मातृ-शिशु स्वास्थ्य सुनिश्चित करती दिव्यांग महिलाएँ
अग्रिम पंक्ति की ये जुझारू स्वास्थ्य कार्यकर्ता, अपनी शारीरिक अक्षमताओं और चुनौतियों के बावजूद, अपने गांव की युवा महिलाओं और बच्चों के पोषण और विकास को सुनिश्चित करती हैं।
अग्रिम पंक्ति की ये जुझारू स्वास्थ्य कार्यकर्ता, अपनी शारीरिक अक्षमताओं और चुनौतियों के बावजूद, अपने गांव की युवा महिलाओं और बच्चों के पोषण और विकास को सुनिश्चित करती हैं।
मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले की फील्ड की मेरी हालिया यात्रा में, ‘अंतरा फाउंडेशन’ के मेरे सहयोगियों ने मुझे तीन सबसे जुझारू महिलाओं से मिलवाया।
उनमें से एक ‘आशा’ (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) के रूप में और दो ‘आंगनवाड़ी कार्यकर्ता’ के रूप में काम करती हैं, जो मुख्य रूप से पांच साल से कम उम्र के बच्चों के पोषण और कल्याण की प्रभारी हैं।
इन तीनों में दो चीजें समान थीं – बचपन में पोलियो से ग्रस्त होना और विपरीत परिस्थितियों को चुनौती देने का अदम्य साहस।
उन सभी को उनके दूसरे जन्मदिन से पहले, जीवन ने उन्हें एक कठिन स्थिति में पहुँचा दिया था।
भारत में पोलियो के टीके के व्यापक रूप से उपलब्ध होने से पहले, तीनों महिलाएँ इस दुर्बल करने वाली बीमारी का शिकार हो गईं। उन सभी को याद है कि तेज़ बुखार आया था, उसके बाद लकवा मार गया था, उनमें से एक को यह गंभीर था, जबकि अन्य दो को हल्का था, लेकिन इन्हें भी अपंग बना गया था।
जब मैंने सुना कि इन तीन महिलाओं ने कितने मुश्किल हालात पर विजय प्राप्त की है और उस साहस और उत्साह को देखा, जिसके साथ वे अपने संघर्षों के बावजूद अपने समुदायों की अन्य महिलाओं और बच्चों की मदद कर रही हैं, तो मुझे लगा कि मुझे उनकी प्रेरक कहानियाँ साझा करनी चाहिए।
हालाँकि इनमें से प्रत्येक कार्यकर्ता की एक स्पष्ट भूमिका है, फिर भी समुदाय को सेवाएं प्रदान करने और उनकी भलाई के लिए काम करने का उनका समान लक्ष्य है।
रुक्मणी यादव 2006 से बड़वानी जिले के बोरले गांव में आशा कार्यकर्ता हैं। एक दिहाड़ी मजदूर पिता के गरीब परिवार में जन्मी, वह पांच बेटियों में सबसे बड़ी थीं। जैसा कि ग्रामीण भारत के ज्यादातर हिस्सों में आम है, माता-पिता तब तक बच्चे पैदा करते रहते हैं, जब तक उनका एक लड़का पैदा न हो जाए। यह एक पुरुष उत्तराधिकारी की उनकी चाहत को संतुष्ट करने के लिए होता है, जो बुढ़ापे में उनकी देखभाल करेगा।
रुक्मणि के माता-पिता के साथ भी ऐसा ही था। पांच बेटियों के जन्म के बाद, उन्हें एक बेटा हुआ, लेकिन दुर्भाग्य से बेटे ने युवावस्था में ही आत्महत्या कर ली।
रुक्मणी का महत्वाकांक्षा थी कि वह पढ़ाई कर के जज या कम से कम वकील बने।
पोलियो के कलंक के बावजूद, रुक्मणी ने कम उम्र से ही अपने परिवार का भरण-पोषण करना शुरू कर दिया था। उसकी शादी एक ऐसे व्यक्ति से हुई थी, जो गुजारे के लिए आटा चक्की चलाता था। लेकिन रुक्मणी ने अपनी किताबें नहीं छोड़ीं और अपने बेटे के जन्म के बाद बारहवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी की।
वह अब भी सामाजिक विज्ञान में बीए करने की कोशिश में जुटी हैं।
रुक्मणी के काम का रिकॉर्ड बहुत अच्छा है और उन्होंने अपने पूरे गांव का विश्वास प्राप्त कर लिया है। वह अपने परिवार की मुख्य कमाने वाली बन गई। भले ही वह घर-घर नहीं घूम सकती, लेकिन उनके पति उन्हें अपनी मोटरसाइकिल पर समुदाय के दौरे पर ले जाते हैं।
उनके गांव में 100% संस्थागत प्रसव का दावा किया जाता है और वह सुनिश्चित करती हैं कि प्रत्येक गर्भवती महिला का जल्द से जल्द पंजीकरण हो और उन्हें प्रसवपूर्व की जरूरी जांच और देखभाल मिले।
रुक्मणी तेजी से सीखने वाली हैं और, नर्सिंग में कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं होने के बावजूद, वह पेट की जांच कर सकती हैं और बड़े जोखिम के खतरे के संकेतों को पहचानने के लिए उनकी नज़र पैनी है। उन्हें विश्वास है कि अगर जरूरत पड़ी तो गर्भवती महिला के अस्पताल न पहुंच पाने की स्थिति में भी वह सुरक्षित प्रसव करा सकती हैं।
फिर हम दो आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं से मिलने के लिए बागुड़ गांव गए। संतोषी सोलंकी 2001 से आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं। जब वह बच्ची थी, तब पोलियो ने उन्हें बुरी तरह प्रभावित किया। उन्हें चलने-फिरने के लिए बैसाखी के साथ-साथ छड़ी का भी इस्तेमाल करना पड़ता है।
आंगनवाड़ी में बच्चों के लिए गतिविधियों के संचालन में आंगनवाड़ी सहायिका सहायता करती है।
संतोषी अविवाहित हैं और खुद को पूरी तरह से अपने काम के लिए समर्पित कर देती हैं। वह आंगनवाड़ी के बच्चों को अपने बच्चे समझती हैं। उनके काम का रिकॉर्ड अनुकरणीय है।
राधा खेडे तीसरी महिला हैं, जिनसे हम मिले। चमकदार लाल साड़ी पहने, राधा के चेहरे पर एक संक्रामक मुस्कान थी। वह 1990 से एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं।
उसके माता-पिता मजदूर थे, जो इस क्षेत्र का मुख्य अनाज, मक्का उगाते थे। हालाँकि उन्हें पढ़ना बहुत पसंद था, लेकिन वह केवल आठवीं कक्षा तक ही पढ़ सकी। वह शादीशुदा हैं और उनके दो बच्चे हैं। उनकी 26 साल की बेटी बीएड की पढ़ाई पूरी कर रही है।
राधा पूरी लगन से यह सुनिश्चित करती है कि कुपोषण की जाँच के लिए उसके गाँव के प्रत्येक बच्चे का वजन लिया जाए। यदि उनके बच्चे की ऊंचाई-वजन अनुपात उसे गंभीर रूप से कुपोषित श्रेणी में रखता है, तो वह परिवार को नवजात पुनर्वास केंद्र (एनआरसी) में जाने के लिए मनाती हैं।
वह प्रत्येक गर्भवती महिला को परामर्श देती हैं और उनकी समस्याओं में धैर्यपूर्वक मदद करती हैं। उन्हें अपने गांव की हर महिला की दोस्त और विश्वासपात्र बनने पर गर्व है।
‘द अंतरा फाउंडेशन’ (TAF) में, हम नियमित रूप से आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को सशक्त बनाते हैं, जिन्हें अग्रणी स्वास्थ्य कार्यकर्ता (FLWs) माना जाता है। सरकारी कार्यबल का एक प्रमुख हिस्सा, FLW गर्भवती महिलाओं और शिशुओं को महत्वपूर्ण सेवाएं प्रदान करके, मातृ और शिशु स्वास्थ्य रुग्णता और मृत्यु दर को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
इन सेवाओं में नियमित जांच, दवाओं और टीकों की उपलब्धता, परिवार नियोजन, पोषण और स्वास्थ्य देखभाल पर सलाह शामिल हैं।
सभी बाधाओं के बावजूद, इन तीन गुमनाम नायकों और सामाजिक बदलाव की एजेंटों ने साहस के साथ अपने स्वयं के दुर्भाग्य का सामना किया है, और अपने गांवों की माताओं और बच्चों के लिए अच्छा स्वास्थ्य और मुस्कान लाने के लिए हर दिन प्रयास करती हैं।
रुक्मणी यादव ठीक ही कहती हैं – “किसी की जीवनी छप जाती है, किसी की छिप जाती है।”
लेकिन वे अपने काम और उससे पड़ने वाले प्रभाव पर विश्वास करती हैं और योद्धा की तरह आगे बढ़ती हैं।
मुख्य छवि में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता राधा खेडे और संतोषी सोलंकी को दिखाया गया है, अपनी गतिशीलता की सीमाओं के बावजूद, अपने ग्रामीणों के बेहतर स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए कड़ी मेहनत करती हैं (फोटो – ‘द अंतरा फाउंडेशन’)
सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग में डॉक्टरेट, मधुरा निरखे ग्रामीण मध्य प्रदेश में ‘द अंतरा फाउंडेशन’ (TAF) की तकनीकी सलाहकार हैं।
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