभी बिना पुरुष के घर से बाहर नहीं निकलती थी, वे अब खेती से अच्छी आजीविका और काफी सम्मान अर्जित कर रही हैं।

कृष्णा देवी ने पंचायत के पदाधिकारी के लिए चुनाव लड़ा और हार गई। लेकिन राजस्थान में टोंक जिले के चोरु गाँव की 31-वर्षीय देवी ने हिम्मत या आत्म-विश्वास नहीं हारा। वह अगली बार फिर चुनाव लड़ेंगी।

उनका यह विश्वास इस तथ्य से उपजा है कि वह एक आर्थिक रूप से स्वतंत्र ग्रामीण महिला हैं। एक किसान, जो अपने परिवार के छोटे से खेत में उगाए गए काले चने और सरसों से सालाना 1.56 लाख रुपये से ज्यादा कमाती हैं।

परिश्रम, किफ़ायत और उद्यमशीलता से ज्यादा धन और स्वतंत्रता प्राप्त होती है।

कुछ लोग देवी और उनके जैसी अन्य ग्रामीण महिलाओं की उपलब्धियों को असामान्य या अपवाद मान सकते हैं। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वे रूढ़िवादी राजस्थान में नई राह बनाने वाली अग्रणी महिलाओं में से हैं।

अपनी सफलता की कहानियाँ सुनाने के लिए एकत्रित, उनियारा तहसील के विभिन्न हिस्सों की महिला किसान (छायाकार – राखी रॉयतालुकदार)

उन्होंने एक ऐसे देश में गहरी जड़ें जमाए सामाजिक मानदंडों को उलट दिया है, जो अतिरूढिवाद पर अड़ा हुआ है। भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, लेकिन पितृसत्तात्मक प्रथाओं के कारण महिला रोजगार की दर भी सबसे कम है, जो ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से समाज में समाहित रही है।

मैं कभी भी अपने घर से बाहर बिना किसी पुरुष रिश्तेदार के नहीं निकलती थी। अब मुझे खुद पर भरोसा है। मुझे खेतों तक भी कोई नहीं ले जाता।

लेकिन बदलाव आता है, हालांकि धीरे-धीरे।

सोशल मीडिया, सरकारी कार्यक्रम, स्वैच्छिक संगठन और बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ, सामाजिक पर्दे (घूंघट) से बाहर देखने के लिए, ग्रामीण महिलाओं को जागरूकता, तकनीकी एवं वित्तीय सहयोग कर रही हैं तथा उनमें आत्मविश्वास पैदा कर रही हैं।

देवी, जिनका जीवन अब घर के काम, खाना बनाना और बच्चों की परवरिश जैसी लैंगिक भूमिकाओं तक सीमित नहीं है, कहती हैं – “मैं कभी भी अपने घर से बिना किसी पुरुष रिश्तेदार के बाहर नहीं निकलती थी। स्वयं सहायता समूह ‘पार्वती’ में शामिल होने से मेरी आँखें खुलीं और कई रास्ते खुले। अब मुझे खुद पर भरोसा है। आजकल खेतों में भी मेरे साथ कोई नहीं जाता।”

वह कहती हैं – “मैं अपनी फसलें खुद उगाती हूँ। हम स्वयं सहायता समूह की बैठकों में खेती की नई तकनीकों पर चर्चा करते हैं और अपने खेतों पर उनका प्रयोग करते हैं। इससे अच्छी पैदावार और बढ़िया मुनाफा मिलता है।”

महिला मुक्ति के प्रतीक

छोटे खेत वाली महिला किसानों को सशक्त बनाने की परियोजना 2020 में जयपुर शहर से लगभग तीन घंटे की ड्राइव पर स्थित उनियारा तहसील के आसपास के गांवों में शुरू हुई थी। इसे ‘लुइस ड्रेफस फाउंडेशन’ (LDF) और एक गैर सरकारी संगठन ‘सेंटर फॉर माइक्रो फाइनेंस’ (CMF) के सहयोग से शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य महिला किसानों की खाद्य सुरक्षा और आय को बढ़ाना था।

हालांकि महिलाएं खेतों में काम करती हैं तथा फसलों और पशुओं की देखभाल करती हैं, लेकिन आमतौर पर उनकी जमीन या संपत्ति नहीं होती है और परिवार की आर्थिक स्थिति में उनकी भूमिका बहुत कम होती है।

स्थापित और सदियों पुरानी परिभाषित लैंगिक भूमिकाएं अक्सर महिलाओं को अपने उत्पाद बाजार में लाने या उनकी कीमत तय करने की अनुमति नहीं देती हैं

ऑक्सफैम के अनुसार, 85% भारतीय ग्रामीण महिलाएँ कृषि में लगी हुई हैं, फिर भी केवल 13% के पास ही जमीन है।

झुंडवा गाँव की पूर्व सरपंच शांति देवी कहती हैं – “हमें पुरुषों के बराबर सम्मान नहीं दिया जाता। भूमि अधिकार के बिना, हम इस पर ज़्यादा कुछ बात नहीं कर सकते। हम न तो फसलों की कीमत तय करते हैं और न ही पशुओं की। लेकिन चीजें बदल रही हैं। हमें जलवायु, फसल चक्र, नकदी सब्जियाँ उगाने, कीट नियंत्रण और बहुत कुछ के बारे में प्रशिक्षित किया जा रहा है।”

हालात को देखते हुए, परियोजना को अंदर से चीजों को बदलना पड़ा।

कचरावत पंचायत के रायपुरा की तेजस महिला समिति से कैलाशी देवी, एक पपीता उत्पादक और पशुपालक हैं (छायाकार – राखी रॉयतालुकदार)

लुईस ड्रेफस कंपनी के भारत के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, विपिन गुप्ता कहते हैं – “स्थापित और सदियों पुरानी परिभाषित लैंगिक भूमिकाएं अक्सर महिलाओं को अपने उत्पाद बाजार में लाने या उनकी कीमत तय करने की अनुमति नहीं देती हैं।”

प्रत्येक क्षेत्र और कृषि अंचल की अपनी चुनौतियाँ होती हैं – सही समाधान खोजने के लिए उनकी पहचान करना जरूरी है।

गुप्ता कहते हैं – “इस क्षेत्र में ज़्यादातर गेहूं, बाजरा , सरसों और मूंगफली उगाई जाती है, लेकिन वैज्ञानिक हस्तक्षेप से उन्हें टमाटर, मिर्च, पपीता और भिंडी जैसी सब्ज़ियाँ उगाने में मदद मिली है। इससे उन्हें अतिरिक्त धन प्राप्त होता है।”

अब तक इस परियोजना से 3,821 महिला किसानों को मदद मिली है। इसके सफल संचालन के कारण, इस कार्यक्रम को 2024 तक बढ़ा दिया गया है, जिसका लक्ष्य 100 गाँवों की 6,000 और महिलाओं को सशक्त बनाना है।

नए कौशल का लाभ उठाना

कचरावता पंचायत की तेजस महिला समिति से कैलाशी देवी को आधुनिक, टिकाऊ कृषि तकनीकों के बारे में तब तक कुछ भी पता नहीं था, जब तक कि उन्हें स्वयं सहायता समूह में प्रशिक्षण नहीं मिला।

कैलाशी देवी, जिन्होंने पशुपालन पर भी नए कौशल सीखे हैं, कहती हैं – “हमें बुवाई से पहले और बाद की देखभाल, कीट नियंत्रण और जैविक खेती पर विशेष प्रशिक्षण दिया गया था। महामारी ने परियोजना को धीमा कर दिया, लेकिन हमें जो सिखाया गया था, वह ज्यादातर हम लागू कर पाए। अब हमारी पैदावार में बहुत वृद्धि हुई है।”

जिस अर्ध-शुष्क भूमि पर वे रहती हैं, वहां महिला किसानों को ड्रिप सिंचाई अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

रामजानकी देवी के टमाटर, मिर्च और भिंडी से लहलहाते सब्जी के बगीचे में, इसका नतीजा अपनी कहानी खुद ही बयां करता है। झुंडवा गांव की 33-वर्षीय रामजानकी देवी परियोजना के हस्तक्षेप के बाद अपने खेत से सालाना करीब 2.3 लाख रुपये और पशुधन से 22,000 रुपये कमा रही हैं।

महिलाओं को जैविक खाद और “जीवामृत” जैसा कीटनाशक मिश्रण बनाना सिखाया जाता है, जो गाय के गोबर और मूत्र, चने के आटे और गुड़ को पानी और महीन मिट्टी में फरमेंट करके बनाया जाता है।

टोंक जिले में ड्रिप सिंचाई पद्धति से उगाई गई भिंडी (छायाकार – राखी रॉयतालुकदार)

कोविड के कारण अपने पति की मौत के बाद, स्वयं का और बच्चों एवं सास का ख्याल रख रही, सुगना देवी कहती हैं – “इस मिश्रण को खाद में बदलने में करीब 15 दिन लगते हैं। इसे पौधों और जड़ों पर छिड़का जाता है। इस जैविक कीटनाशक से बहुत पैसे की बचत होती है। मैं इसे 5 रुपये प्रति लीटर बेचती हूँ। मैं ब्रह्मास्त्र जैसे दूसरे कीटनाशक भी बनाती हूँ।” 

एक अन्य पहलू वित्तीय साक्षरता प्रशिक्षण का था।

CMF की कार्यकारी निदेशक मल्लिका श्रीवास्तव ने कहा कि जब कोई महिला किसान ऋण के लिए बैंक से संपर्क करती थी, तो लैंगिक पूर्वाग्रह के कारण अक्सर बाधाएं उत्पन्न होती थी।

उन्होंने कहा – “वे नामित किसान नहीं हैं, भूमि उनके नाम पर नहीं है और गिरवी रखने के लिए संपत्ति के अभाव में वे धन उधार नहीं ले पाती हैं।”

वे पर्याप्त धन की कमी में उर्वरक, बीज और कृषि उपकरण नहीं खरीद सकती थी, या फसल की पैदावार बढ़ाने के लिए टिकाऊ पद्धतियाँ नहीं अपना सकती थी।

इसलिए महिलाएँ अपने स्वयं सहायत समूह में लगभग 20 रुपये महीना जमा करती हैं और जब किसी सदस्य को तत्काल नकदी की जरूरत होती है तो इस राशि को ऋण के रूप में दे दिया जाता है।

शांति देवी कहती हैं – “हमें अपने देश की कृषि की कहानी में समान हिस्सेदार बनाएं। हम खुद को समान रूप से सक्षम साबित करने के लिए अक्सर अपने कर्तव्यों से आगे निकल जाते हैं। यदि इसे मान लिया जाए, तो भारत की कृषि अर्थव्यवस्था में बुनियादी बदलाव आसान हो जाएगा।”

शीर्ष के मुख्य फोटो में राजस्थान की सूखी लाल मिर्च तैयार करती महिला किसान दिखाई दे रही हैं (छायाकार – मधुमिता चटर्जी)

राखी रॉयतालुकदार जयपुर, राजस्थान स्थित पत्रकार हैं।