‘डेवलपमेंट इंटेलिजेंस यूनिट’ (DIU) के एक नए सर्वेक्षण से पता चलता है कि मोटापा एक तेजी से विकसित होती समस्या है, खासतौर पर ग्रामीण भारत में, और इससे नीतियों और जागरूकता अभियानों के माध्यम से निपटने की जरूरत है।
तीस साल पहले, मोटापे को सार्वजनिक स्वास्थ्य का मुद्दा नहीं माना जाता था। 1990 के दशक तक भी, मोटापे को केवल पश्चिमी देशों के सरोकार के रूप में देखा जाता था, जबकि अल्पपोषण या कुपोषण भारत जैसे विकासशील देशों के लिए एक बड़ी समस्या थी।
लेकिन सच्चाई यह है कि विश्व स्तर पर मोटापा और ज्यादा वजन की समस्या वृद्धि पर है, क्योंकि दुनिया भर में लोग ज्यादा वजन या मोटापे से जूझ रहे हैं।
विश्व बैंक में पोषण की वैश्विक प्रमुख, डॉ. मीरा शेखर के अनुसार, पिछले कुछ दशकों में मोटापा कम से कम तीन गुना बढ़ गया है।
आज दुनिया भर में 44% वयस्क या तो अधिक वजन वाले हैं या मोटापे से ग्रस्त हैं और पांच साल से कम उम्र के मोटापे या अधिक वजन वाले बच्चों का लगभग 80%, दुनिया की निम्न और मध्यम आय वाली अर्थव्यवस्थाओं में रहते हैं, जिनमें भारत भी शामिल है।
समस्या जितनी कोई सोचता है या स्वीकार करना चाहता है, उससे कहीं ज्यादा करीब है।
मोटापा सिर्फ एक वैश्विक समस्या नहीं है – यह एक भारतीय समस्या है
पांचवें ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) के निष्कर्षों के अनुसार, 33 राज्यों ने चौथेNFHS परिणामों के बाद से 0-5 वर्ष की आयु के बच्चों में मोटापे में वृद्धि दर्ज की है [NFHS-4 में 2.1% से बढ़कर NFHS-5 में 3.4% हो गया है] .
वयस्कों में यह समस्या और भी गंभीर है।
परम्परागत रूप से, कम घूमने-फिरने की जीवनशैली का मतलब है कि ग्रामीण भारत की तुलना में शहरी भारत में मोटापा ज्यादा है।
क्योंकि कामकाजी महिलाएँ ज्यादा हैं, इसलिए भोजन पकाने के लिए कम समय मिलता है।
फिर भी 15-49 वर्ष की ग्रामीण महिलाओं में मोटापा NFHS-4 के 15% से बढ़कर NFHS-5 में 19.7% हो गया है, और ग्रामीण पुरुषों में मोटापा NFHS-4 के 14.3% से बढ़कर NFHS-5 में 19.3% हो गया है।
अधिक कामकाजी महिलाएं मतलब, पारिवारिक आहार में बदलाव
शेखर आगे कहती हैं कि इस बढ़ती समस्या के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं, लेकिन ज्यादातर जीवनशैली में बदलाव के कारण लोगों के लिए स्वस्थ-भोजन व्यवस्थाओं तक पहुँच कठिन हो रही है।
निम्न और मध्यम आय वाले देशों को अपनी खाद्य व्यवस्थाओं में सुधार करने की जरूरत है। नीति निर्माताओं को इस तथ्य को पहचानने की जरूरत है कि ज्यादा से ज्यादा महिलाएं अब काम करने के लिए बाहर जा रही हैं, जो अपने आप में एक अच्छी बात है।
लेकिन इसका मतलब यह भी है कि घर पर भोजन पकाने के लिए समय मिलता है।
इससे स्वस्थ खाद्य पदार्थों का स्थान हानिकारक खाद्य पदार्थों या स्नैक्स द्वारा ले लिया जाता है, विशेषकर बच्चों और किशोरों के भोजन में, जो आमतौर पर अपने लिए खाना नहीं बनाते हैं।
आंकड़ों से भारत की फास्ट-फूड आदतों की पड़ताल
इसे गहराई से जानने के लिए, नवगठित ‘डेवलपमेंट इंटेलिजेंस यूनिट’ (DIU) ने टेलीफोन से एक अखिल भारतीय (ग्रामीण) सर्वेक्षण किया है, जिसमें 10-19 वर्ष की आयु के 4,174 किशोर लड़के और लड़कियों को शामिल किया गया है (10-14 वर्ष के 2,117 और 15-19 वर्ष के 2,057)।
DIU अपनी ‘रूरल थिंक-इनसाइट्स’ श्रृंखला के अंतर्गत ‘सम्बोधि पैनल्स’ और ‘ट्रांसफॉर्मिंग रूरल इंडिया फाउंडेशन’ के अंतर्गत एक तालमेल है। सर्वेक्षण में विशेष रूप से ग्रामीण किशोरों द्वारा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक (जंक) भोजन की खपत की दर, खरीद के स्रोत और खाने के स्थान को देखा गया।
किशोरों के बीच सबसे ज्यादा खाया जाने वाला फास्ट फूड आइटम भारत की नई नमकीन, “चिप्स” है, जिसमें आलू या मकई के चिप्स से लेकर चावल, दाल और मकई से बने “पफकॉर्न” स्नैक्स, जैसे कुरकुरे या मैड एंगल्स शामिल हैं।
सर्वेक्षण में शामिल लोगों के भारी बहुमत, 87% का कहना था कि उन्होंने पिछले 7 दिनों में तीन बार इस तरह का नाश्ता खाया है।
इसके बाद बिस्कुट (आमतौर पर आटे से बने) आते हैं, जिनका हर चार किशोरों में से तीन ने पिछले 7 दिनों में लगभग 3.5 बार सेवन किया।
आम धारणा के विपरीत, लगभग 30% किशोरों द्वारा सप्ताह में लगभग दो बार कार्बोनेटेड और गैर-कार्बोनेटेड (स्थानीय) शीतल पेय का भी सेवन किया जाता है।
हालांकि स्लाइस ब्रेड (आमतौर पर आटे की) अभी भी ग्रामीण भोजन में प्रमुख रूप से प्रवेश नहीं कर पाई है, लेकिन हैरानी की बात है कि 40% से ज्यादा किशोर इंस्टेंट नूडल्स खाते हैं, जिससे लगता है कि इसने ग्रामीण भारत में वैकल्पिक नाश्ते के रूप में भारी पैठ बना ली है। पिछले 7 दिनों में इसका करीब दो बार सेवन किया गया।
नमकीन ही नहीं, मिठाइयाँ भी
चीनी से बनी मीठी वस्तुएं – चाहे वह पारम्परिक मिठाइयाँ हों, चॉकलेट, कैंडी या आइसक्रीम- पिछले 7 दिनों में हर दो किशोरों में से एक द्वारा लगभग 2-3 बार खाया जा रहा था।
आम धारणा के विपरीत, लगभग 30% किशोरों द्वारा सप्ताह में लगभग दो बार कार्बोनेटेड और गैर-कार्बोनेटेड (स्थानीय) शीतल पेय का भी सेवन किया जाता है।
ग्रामीण लोग जंक फूड कहां से ले और खा रहे हैं?
खपत की मात्रा के अलावा, खरीद और खपत के स्रोत को प्रस्तुत करना भी महत्वपूर्ण है।
सर्वेक्षण में पता चला कि इन सभी तरह के फास्ट फूड के लिए, घर प्राप्त करने का प्राथमिक स्रोत है, जहां किशोरों को यह वस्तु दी गई थी।
बिस्कुट, इंस्टेंट नूडल्स, स्लाइस ब्रेड, चिप्स जैसी नमकीन, कैंडी और आइसक्रीम भी स्थानीय स्टोर से या ठेले वाले से 10-45% के अनुपात में खरीदे जाते थे।
कुछ कम सीमा तक, शीतल पेय और मिठाइयाँ दोस्तों या परिवारों के घरों में पेश की जाती हैं और वहाँ खाई भी जाती हैं।
क्योंकि घर उपभोग का एक प्रमुख बिंदु है, माता-पिता को लक्षित करके एक केंद्रित जागरूकता अभियान चलाया जाना एक संभावित तरीका है।
जहां तक उपभोग के स्थान का प्रश्न है, 7 फास्ट फूड वस्तुओं में से 4 के खाने का बड़ा हिस्सा घर है।
नमकीन का सेवन स्कूल या घर के अंदर और बाहर दोनों जगह किया जाता है। मीठे शीतल पेय और चॉकलेट/कैंडी/आइसक्रीम, रिपोर्ट में सभी के लिए समान रुझान देखने को मिला।
क्योंकि घर उपभोग का एक प्रमुख बिंदु है, माता-पिता को लक्षित करके एक केंद्रित जागरूकता अभियान चलाया जाना एक संभावित तरीका है।
मोटापे की समस्या सिर्फ एक व्यक्तिगत समस्या नहीं है, इसका स्थानीय और वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भारी प्रभाव पड़ सकता है।
मोटापा हृदय कैंसर और मधुमेह जैसी गैर-संक्रामक बीमारियों का कारण बन सकता है।
इसका मतलब भारी स्वास्थ्य देखभाल लागत, काम से ज्यादा अनुपस्थिति और कम उत्पादकता भी है।
विश्व बैंक इस समस्या के समाधान के लिए कई उपाय बताता रहा है, जिसमें शीतल पेय और ज्यादा वसा वाले भोजन जैसी मीठी वस्तुओं पर टैक्स, और प्रोसेस्ड फ़ूड के पैकेट पर अनिवार्य लेबलिंग करना शामिल हैं।
शायद अब भारत के लिए बैठ कर सुनने का समय आ गया है।
शीर्ष पर मुख्य फोटो में एक स्थानीय मिठाई की दुकान पर विभिन्न प्रकार की मिठाइयां दिखाई गई हैं (फोटो – पावलोवाख्रुशेव, ‘कैनवा’ से साभार)
संदीप घोष ‘डेटा इंटेलिजेंस यूनिट’ के टीम प्रमुख हैं। वह 30 वर्षों से ज्यादा समय से अनुसंधान परामर्श क्षेत्र का हिस्सा रहे हैं। DIU से पहले, वह बीबीसी मीडिया एक्शन (इंडिया) लिमिटेड में अनुसंधान प्रमुख थे।
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