दुनिया का जमीन पर सबसे तेज़ दौड़ने वाला जानवर भारत वापस आ रहा है, क्योंकि चीता को उपमहाद्वीप में फिर से लाने की एक महत्वाकांक्षी योजना पर काम हो रहा है। विलेज स्क्वेयर ने इस मिशन के पीछे के व्यक्ति से बात की।
अत्यधिक शिकार, मानव अतिक्रमण और बीमारी के प्रति संवेदनशीलता के कारण, 1952 में चीतों को आधिकारिक तौर पर विलुप्त घोषित कर दिया गया था।
अब दुनिया के जमीन पर सबसे तेज़ जानवर को भारत में दोबारा लाने की महत्वाकांक्षी योजना पर काम चल रहा है। पृथ्वी पर कुछ ही एशियाई चीते बचे हैं, जो ज्यादातर ईरान में हैं। ऐसे में नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से अफ्रीकी चीते मध्य प्रदेश के ‘कूनो राष्ट्रीय उद्यान’ में लाए जा रहे हैं।
यह योजना एमके रंजीतसिंह का आजीवन सपना रही है। विलेज स्क्वेयर ने इन सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी से मुलाकात की, जो 1972 में भारत के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के मुख्य वास्तुकार थे और आज चीता को दोबारा लाने के लिए गठित ‘चीता टास्क फोर्स’ का हिस्सा हैं।
चीतों को भारत वापस लाने की यह महत्वाकांक्षी योजना शुरू कब हुई?
रणजीतसिंह: वर्ष 1947-48 में, जब मैं लगभग 10 साल का था, तो मैंने चीतों के विलुप्त होने के बारे में सुना और यह बहुत दुखद घटना थी। यह मेरा सपना बन गया कि उन्हें भारत वापस लाया जाये।’ यह वास्तव में वहीं से शुरू हुआ।
1972 में ‘वन्यजीव अधिनियम’ लागू होने से काफी पहले 1950 के दशक में, चीता विलुप्त हो गया था। ‘वन्यजीव संरक्षण अधिनियम’ तैयार करने के समय, मैंने चीता को एक संरक्षित प्रजाति के रूप में रखा था, हालांकि आधिकारिक तौर पर इसे विलुप्त घोषित कर दिया गया था। फिर शुरू हुआ चीते को हासिल करने की कोशिश का सिलसिला। मुझे तत्कालीन प्रधान मंत्री, इंदिरा गांधी की स्वीकृति प्राप्त थी, जिनकी इस विचार में रुचि थी और इसका समर्थन करती थीं। लेकिन उस समय, चीतों को शेरों से बदलने का विचार था। हमारे पास लगभग 300 शेर थे और उनके पास 275 चीते थे।
हमने ईरान के साथ बातचीत की थी और हम इस बात पर सहमत हो गए थे कि इसे किया जाएगा, लेकिन हम उस समय चीतों को लेने के लिए तैयार नहीं थे। इसके बाद मैं ‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम’ में काम करने के लिए चला गया और श्रीमती गांधी की सत्ता चली गई और उसके बाद संख्या कम हो गई।
मैं 1981 में मध्य प्रदेश में कूनो गया और वहां रहने की जगह की समानता देखकर दंग रह गया। ग्वालियर के शासक ने 1920 के दशक में इसे शेरों और चीतों के लिए बेहद उपयुक्त क्षेत्र के रूप में चुना था। मैंने 1981 में कूनो को एक अभयारण्य घोषित किया। जब मैं 1985 में भारतीय वन्यजीव संस्थान का निदेशक बना, तो मैंने चीते को फिर से लाने की कोशिश की, लेकिन संख्या कम हो गई थी और ईरान में संरक्षण पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा था।
इसके बाद मैं रिटायर हो गया, लेकिन चीता को वापस लाने की इच्छा बनी रही और सरकार ने इसका समर्थन किया। मुझे पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित टास्क फोर्स का अध्यक्ष बना दिया गया। हमने बीकानेर के पास दुनिया के सभी प्रमुख चीता विशेषज्ञों से मुलाकात की।
हमारे पास भारत के विभिन्न स्थानों पर हुए सर्वेक्षण थे। व्यवहार्यता और संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए कूनो को सबसे उपयुक्त स्थान के रूप में चुना गया। यह शेर और चीते दोनों के लिए उपयुक्त था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट से आदेश आया कि चीतों की जगह शेरों को वहां रखा जाना चाहिए। इसलिए प्रयास और संरक्षण जरूरी था और कुनो पर ध्यान और फोकस तब तक के लिए बिगड़ गया, जब तक कि सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2020 में अपने आदेश को पलट नहीं दिया, जिसमें कहा गया था कि चीता भारत और कूनो में आ सकता है। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के मार्गदर्शन और निगरानी के लिए विशेषज्ञों की अध्यक्षता में एक समिति की स्थापना की गई। समिति ने काम करना शुरू कर दिया और समय-समय पर मंत्रालय को रिपोर्ट भेजती रही।
चीतों को दोबारा लाने की प्रक्रिया कैसे काम करती है?
रणजीतसिंह: भारतीय वन्यजीवन संस्थान ने भी 2013 में चीते को दोबारा लाकर रखने के लिए ‘कूनो राष्ट्रीय उद्यान’ को चुना था। किसी भी मांसाहारी जानवर को रखने के लिए एक पद्धति है, जिसके अंतर्गत आप पहले छोटी प्रजातियों को लाते हैं और जब ये स्थापित हो जाती हैं, तो आप बड़े जानवरों को ला सकते हैं। यह वह पद्धति है, जब दो प्रजातियों को लाया जाना है।
दूसरे आप उन्हें यूं ही खुला न छोड़ देते हैं। सबसे पहले उन्हें भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप ढालना और स्थापित करना होगा, क्योंकि वे डरे हुए होते हैं और बाहर भागने की कोशिश कर सकते हैं। उन्हें ‘होल्डिंग एनक्लोजर’ में रखा जाता है, जो बड़े होते हैं और आधे किलोमीटर या उससे ज्यादा दूर तक फैले होते हैं। कूनो नेशनल पार्क में ये बना दिए गए हैं।
साझेदारी की एक किस्म को ‘सिबलिंग कोएलिशन (भाई-बहनों का गठजोड़)’ कहा जाता है। दो या तीन भाई-बहन एक समूह या गठजोड़ बनाते हैं और एक साथ शिकार करते हैं। इससे उन्हें शिकार में ज्यादा सफलता मिलती है और सुरक्षा की भावना पैदा होती है। उन्हें कितने समय तक बाड़ों में रखा जाए, इसके लिए कोई ठोस नियम नहीं है। यह जलवायु, पर्यावरण और अन्य तत्वों के प्रति उनकी अनुकूलनशीलता के आधार पर, एक जानवर पर निर्भर करता है।
हमारे पास दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया से दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञ होंगे। दक्षिण अफ्रीकियों का कहना है कि चीतों को रखने की उनकी क्षमता समाप्त हो चुकी है और वे अब और चीते नहीं रख सकते। वे हमारा मार्गदर्शन करने और टेक्नोलॉजी का हस्तांतरण करने के लिए वहां मौजूद रहेंगे।
क्या दूसरों को समझाना आसान था?
भारत में यह मानसिकता है कि चीता पूरी तरह से घास के मैदान का जानवर है, लेकिन यदि आप दक्षिण अफ्रीका की सफलता का अनुपात देखें, तो आपको यह जानकर हैरानी होगी कि सबसे सफल पुनर्वास कूनो से भी ज्यादा घने जंगल में हुआ है। यह घास के मैदानों और झाड़ियों का मिश्रण है, जिसे घास के “मैदान-वन मोज़ेक” कहा जाता है।
जब विशेषज्ञों ने भारत में जगहों को देखा तो उन्होंने कहा कि कूनो एक आदर्श स्थान होगा। राजस्थान में मुकुंदरा जैसा दूसरा क्षेत्र भी है, जो अर्द्ध-बंदी वातावरण में चीता प्रजनन के लिए एक बेहतरीन स्थान होगा। यह 80 वर्ग कि.मी. में फैला हुआ है और अपने आप में एक छोटा अभयारण्य है। मध्य प्रदेश में नौरादेही वन्यजीव अभयारण्य जैसे अन्य स्थान भी हैं, जिन पर विचार किया जा रहा है।
हमने न केवल चीता परियोजना से, बल्कि बाघ और हिम तेंदुए की परियोजनाओं से भी सीखा है कि एक शीर्ष शिकारी को लाने का व्यापक प्रभाव पड़ता है। इससे आवास की बेहतर सुरक्षा होती है, जो सबसे महत्वपूर्ण है। चीतों को वापस लाने से न सिर्फ चीतों के लिए, बल्कि शिकार की जाने वाली प्रजातियों के लिए भी आवास का निर्माण और संरक्षण हुआ है।
चीतों के दोबारा आने के कारण कूनो राष्ट्रीय उद्यान में शानदार सुधार देखा गया है। शीर्ष शिकारियों को लाने के कारण, एक आवास या आवासों की एक श्रृंखला का सुधार किया जा सकता है।
संरक्षण स्थिति और ध्यान केंद्रित होने के कारण, वन्यजीव को आरक्षित वन के मुकाबले किसी परियोजना या अभयारण्य या संरक्षण केंद्र में होने पर अधिक संरक्षण मिलता है और उन पर ध्यान दिया जाता है।
शेरों के लिए शुरू किया गया गांवों का पुनर्वास और पुनर्स्थापन, चीतों के लिए भी जारी रहा। कूनो क्षेत्र के दक्षिण में 24 गाँव थे। वे अब क्षेत्र के बाहर बहुत अच्छी तरह से बस गए हैं और मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं।
भारत में वन्यजीव संरक्षण में आपके व्यापक अनुभव को देखते हुए, आप चीता परियोजना के महत्व को कहाँ रखते हैं?
रणजीतसिंह : भारत की नौकरशाही ‘परियोजना प्रणाली’ में बेहतर काम करती है। भारत में संरक्षण का मुख्य सार राजनीतिक इच्छाशक्ति है। हमारे जैसे लोकतंत्र में जब तक ऐसा नहीं होगा, निजी स्तर पर किए गए अलग-अलग प्रयास काम नहीं करेंगे। यदि प्रतिबद्धता ऊपर से हो, तो यह चीजों को बहुत आसान और प्रभावी बना देता है।
चीता दोबारा लाने के काम के अंतर्गत हम कीमती सबक सीख सकते हैं। चीता दोबारा लाने की प्रक्रिया के गुप्त और प्रत्यक्ष दोनों तरह के प्रभाव हैं। जहां तक प्रत्यक्ष प्रभाव का सवाल है, इससे विभिन्न आवासों के संरक्षण को बढ़ावा मिलेगा। लोग बाघ और हिम तेंदुओं को देखने जाते हैं, न कि कुदरत को। वे भेड़ और पहाड़ी बकरी देखने के लिए पहाड़ों पर नहीं जाते हैं, बल्कि हिम तेंदुओं के संरक्षण से उन्हें भी काफी मदद मिलती है। यही वह व्यापक प्रभाव है, जिसके बारे में मैं बात कर रहा हूँ। चीतों, बाघों और हिम तेंदुओं के संरक्षण से पूरे शिकार पारिस्थितिकी तंत्र को भी लाभ होता है।
गंगा की डॉल्फ़िन को ‘राष्ट्रीय जलीय जीव’ घोषित किये जाने के बाद, हमारी नदियों के संरक्षण की ओर भी ध्यान गया है।
गुप्त प्रभावों में यह शामिल है कि हम किसी प्रजाति का मूल्य समझेंगे। भारत में हमारे सामने भूख, गरीबी, आदि जैसे कई मुद्दे हैं। लेकिन आजादी के बाद से हमने चीते को छोड़कर भारत से बड़े स्तनपायी जीवों की एक भी प्रजाति नहीं खोई है। मेरा मानना है कि भारत में चीते इसलिए विलुप्त हो गए, क्योंकि हम नहीं जानते थे कि उन्हें कैसे बचाया जाए।
‘क्लोनिंग’ जैसे प्रयास चल रहे हैं, लेकिन वे महंगे हैं और अभी भी प्रयोग स्तर पर हैं। दोबारा लाने के प्रयास से पता चलता है कि प्रजातियाँ मायने रखती हैं। वे इस देश की मानव निर्मित विरासतों जितनी ही महत्वपूर्ण हैं।
इस लेख के शीर्ष पर मुख्य छवि मध्य प्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में चीता की है, जिसे चीतों को फिर से लाने के लिए आदर्श स्थल के रूप में चुना गया है।
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