नाटक-दर-नाटक लैंगिक भेदभाव को खत्म करना
नुक्कड़ नाटक बिहार के बांका में आदिवासी महिलाओं के एक समूह को, न केवल लैंगिक भेदभाव और डिजिटल विभाजन के बारे में जागरूकता बढ़ाने में मदद कर रहा है, बल्कि यह वास्तविक बदलाव लाने में भी मदद कर रहा है।
नुक्कड़ नाटक बिहार के बांका में आदिवासी महिलाओं के एक समूह को, न केवल लैंगिक भेदभाव और डिजिटल विभाजन के बारे में जागरूकता बढ़ाने में मदद कर रहा है, बल्कि यह वास्तविक बदलाव लाने में भी मदद कर रहा है।
मुनिया दर्शकों से गरजती हुई कहती हैं – “क्या महिलाएँ पुरुषों के बराबर नहीं हैं?”
मुनिया उन छह आदिवासी महिलाओं के समूह से हैं, जो बिहार के दूरदराज के गांवों में लोगों के लिए मुश्किल और कभी-कभी असहज सवाल उठाती हैं। वे शक्तिशाली हैं, उनमें आत्मविश्वास है और वे बड़ी भीड़ से घबराती नहीं।
वे उत्पीड़ितों के रंगमंच, ‘नुक्कड़ नाटक’ समूह का हिस्सा हैं। इस तरह के नुक्कड़ रंगमंच में, जो छोटी-छोटी प्रस्तुतियाँ होती हैं, यदि किसी पात्र को किसी भी तरह से उत्पीड़न का सामना करना पड़े, तो कलाकार या यहां तक कि दर्शक भी प्रदर्शन को रोक सकते हैं।
जब मुनिया दर्शकों की ओर ध्यान से देखती हैं, तो पुरुष भी सिर हिलाते हैं। दर्शकों में से एक महिला हिम्मत करके मंच पर आती है और नाटक के विषय से जुड़ी अन्याय की अपनी कहानी सुनाती है।
एक अन्य नाटिका में कहानी, समुदाय में लड़कियों के लिए फोन तक पहुँच की कमी की ओर मुड़ती है।
मधु गंभीरता से पूछती हैं – “क्या यह सही है?”
गाँव का एक बुजुर्ग ध्यानपूर्वक, उत्सुकता से भरे 100 से ज्यादा दर्शकों के सामने मंच की ओर जाता है।
नाटक से बेहद प्रभावित, यह बुजुर्ग कहते हैं – “भारत के अन्य भागों में लड़कियाँ डॉक्टर और पायलट बन रही हैं। यदि हम अपनी बेटियों को शिक्षित नहीं करेंगे और उन्हें बाहरी दुनिया से परिचित कराने वाली तकनीक तक पहुँच नहीं देंगे, तो वे पीछे रह जाएँगी। हमारे गाँव में किसी को भी लड़कियों के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए।”
दर्शकगण स्वतः ही तालियां बजाने लगते हैं, जिसमें किशोरियां सबसे जोर से तालियां बजाती हैं।
सार्वजनिक प्रस्तुतियाँ करने के खिलाफ अपने परिवारों के शुरुआती प्रतिरोध का मुकाबला करते हुए, ये निडर महिलाएँ गांवों के चौराहों, बाजारों, स्कूलों और यहां तक कि दफ्तरों में प्रदर्शन करके, नाटक-दर-नाटक बाधाओं और भेदभाव को तोड़ रही हैं।
नाटकों में अभिनय करने से मुझे बहुत आत्मविश्वास मिला। मैंने अपने पति से कहा कि मैं दुर्व्यवहार बर्दाश्त नहीं करूंगी।
घरेलू हिंसा की शिकार होने से लेकर, घर में बराबरी के अपने अधिकार का दावा करने तक, मधु ने एक लंबा सफर तय किया है।
मधु कहती हैं – “नाटकों में अभिनय करने से मुझे बहुत आत्मविश्वास मिला। मैंने अपने पति से कहा कि मैं दुर्व्यवहार बर्दाश्त नहीं करूंगी। जैसे ही मैंने अपनी आवाज़ उठानी शुरू की, तो चीज़ें अपने आप ठीक हो गई। वास्तव में, अब वह मेरा सहयोग करते हैं।”
महिलाओं के इस समूह ने, PRADAN और रिलायंस फाउंडेशन के सहयोग से, बिहार के बांका जिले के 120 से ज्यादा दूरदराज के गाँवों में जागरूकता फैलाई है। यह प्रयास उनके ‘महिला संपर्क’ कार्यक्रम का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य भारत के गाँवों में महिलाओं की डिजिटल साक्षरता में सुधार करना है।
महिलाओं के समूह की साहस और अपार इच्छाशक्ति की कहानी, दैनिक जागरण समाचारपत्र में भी छप चुकी है।
एक गाँव में घरेलू हिंसा पर किए एक नाटक के बाद, महिलाएँ एक पति को सलाह देने के लिए इकठ्ठा हुई। पत्नी कई सालों से घरेलू हिंसा का शिकार थी।
इस नाटक ने एक संवाद शुरू किया, जिसने कार्रवाई के लिए आधार तैयार किया। हस्तक्षेप के बाद, दुर्व्यवहार बंद हो गया।
मैं ज़्यादा आत्मविश्वास से बात कर सकती हूँ। बाजार में भी लोग मुझे पहचानते हैं। अब मेरी अपनी पहचान है।
समुदायों में उत्पन्न सामाजिक बदलावों के अलावा, सबसे बड़ा परिवर्तन कामकाजी आदिवासी महिलाओं और उनके परिवारों में हुआ है।
सुषमा जोर देकर कहती हैं – “मैं अब ज़्यादा आत्मविश्वास से बात कर सकती हूँ। बाज़ार में भी लोग मुझे पहचानते हैं। अब मेरी अपनी पहचान है।”
एक और कलाकार, इनार्मा ने अपने मूल्यों में बहुत बड़ा बदलाव देखा है। उनके अनुसार सबसे बड़ा बदलाव यह है कि अब वह अपनी बेटी को अपने दो बेटों के बराबर मानती हैं।
जब समूह दूसरे गाँव में एक और नाटक के लिए तैयारी करता है, मुनिया अपने गले में मांदर लटका लेती हैं, एक ऐसा वाद्य, जिसे बजाना महिलाओं के लिए वर्जित है। बहादुर महिलाएँ एक बार फिर पितृसत्ता की नींव हिलाने और एक न्यायपूर्ण दुनिया बनाने के लिए तैयार हैं।
शीर्ष पर मुख्य फोटो में महिलाओं के समूह को गाँव के दर्शकों के सामने प्रस्तुति करते हुए दिखाया गया है।
चंदन शर्मा एक स्वतंत्र सलाहकार हैं।राजेश परिदा PRADAN में एक एग्जीक्यूटिव हैं।
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