कश्मीर की भुनी हुई मछली की ‘फरी’ कथा 

श्रीनगर, जम्मू और कश्मीर

‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।

कश्मीर बर्फीले दृश्यों, फूलों से लदे घास के मैदानों, कलकल करती नदियों और शांत डल नदी एवं उससे जुड़ी झीलों से भरा पड़ा है और ये सभी चीजें वहां के लोगों के गर्मजोशी भरा आतिथ्य और 30 या उससे ज्यादा तरह के व्यंजनों वाले प्रसिद्ध ‘वाजवान’ भोज की प्रेरणा प्रदान करती हैं।

लेकिन मौसम कश्मीरी भोजन के रोजमर्रा के खास लजीज स्वरूप को आकार देता है और सर्दियों में एक नया मेला शुरू हो जाता है।

या सटीकता से कहें तो धुएं में पकी मछली, जिसे ‘फरी’ कहा जाता है।

इसे फै’रे या फेर’री भी लिखा जाता है और जिसका उच्चारण ‘फरी’ होता है, यह जली हुई और भुनी हुई मीठे पानी की मछली है, जिसे एक स्वादिष्ट व्यंजन के रूप में खाया जाता है।

लेकिन इसे एक स्वादिष्ट पूरक के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है, जिसका उपयोग स्थानीय लोग तब करते हैं, जब सर्दियों के मौसम में प्रोटीन युक्त खाद्य पदार्थ दुर्लभ हो जाते हैं।

कश्मीर का धुएं में पका व्यंजन, फरी कैसे बनाएं

फरी बनाना एक आसान प्रक्रिया लगती है, जिसमें उन शुरुआती दिनों से ज्यादा बदलाव नहीं आया है। लेकिन इसके लिए हर कदम पर विशेषज्ञता और धैर्य की जरूरत होती है।

अंचार झील से पकड़ी गई ताजा मछलियाँ शीघ्र ही धुएं में पकने के लिए तैयार (छायाकार – नासिर यूसुफ़ी)

इसकी शुरुआत सर्दी के मौसम में होती है, जब दलदली जमीन में उगने वाली ‘नार गासे’ नाम की घास को काटकर, बंडलों में घर लाया जाता है। इन्हें आंगन में सूखने के लिए बिछा दिया जाता है। इन्हें बाद में जला दिया जाएगा। यह घास मछली को उसका विशेष स्वाद देती है, जैसे मांस को धुएं में पकाने के लिए हिकॉरी।

फिर आती हैं पकड़ी हुई मछलियाँ।

55-वर्षीय मोहम्मद सुल्तान सुबह की ठंड में पैदल, प्रसिद्ध डल झील के पास स्थित अंचार झील की ओर निकल पड़ते हैं, जहां उनकी मुलाकात ऊनी पूरा फेरन पहने और मछलियाँ पकड़ते साथी मछुआरों से होती है। दोपहर तक वह ताजी मछलियों की एक टोकरी लेकर लौटते हैं।

फिर उसकी सुस्त जिंदगी बदल जाती है।

उनकी पत्नी सलीमा बड़ी मछलियों को अलग करती हैं, फिर उन्हें चीरकर उनकी आंतें निकालती हैं और उन्हें टब में साफ करती हैं। वह हर बार धोने के बाद पानी को सावधानी से बाहर निकालती हैं। इस बीच, सुल्तान सूखे नार गासे घास को एक गोलाकार में परतों में जमा कर व्यवस्थित करता है।

सुल्तान कहते हैं – “मैं युवा अवस्था से ही मछली को धुएं में पकाता आ रहा हूँ। मैंने यह कला अपने पूर्वजों से सीखी है।”

दम्पति साफ़ की गई मछली को घास पर रख देते हैं और उसमें आग जला देते हैं।

फरी के लिए कौन सी मछली का उपयोग किया जाता है?

स्नो ट्राउट पसंदीदा मछली है, जिसे स्थानीय रूप से ‘काशर गा’द’ के नाम से जाना जाता है। 

हालांकि कश्मीर की नदियों और झीलों में स्थानीय प्रजातियां पाई जाती हैं, लेकिन ट्राउट मछलियाँ 1900 से ही इस पहाड़ी क्षेत्र के ऑक्सीजन युक्त जल में पनप रही हैं, जब भारत अभी भी ब्रिटिश उपनिवेश था और पहले स्कॉटिश ट्राउट अंडे महाराजा को भेजे गए थे।

धुएं में पकाने से पहले स्थानीय ‘नार गासे’ घास के एक लंबे मंच पर सैकड़ों मछलियों को एक पैटर्न में रखा जाता है (छायाकार – नासिर यूसुफ़ी)

परिस्थितियां आदर्श होने के कारण इस मछली ने अपने नए घर को सहजता से अपना लिया।

ट्राउट केवल ठंडे, साफ बहते पानी में जीवित रहती है, और पानी के कीड़े, छोटी मछलियाँ और क्रस्टेशियन खाती है। 1980 के दशक तक, ग्लेशियरों से आए पानी से भरे मानव निर्मित तालाबों में व्यावसायिक रूप से ट्राउट पालन शुरू हो गया था।

आग के पास बैठकर फरी समय बिताना

जैसे जैसे आग की लपटें ट्राउट की चांदी जैसी त्वचा को छूती हैं, वह जलकर काली हो जाती है और उसका धुआं मछली के मांस में समा जाता है।

सुल्तान और सलीमा गड्ढे पर नज़र रखते हैं और उछलती हुई लपटों को नियंत्रित करने और अधिक धुआँ पैदा करने के लिए रह रह कर पानी छिड़कते हैं। यह घंटों तक चलता है, जब तक कि कश्मीर की यह एक विरासत, तेज धुएँदार आग और कोमल अंदरूनी भाग के साथ तैयार नहीं हो जाती।

अंत में गहरे भूरे रंग की फरी को गोल सींक से बनी ट्रे में इकट्ठा किया जाता है, जो बाजार के लिए तैयार है (छायाकार – नासिर यूसुफ़ी)

सुल्तान ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “मेरी पत्नी और बेटी मुझे धुएं से मछली पकाने और नार गासे इकट्ठा करने में मदद करती हैं।”

रुकिए, सर्दियों में मिलने वाले इस व्यंजन के लिए बाज़ार को नज़रअंदाज़ न करें। सुल्तान जो मछलियाँ पकड़ते हैं या डल झील में ट्राउट पकड़ने वाले दूसरे मछुआरों से खरीदते हैं, उन्हें धुएं में पका कर अतिरिक्त आय अर्जित करते हैं।

उनकी फरी हाथ से बुनी हुई सींक की टोकरियों में पैक की जाती हैं और बाजारों में ले जाई जाती हैं।

श्रीनगर के नवाउत बाज़ार में मछली खरीदते हुए मैमूना अख़्तर कहती हैं – “यह मेरी पसंदीदा मछली है। मेरे बच्चे भी इसे बहुत पसंद करते हैं। इसके लिए हम सर्दियों का इंतज़ार करते हैं।”

सुल्तान सहमति में सिर हिलाते हैं।

उन्होंने कहा – “गर्मियों में मांग कम हो जाती है, लेकिन सर्दियों में बहुत ज्यादा बढ़ जाती है।”

फरी का जीवन रक्षा मेले से स्वादिष्ट व्यंजन तक का सफर

जब एक परिवार सर्द दिनों में फर्श पर बिछे कपड़े, दस्तरखान पर पैर मोड़कर बैठ कर भोजन का आनंद लेता है, तो यह छुपा नहीं रहता कि कश्मीर के लोगों के लिए इनके इतिहास में, फरी जीवन रक्षक भोजन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। यह उस समय से है, जब मछलियों और सब्जियों को लंबे समय तक खाने योग्य रखने के लिए, धुएँ में पकाया जाता था या सुखाया जाता था।

श्रीनगर के सौरा में सड़क किनारे कश्मीर के पसंदीदा शीतकालीन व्यंजनों में से एक बेचती एक महिला (छायाकार – नासिर यूसुफ़ी)

कश्मीरी रसोइयों ने इस किफायती भोजन को स्वादिष्ट व्यंजन के स्तर तक पहुंचा दिया है।

आज ताजा खाद्य पदार्थ आसानी से उपलब्ध हैं, लेकिन लोग अब भी ‘हाख’ (कोलार्ड हरा साग), टमाटर, मूली, कमल ककड़ी या सूखे बैंगन के साथ पकाई गई फरी पसंद करते हैं।

श्रीनगर के सरायबाला बाजार में धुएं में पकी मछली खरीदते हुए तस्लीमा कहती हैं – “कल एक मित्र मिलने आ रहे हैं। हम उनके लिए सर्दियों का व्यंजन फरी हाख बनाएंगे। वह पश्चिम एशिया से दो साल बाद घर आया है। मैं जली हुई त्वचा को हटा दूंगी, मछली को अच्छी तरह से साफ करूंगी और मसालों और हाख के मिश्रण में पकाऊंगी।”

यह सुखदायक पुराना पसंदीदा व्यंजन इतना स्वादिष्ट है कि इसे खाने वाले अधिकांश लोग इसके आदी हो जाते हैं और अपने ‘फ़ेअर’ हिस्से से ज्यादा की मांग करते हैं।

शीर्ष की मुख्य फोटो में मछलियों को आंशिक रूप से धुएं में भुनते दिखाया गया है और आग की लपटें उठ रही हैं जो हर भोजन प्रेमी की लजीज इच्छा को बढ़ाती हैं (छायाकार – नासिर यूसुफ़ी)

नासिर यूसुफ़ी श्रीनगर स्थित पत्रकार हैं।