मजदूरों के अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाला एक ग्रामीण, जिसे जीवन यापन के लिए कई काम करने पड़ते हैं, एक विकास प्रबंधन छात्र को साहसी और न्यायपूर्ण होने के लिए प्रेरित करता है। शीर्ष तस्वीर में फील्ड विजिट के दौरान ग्रिष्मा और उनकी मित्र को दिखाया गया है।
सुशील दिहाड़ी मजदूर हैं। मैं अपने दोस्तों के साथ दरियापुर पट्टी गांव की संकरी गलियों में घूमते हुए उनसे मिली थी। वह अपने घर के बाहर बैठे अखबार पढ़ रहे थे। उन्होंने हमारी टीम को उत्सुकता से देखा। तो मैं उनके साथ बातचीत करने के लिए रुक गई।
मुझे पता चला कि वह अपने परिवार का सबसे बड़ा और अपने पिता की चौथी पत्नी का बेटा था। उनकी चार बहनें हैं और एक छोटा भाई है, जो कन्नौज में डॉक्टर है। उनके पिता बांस की टोकरी बुनने वाले एक मजदूर थे। संघर्षों से भरा सुशील का बचपन गरीबी में बीता।
उन्होंने अपने गांव के एकमात्र स्कूल से पांचवीं तक की पढ़ाई की और कन्नौज में माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने खेतों और निर्माण स्थलों पर एक बाल मजदूर के रूप में काम किया और अपनी कमाई से परिवार के भरण-पोषण में मदद की।
कठिनाइयों के बावजूद और एक एग्रो-प्रोडक्ट कंपनी की अपनी नौकरी को जोखिम में डालकर, उन्होंने मजदूरों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाई। जीवन यापन के लिए अब वह जो कुछ भी कर सकता है, करता है।
काम के अधिक घंटे और कम वेतन
शाम 4 बजे से सुबह 8 बजे तक 16 घंटे काम करने के बाद, उन्हें मजदूरी के 2,600 रुपये मिलते थे।
अपने समर्पण और कार्य-नैतिकता के कारण, तीन महीने बाद उन्हें 3,000 रुपये के वेतन के साथ वेतन रसीद लेखाकार के रूप में पदोन्नत कर दिया गया। लेकिन क्योंकि उनके परिवार के गुजारे के लिए इतना पैसा काफी नहीं था, इसलिए सुशील एक निर्माण स्थल पर काम करने लगे।
इसके अलावा उन्होंने कर्ज लेकर गांव में आटा चक्की खरीदी और रात सुबह 2.30 बजे से 7 बजे तक गेहूं पीसने लगे। इसके बाद वह सुबह 10 बजे एक कोल्ड स्टोरेज में जाते, जहां वह शाम 5 बजे तक या कभी कभी उससे भी आगे तक काम करते थे। लेकिन 8 घंटे से ज्यादा काम करने पर, कोई अतिरिक्त मजदूरी नहीं दी जाती थी।
मजदूरों के अधिकारों की लड़ाई
सुशील ने आवाज उठाई और कंपनी मालिक से मजदूरों के इस तरह के शोषण की कई शिकायतें की। कड़ी मेहनत के तीन साल और निकल गए, तब कंपनी ने उन्हें बिल अकाउंटेंट के रूप में पदोन्नत किया। उन्होंने फिर अनुभव किया और देखा कि रविवार और त्योहारों के दिन मजदूरों को छुट्टी नहीं दी जाती। डबल शिफ्ट में भी कोई अतिरिक्त मजदूरी नहीं मिलती थी।
सुशील ने फिर शिकायत की, लेकिन उन्होंने इन्हें गंभीरता से नहीं लिया। पद खाली होने पर सुशील ने अकाउंटेंट के लिए आवेदन किया। उन्होंने परीक्षा पास की और इंटरव्यू में भी सफलता हासिल कर ली। वहां काम करने के सात साल बाद वह एक स्थायी पंजीकृत कर्मचारी बन गए। हालांकि आधिकारिक तौर पर उनका वेतन बढ़ाकर 8,000 रुपये कर दिया गया था, लेकिन उन्हें 3,500 रुपये का भुगतान किया जाता रहा।
कंपनी मजदूरों से कोरे कागजों पर हस्ताक्षर करवा कर उनके नाम से डेबिट वाउचर बनवा लेती थी। इस बार बात सुशील की बर्दाश्त के बाहर हो गई। उन्होंने सभी मजदूरों को अड़ जाने और इस व्यवहार को बर्दाश्त न करने के लिए राजी कर लिया। मालिक ने सुशील को निकाल दिया और उसे विरोध के लिए जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने मजदूरों के खिलाफ सिविल कोर्ट में मुकदमा तक दायर कर दिया।
हालांकि सुशील की नौकरी चली गई, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और कंपनी के सभी मजदूरों के लिए न्याय की लड़ाई लड़ते रहे।
विभिन्न नौकरियां और बेहतर कल के सपने
अपनी मुख्य आजीविका खो देने के बाद, सुशील ने कुछ ऋण लेकर थोड़ी सी जमीन खरीदी और आलू और मक्का उगाना शुरू किया। वह अपने पशुओं का दूध बेचते हैं, सुबह गेहूं का आटा बेचते हैं और दिन के बाकी समय में दिहाड़ी मजदूरी की तलाश करते हैं। वह अपने आत्म-सम्मान को बरक़रार रखने के लिए सुनिश्चित करते हैं कि उनके ऋण का समय पर भुगतान हो और समय पर कर्ज का नवीनीकरण हो सके।
सुशील ने कहा – “आज की दुनिया में जीवित रहने के लिए आवाज, साहस और उम्मीद, ये तीन महत्वपूर्ण तत्व हैं।”
सुशील का मानना है कि महिलाएं और युवा हमारे देश के लिए बदलाव-सूत्र हैं। उन्होंने घरेलू हिंसा के मामले में अपनी बहन के लिए 11 साल तक लड़ाई लड़ी और यह सुनिश्चित किया कि उसके ससुराल वालों को जेल और सजा मिले।
वह अपनी बेटी को डॉक्टर बनने और देश की सेवा करने के लिए प्रेरित करते हैं और बेटे के लिए चाहते हैं कि वह भारतीय सेना में शामिल हो।
उनकी प्रेरणा का सबसे बड़ा स्रोत उनकी पत्नी हैं, जिन्होंने अनेक कठिनाइयों के बावजूद उनको सहयोग देना जारी रखा है।
सुशील ने मुझे दुनिया में हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया है।
उन्होंने मुझे विश्वास दिलाया है कि यदि हम साहसी और मेहनती बनने के लिए तैयार हैं, तो यह हमारे देश के लिए उम्मीद की बात है।
इस पृष्ठ के शीर्ष पर मुख्य छवि ग्रिशमा काजबजे और उसकी सहेली को फील्ड विजिट के दौरान दिखाती है (फोटो ग्रिशमा काजबजे के सौजन्य से)
ग्रिष्मा कजबजे ‘इंडियन स्कूल ऑफ डेवलपमेंट मैनेजमेंट’ में स्नातकोत्तर छात्रा हैं।
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