पर्यटकों की कमी से जूझते गोवा के ग्रामीण
मानो COVID महामारी काफी बुरी नहीं थी, रूसी युद्ध ने गोवा के पर्यटन को एक जोरदार झटका दिया है, जिससे पर्यटन पर निर्भर ग्रामीणों को आय के नए साधन खोजने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
मानो COVID महामारी काफी बुरी नहीं थी, रूसी युद्ध ने गोवा के पर्यटन को एक जोरदार झटका दिया है, जिससे पर्यटन पर निर्भर ग्रामीणों को आय के नए साधन खोजने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
मानो COVID महामारी काफी बुरी नहीं थी, रूसी युद्ध ने गोवा के पर्यटन को एक जोरदार झटका दिया है, जिससे पर्यटन पर निर्भर ग्रामीणों को आय के नए साधन खोजने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
गोवा के समुद्र और झीलों में तैरने वाले पर्यटकों की भीड़, कैफे और कपड़ों की दुकानों से भरी इसकी छोटी-छोटी गलियों में घूमना अब कम हो गया है। और उनके जाने के साथ ही, आस-पास के गाँवों के लोगों की आजीविका भी चली गई, जो पूरी तरह से पर्यटकों, विशेष रूप से रूसियों पर निर्भर है।
अरम्बोल निवासी नीलेश नाईक 2001 से एक फलता-फूलता गेस्ट हाउस चला रहे हैं। आज यह खाली है। और कुछ पर्यटक जो वहां आते हैं, वे असली किराए का एक अंश ही देना चाहते हैं।
नायक कहते हैं – “मेरे सात पूरी तरह से सुसज्जित कमरे हैं, जो पिछले दो वर्षों से बंद पड़े हैं। मुझे 2021 में ठीक तीन दिनों के लिए ग्राहक मिले। पर्यटक प्रति रात सिर्फ 300 रुपये देना चाहते हैं।”
गोवा के पर्यटन उद्योग पर महामारी और उसके कारण हुए लॉकडाउन के प्रभाव को समझा जा सकता है। लेकिन किसने सोचा होगा कि यूक्रेन के खिलाफ रूसी युद्ध, गोवा के ग्रामीणों की आजीविका को भी प्रभावित करेगा?
गोवा, जहां आम तौर पर रूस से 3 से 4 लाख और यूक्रेन से लगभग 40,000 पर्यटक आते हैं, में उन की संख्या में भारी कमी देखी गई है।
अब रूस से 10 दिन में केवल एक चार्टर्ड उड़ान और कजाकिस्तान से सप्ताह में एक उड़ान चल रही है।
और स्वाभाविक रूप से, इस पूरे सीजन में यूक्रेन से कोई उड़ान नहीं आई है।
मोरजिम गांव को वहां रहने वाले रूसी प्रवासियों और आने वाले रूसी पर्यटकों के कारण ‘लिटिल रूस’ भी कहा जाता है।
अरम्बोल, क्वेरिम उर्फ केरी, मंड्रेम, अंजुना और मोरजिम गाँव उत्तरी गोवा में स्थित हैं, जहाँ पूरी तरह रूसी लोगों को सेवाएं प्रदान करने के लिए बने परिदृश्य मिलना हैरानी की बात नहीं है।
भोजनालयों, शराबखानों और दुकानों के नाम, यहाँ तक कि शराबखानों की सूची, रूसी भाषा में हैं। आखिर बहुत कम रूसी अंग्रेजी पढ़ सकते हैं, हालांकि वे अंग्रेजी भाषा समझ सकते हैं।
ग्रामीण अपने स्थान रूसी पर्यटकों को लीज पर या किराए पर देना पसंद करते थे, क्योंकि वे अपना ज्यादातर समय समुद्र तट पर बिताते थे और परिसर का उपयोग बहुत कम करते थे। इसका मतलब था कम टूट-फूट, कम पानी का उपयोग यानी रखरखाव का कम खर्च।
अरम्बोल परम्परागत रूप से एक मछुआरों का गांव रहा है, जिसकी अर्थव्यवस्था लगभग पूरी तरह से पर्यटन पर टिकी हुई है और मछली पकड़ने का काम ज्यादातर घरेलू उपयोग के लिए किया जाता है।
अब इन समुद्र तटों पर केवल गाँव के मछुआरे ही दिखाई देते हैं, जो लहरों के उतरने के साथ गीली रेत में कीचड़ की मछलियाँ पकड़ते हैं और आवारा कुत्ते बेफिक्री से मस्ती करते हैं।
काफी हद तक क्वेरिम की तरह, अरम्बोल ने भी रूसी पर्यटकों के लिए अपने गांव के घरों को तैयार किया था। मालिक अपने परिसर दूसरे राज्यों के गैर-गोवाइयों को लीज पर देते हैं, जो इन्हें चलाते हैं।
अब रूसी पर्यटकों के बिना, मोर्जिम के ग्रामीणों के लिए संपत्ति या वाहन किराए पर दे कर कमाई करने का मौका बहुत कम है।
अपनी संपत्ति पर शराब की दुकान चलाने वाले प्रदीप पालेकर कहते हैं – “अधिकांश स्थानीय लोगों को अच्छे सौदे नहीं मिल रहे हैं। इसलिए वे अपनी संपत्ति किराए पर नहीं दे रहे हैं। वे अपना खुद का व्यवसाय कर रहे हैं, चाहे वह कितना भी साधारण हो।”
टैक्सी ड्राइवर देवीदास नाइक के पास दो टैक्सियां हैं, दोनों कर्ज पर खरीदी गई थी।
वह कहते हैं – ‘बैंकों ने कर्ज माफ करने का वादा किया था, लेकिन बाद में मुकर गए। कोई विदेशी पर्यटक हैं नहीं। मुझे स्थानीय लोगों के लिए छोटी दूरियों की सवारियाँ मिल रही हैं। इसलिए मुझे बहुत कम फायदा होता है।
घरों और वाहनों के चढ़ रहे ऋण के दबाव को झेलते हुए, ग्रामीणों को जीवित रहने के लिए तरीके खोजने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
पर्यटन क्षेत्र में काम करने वाले अरम्बोल के ग्रामीण, आमतौर पर केवल अपने परिवारों के भोजन के लिए मछली पकड़ते हैं। लेकिन अब उन्हें पकड़ी गई मछलियों को पैसा कमाने के लिए बेचना पड़ रहा है।
अरम्बोल, पलियेम, क्वेरिम और मोरजिम गाँवों के लोग, जो अपनी संपत्ति और वाहन किराए पर देकर संपन्न हुए थे, अब पर्यटकों के लगभग पूर्ण अभाव में, बढ़ते ऋण और बिलों का भुगतान करने के लिए विकल्प तलाश रहे हैं।
महामारी पलायन के समय स्वदेश लौटने वाले ज्यादातर विदेशी गोवावासियों की तरह, अरम्बोल के बाबू बंकर ने वापस लौटने पर महसूस किया कि कोई काम नहीं है। और जो काम उपलब्ध था, उसके लिए उनके पास जरूरी योग्यताएँ नहीं थी। आज वह एक सब्जी की दुकान चलाते हैं।
वह कहते हैं – “पर्यटन कम होने के साथ, मेरे पास सब्जियां बेचने के अलावा और कुछ करने के लिए नहीं बचा है।” अभी तो वह लाभ कमाने के बारे में चिंतित नहीं हैं। यदि उन्हें नुकसान नहीं होता है, तो वह खुश होंगे।
जहां कुछ लोग सरकार का गोवावासियों की इस मुश्किल समय में और मदद करने के लिए आह्वान कर रहे हैं, वहीं अरम्बोल के पास जनरल स्टोर चलाने वाले उदय पालेकर जैसे अन्य लोग इससे असहमत हैं।
वह कहते हैं – “यह समय है कि स्थानीय लोग आत्मनिर्भर होना सीखें और पर्यटकों या सरकार पर निर्भर रहना बंद कर दें।”
इस लेख के शीर्ष पर मुख्य फोटो में मीठे पानी की झील का सुनसान रास्ता दिखाया गया है, जो आमतौर पर पर्यटकों से भरी रहती है (छायाकार – गजानन खेरगामकर)
गजानन खेरगामकर मुंबई स्थित एक स्वतंत्र लेखक, वकील और फिल्म निर्माता हैं।
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