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हंजाबम राधे: बालिका वधू से ड्रेस डिजाइनर और पद्मश्री तक

मणिपुर की 90 वर्षीय हंजाबाम ओंगबी राधे शर्मी, जो मणिपुर के मैतेई समुदाय की पारम्परिक दुल्हन-पोशाक “पोटलोई सेतपी” को बढ़ावा देती हैं, अपने पद्म श्री पुरस्कार के माध्यम से मान्यता प्राप्त करने से खुश हैं। लेकिन उनका मानना है कि सरकार को उनके जैसे कारीगरों को बुढ़ापे में आर्थिक मदद करनी चाहिए।

थौबल, मणिपुर

मणिपुर की 90 वर्षीय हंजाबाम ओंगबी राधे शर्मी, जो मणिपुर के मैतेई समुदाय की पारम्परिक दुल्हन-पोशाक “पोटलोई सेतपी” को बढ़ावा देती हैं, अपने पद्म श्री पुरस्कार के माध्यम से मान्यता प्राप्त करने से खुश हैं। लेकिन उनका मानना है कि सरकार को उनके जैसे कारीगरों को बुढ़ापे में आर्थिक मदद करनी चाहिए।

मणिपुर के थौबल जिले के वांगजिंग गाँव की हंजाबम ओंगबी राधे शर्मी, अपने शब्दों में एक बाल वधू से दुल्हन के पारम्परिक परिधानों की डिजाइनर बनने तक की अपनी जीवन यात्रा को बयां करती है।

जब मैंने सुना कि केंद्र सरकार ने मुझे पद्मश्री पुरस्कार के लिए चुना है, तो मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ।

मैं पिछले साल दिल्ली गई और हमारे देश के राष्ट्रपति से पुरस्कार प्राप्त किया था। मैं अपने जीवन में उस पल को कभी नहीं भूल सकती।

मेरा पूरा जीवन और अपने काम को लोकप्रिय बनाने तथा अपने परिवार को चलाने के लिए मेरा संघर्ष, सब मेरी आंखों के सामने घूम गए।

मैं जज्बाती हो गई, क्योंकि मुझे लगा मणिपुर के मैतेई समुदाय की पारम्परिक दुल्हन-पोशाक पोटलोई सेतपी की कला को संरक्षित करने के मेरे प्रयासों को अंततः इस पुरस्कार के माध्यम से मान्यता मिल गई।

मुझे अपने जीवन की यात्रा याद आ गई – थौबल जिले के समाराम गाँव में अपने बचपन के दिनों, जहां मैं एक गरीब परिवार में पैदा हुई थी, से लेकर आज तक, जब मैं 90 वर्ष की हूँ। मेरे पिता एक मंदिर के पुजारी थे और मेरी माँ एक गृहिणी थी। मैं पाँच बच्चों में तीसरे नंबर की थी।

मेरी शादी 13 साल की उम्र में हो गई थी और मैं अपने घर से लगभग 3 किलोमीटर दूर और उसी थौबल जिले के वांगजिंग में बसने के लिए आ गई थी।

मेरे पति, मणि शर्मा, एक ज्योतिषी और अच्छे रसोइए थे। लेकिन उनकी आय हमारे पाँच बेटों और दो बेटियों के परिवार को चलाने के लिए मुश्किल से ही पर्याप्त थी।

मैंने अपने पड़ोस की एक महिला को पोटलोई सेतपी बनाते देख कर इसे सीखना शुरू कर दिया।

उस समय मैंने अपने गांव में एक छोटी सी चाय की दुकान खोली थी।

लेकिन मेरी रुचि दुल्हन की पोशाकों को डिज़ाइन करने में ज्यादा थी। मैंने सोचा मैं चाय बेचने के बजाय, पोटलोई सेतपी बनाकर अपने परिवार की सीमित आय में कुछ और जोड़ सकती हूँ।

मेरे पति को इस बात का भरोसा नहीं था और उन्हें डर था कि मैं यह काम नहीं कर पाऊंगी। लेकिन मेरे सास-ससुर ने मेरा पूरा साथ दिया।

मैंने उस महिला की सहायिका के रूप में काम करना शुरू कर दिया, जिसने मुझे यह कला सिखाई थी। मैंने उसके साथ पाँच साल तक प्रशिक्षु के रूप में काम किया। मैंने इस व्यवसाय की सभी बारीकियाँ सीखी।

जब मैं 30 वर्ष की हुई, तो मैंने पूरी तरह डिजाइनर बनने का फैसला कर लिया।

मुझे ड्रेस बनाने के लिए उन दिनों में 150 रुपये मिलते थे, जिसे पूरा करने में 15-20 दिन लगते थे।

इस आय से मुझे अपने बच्चों को स्कूल भेजने में मदद मिली।

जब 40 साल पहले मेरे पति का निधन हुआ, तो परिवार चलाने की पूरी जिम्मेदारी मुझ पर आ गई। मैं दिन में कई घंटे कड़ी मेहनत करती थी।

दुल्हन के परिधानों के अलावा, मैंने रास लीला शास्त्रीय नृत्य के लिए और मणिपुर में मनाए जाने वाले विभिन्न त्योहारों के लिए भी पोशाकें डिजाइन की।

मैं अब अपनी उम्र और कम होती दृष्टि के कारण, पहले की तरह जोश से काम नहीं कर पाती। अब मेरी बहुएँ ड्रेस डिज़ाइन करती हैं। फिर भी मैं अपने खाली समय में काम करती हूँ।

मैं अपने चार बेटों और 24 पोते-पोतियों के साथ रहती हूँ। मेरे सबसे बड़े बेटे का कुछ साल पहले निधन हो गया।

मैंने कई कारीगरों को प्रशिक्षण दिया है, जो आज भी मेरी सलाह लेते हैं। मुझे अपना ज्ञान साझा करने में खुशी होती है।

मान्यता के बावजूद, मणिपुर की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए काम करने वाले मेरे जैसे कई कारीगरों के लिए यह एक आर्थिक संघर्ष है। सरकार को हमें बुढ़ापे में मासिक पेंशन देनी चाहिए।

कुछ नए डिज़ाइनर पारम्परिक पोशाकों को आकर्षक बनाने के लिए उनमें बदलाव करते हैं। मुझे लगता है कि हमें अपनी सदियों पुरानी संस्कृति से दूर नहीं जाना चाहिए।

हमारी संस्कृति समृद्ध है और इसमें नए बाज़ारों की गुंजाइश है। मैं चाहती हूँ कि अगली पीढ़ी मेरी विरासत को आगे बढ़ाए।

फोटो गुरविंदर सिंह और हंजाबम राधे के सौजन्य से।  

कोलकाता स्थित पत्रकार गुरविंदर सिंह की रिपोर्ट।