पहाड़ के किसानों ने सेबों से परे जीवन अपनाया
जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और मूर्खतापूर्ण मानवीय हस्तक्षेप ने उत्तराखंड में पारंपरिक किसानों को मुश्किल में डाल दिया है, वे नई फसलें और आजीविका अपना रहे हैं।
जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और मूर्खतापूर्ण मानवीय हस्तक्षेप ने उत्तराखंड में पारंपरिक किसानों को मुश्किल में डाल दिया है, वे नई फसलें और आजीविका अपना रहे हैं।
अपनी लड़कों जैसी मुस्कुराहट के साथ, 28 वर्षीय अनिल चंद टिहरी गढ़वाल के जड़ीपानी गाँव में एक लोकप्रिय व्यक्ति हैं। लोग उन्हें सिर्फ एक स्थानीय लड़का होने के कारण ही नहीं जानते हैं, बल्कि इसलिए भी कि वह जैसे उन्हें यह समझाता है कि कैसे सेब के पेड़ों पर फल पहले की तरह नहीं लगते और क्यों आड़ू उनका नया उत्तर है। या फिर फरवरी से नवंबर में मटर की बुआई और नवंबर से मार्च-अप्रैल में गोभी की बुआई अपनाना एक बेहतर विचार है।
“ज्यादातर जगहों की तरह यहाँ की जलवायु भी बदल रही है और तेजी से बदल रही है। हमें इस बदलाव के अनुरूप चलना होगा। मैं जितना हो सके उतने किसानों को इस बदलाव को समझने और अपनाने के लिए मनाने की कोशिश करता हूँ। बेशक यह हमेशा आसान नहीं होता है, लेकिन हां, यदि दो लोग भी मान जाते हैं और इस बदलाव को अपनाते हैं, तो अगले साल नहीं मानने वाले भी उनकी फसल को देखकर बुआई का समय बदलना चाहेंगे या फसल बदलने के बारे में सोचेंगे।”
जड़ीपानी, जो कभी मसूरी-चंबा फल पट्टी के रूप में लोकप्रिय था, एक कठिन चुनौती का सामना कर रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण प्रसिद्ध सेब की फसल को भारी नुकसान हुआ है। ज्यादातर व्यक्तिगत उपभोग के लिए उगाई जाने वाली सब्जियों जैसी अन्य फसलें भी प्रभावित हुई हैं।
चंद उत्तराखंड के कई गांवों के लिए काम करने के लिए, 2001 में टाटा ट्रस्ट द्वारा शुरू किए गए एक गैर सरकारी संगठन ‘हिमोत्थान’ के साथ काम करते हैं। यह एनजीओ लोगों को इन बदलावों को अपनाने में मदद के लिए काम कर रही है, जो उनके गाँव और उनके जैसे अन्य गाँवों के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण है।
अंजना नेगी खुश हैं कि वह सुझाए गए बदलावों से सहमत हो गईं। वह कहती हैं – “जल्दी बुआई करने से न केवल हमें पत्तागोभी की अच्छी फसल मिली, बल्कि ज्यादा गोभी भी प्राप्त हुई, क्योंकि हमें कतार में बुआई के लिए बताया गया था। यह उससे अलग था, जिस तरह हम आम तौर पर बीज बिखेरते थे। एक और बदलाव नई फसल, हरा प्याज, अपनाने की कोशिश करना है। मेरी सास को यकीन है कि वे नहीं उगेंगे। लेकिन फिलहाल वे ठीक लग रहे हैं। मैं सुखद परिणाम की उम्मीद कर रही हूँ।”
बड़ा बदलाव फलों में हुआ है। बेशक सेब के पेड़ों पर पर्याप्त सेब न लग रहे हों, लेकिन बड़ी संख्या में ग्रामीणों ने आड़ू की खेती करने की कोशिश की है। जड़ीपानी से कुछ ही दूरी पर चुरैलधार गाँव के 39-वर्षीय किसान, खुशी राम डबराल ने 2016 की गर्मियों में 70,000 रुपये के आड़ू बेचे। वह एक गौरवान्वित अभिभावक की तरह अपने आड़ू के पेड़ों को दिखाते हुए मुस्कुराए – “पिछले वर्षों में मेरे सेब के पेड़ों को सूखते देखना एक भयानक दृश्य था। आड़ू को आज़माने का सुझाव एक वरदान की तरह आया।”
हिमोत्थान पहल के प्रमुख, स्थानीय ग्रामीण गणेश बिष्ट खुश हैं कि डबराल जैसे लोगों की संख्या बढ़ रही है। “अनुकूलन महत्वपूर्ण है और हमें खुशी है कि यहाँ 15 गांवों में 60 स्वयं सहायता समूह धीरे-धीरे, लेकिन निश्चित रूप से बदलावों को अपना रहे हैं। अपने मवेशियों के लिए नेपियर घास (घास की साल भर रहने वाली एक बारहमासी किस्म) से लेकर कतार में बुआई से लेकर गांव में खुली डेयरी में काम सीखने तक, वे यह सब कर रहे हैं।”
जोशीमठ से लगभग आठ किलोमीटर दूर, चमोली जिले का सुरम्य गाँव बड़गांव है। शाम की धूप में एक घर की पक्की छत पर बैठी महिलाओं के एक समूह के चेहरों को रोशन कर देता है, जो रिबन जैसी सड़क से बहुत दूर नहीं है। उनकी पृष्ठभूमि में सब्जियों की सटीक पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं। उनके माथे पर लगे टीके बताते हैं कि वे सब अभी-अभी एक धार्मिक समारोह से आए हैं। वे हंस रही हैं, चुटकुले सुना रही हैं। यह उतना ही परिपूर्ण दिखता है, जितना कि ग्रामीण जीवन हो सकता है।
75-वर्षीय उषा रानी कामदी का कहना था कि कुछ साल पहले चीजें उतनी अच्छी नहीं थीं। “यह पूरी पट्टी सेब, खुबानी, चुलु (जंगली आड़ू), और आलूबुखारा के लिए जानी जाती थी। और जब कई फुट बर्फ पड़ती थी, तो हमारे फल और भी मीठे हो जाते थे।”
अपने शरारती पोते को संभालते हुए ऐथी देवी भी चर्चा में शामिल हो जाती हैं। “मुझे अब भी याद है, जब मैं शादी के बाद यहां आई थी, तो मैंने कई फुट बर्फ देखी थी। कभी-कभी यह हमारे घुटनों तक हो जाती थी और कभी-कभी हम तब तक दरवाजे नहीं खोल पाते थे, जब तक कुदाल से बर्फ नहीं हटा देते थे।”
बर्फ़ के वे दिन अब बहुत पीछे रह गए हैं। पास ही बीड़ी पी रहे पुरुषों के एक समूह में बैठे विनोद सिंह भंडारी कहते हैं – “हमने देखा कि हमारे पेड़ सूख गए और उसके साथ ही हमारी आय भी कम होती गई। वह मुश्किल समय था। हमें पता नहीं था कि क्या करें। हमने वर्षों से सिर्फ फल लगाए थे और आज स्थिति यह है कि हमें नहीं पता कि हम कैसे जीवित रहेंगे।”
एक यात्रा से बहुत कुछ बदल गया। सबसे बुजुर्ग और सबसे ज्यादा बातूनी उषा रानी कामदी कहती हैं – “यह एक दशक पहले की बात है। वे औली के विशेषज्ञ थे और वे घूम-घूमकर किसानों को बताते थे कि अलग-अलग चीजें कैसे उगाई जाती हैं। और तभी उन्होंने हमसे कहा कि हम सब्जियां उगाना शुरू करें, क्योंकि कई अन्य गांवों की तरह हमारे गाँव में भी मौसम बदल रहा है; कि हमें फूलगोभी, पत्तागोभी, धनिया और राई उगाने का प्रयास करना चाहिए। बेशक हम आशंकित थे, लेकिन हमें वैसे भी अपने फलों से कुछ हासिल नहीं हो रहा था।”
इसकी शुरुआत चंद किसानों के साथ हुई, जिन्होंने सोचा कि जोखिम लेना उचित है। 35-वर्षीय राजेश्वरी देवी कहती हैं – “हमारे पास खोने के लिए कुछ नहीं था, है ना? बर्फबारी अनियमित थी और पानी का एक पारम्परिक स्रोत उतना अच्छा नहीं बह रहा था, जितना बहता था। यदि हमें अपने परिवार के साथ गाँव में खुशी से रहना चाहते थे, तो हमें कुछ करने की जरूरत थी। दूसरा विकल्प केवल छोटी-मोटी नौकरियों की तलाश में शहरों में जाना था। मैंने विशेषज्ञ टीम के सुझाव के अनुसार फसल उगाने का प्रयास करने का फैसला किया।”
कुछ महीने बाद, जब फूलगोभी अपने अच्छे आकार तक बड़े हो गए और पत्तागोभी अच्छी तरह मोटी हो गई, तो अन्य किसान भी प्रेरित हुए। और यह बड़गांव के खूबसूरत गाँव में बदलाव की शुरुआत थी , जो आज क्षेत्र के सबसे अच्छे सब्जी आपूर्तिकर्ताओं में से एक के रूप में जाना जाता है।
बातचीत सुन रही किशोरी शैलजा भट्ट कहती हैं – “हम लगभग तीन क्विंटल फूलगोभी और पत्तागोभी उगाते हैं। यह बढ़कर छह क्विंटल तक पहुंच जाता, यदि हमें सूअरों द्वारा हमारी सब्जियां खोद डालने का सामना नहीं करना पड़ता। लेकिन हाँ, फिर भी हमारे पास अपने उपयोग के लिए और थोक सब्जी मंडी में बेचने के लिए पर्याप्त बच जाती है। और क्योंकि हमारी सब्जियाँ बहुत अच्छी हैं, इसलिए हमें दाम भी अच्छे मिलते हैं।”
हम जैसे-जैसे सड़क पर आगे बढ़ते हुए अपने अगले गंतव्य एक और खूबसूरत गाँव ‘कुण्डी खोला’ पहुँचते हैं। वहां मक्का है; नींबू और एकदम नारंगी रंग के किन्नू (पहाड़ियों में आम तौर पर मिलने वाली संतरे की एक किस्म) हैं। वहाँ पशुओं को खिलाने के लिए हरी-भरी घास, आटे के लिए प्रयोग होने वाला स्थानीय पौधे ‘ओगल’ और गेहूं के कुछ खेत हैं।
गाँव असामान्य रूप से शांत लग रहा है। एक बूढ़ी औरत धूप में कुरकुरी होने के लिए, बची हुई साबुत लाल मिर्चों को सावधानी से छान रही है। वह कहती है – “देखिए वे फिर से बांध की धूल से ढक गए हैं।”
जब आखिर बोलने के लिए मना लिया गया, तो 80 वर्षीय सुरेशी देवी ने कहा – “हम उस स्थिति से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें हमें डाल दिया गया था। पहले तो ‘विष्णुगाड’ (उत्तराखंड में बन रहे कई हाइड्रो बाँधों में से एक) पर बांध का काम शुरू होने के बाद, हमारा जल स्रोत सूख गया। यह हर चीज़ पर गंदगी और धूल के कारण को भी दर्शाता है। और यदि यह काफी बुरा नहीं था, तो हमारे गाँव में साल भर आसानी से उगने वाली चीजों, जैसे आलू, नाशपाती, सेब, राजमा, का उगना लगभग बंद हो गया। हमने यहां नई चीजें शुरू कीं। हमारे पास पशु हैं, और हम ज्यादातर घास और निम्बू-संतरे जैसे पेड़ उगाते हैं। और इन सबकी बदौलत, यहां हमारी फसलें खोदने वाले जंगली सूअरों की संख्या भी कम हो गई है।”
जलवायु परिवर्तन और मानवीय हस्तक्षेप के बीच, ग्रामीणों को समाधान की तलाश करनी पड़ी। किसान पुष्कर सिंह सीधे शब्दों में कहते हैं – “हमारे पास अपने गांव से भागने और काम की तलाश में जाने या स्थिति के अनुसार काम करने का विकल्प था। हमने बाद वाले को चुनने का फैसला किया। आख़िरकार हम पुश्तैनी किसान हैं और खेती से बेहतर हम कुछ नहीं कर सकते। लगभग दो साल पहले, मैंने किन्नू और नींबू उगाने का फैसला किया, क्योंकि सेब नहीं उग रहे थे।”
जब प्रयोग सफल रहा, तो कई अन्य किसानों ने भी इसका अनुसरण किया।
एक अन्य किसान विश्वेश्वर प्रसाद सेमवाल ने कहा कि आज गांव के लगभग सभी 150 परिवारों में से प्रत्येक के पास कम से कम तीन किन्नू के पेड़ हैं और वे और पेड़ लगाने की योजना बना रहे हैं। इस साल सिंह ने अनार के साथ भी प्रयोग करने की कोशिश की।
मुझे अपनी दो गायें और एक नवजात बछड़ा दिखाने के लिए, अपनी गौशाला की ओर जाते हुए, 72-वर्षीय कल्पेश्वरी सेमवाल कहती हैं – “एक और बदलाव, जिसने ज्यादातर परिवारों के जीवन को बदल दिया है, वह है गाँव द्वारा डेयरी फार्मिंग को अपनाना।”
उन्होंने अपने नवजात बछड़े पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा – “प्रत्येक परिवार के पास कम से कम एक गाय है। क्योंकि सिंचाई का पानी एक मुद्दा बन रहा था, इसलिए हमने पशुओं के लिए घास उगाना शुरू कर दिया। और क्योंकि उन्हें खाने के लिए अच्छा मिल रहा है, इसलिए दूध दे रहे हैं। हम इस दूध को 35-40 रुपये प्रति लीटर पर बेच रहे हैं।”
सेमवाल के शेड के पास ही झुप्पा देवी का शेड है। एक गहरी मुस्कान के साथ वह कहती हैं – “इन जानवरों ने हमें नया जीवन दिया है।”
प्राची एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। पहली बार यह लेख ‘थर्ड पोल’ में प्रकाशित हुआ था।
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