ज्यादातर आदिवासी महिलाओं द्वारा बनाई गई साधारण घरेलू झाड़ू एक ऐसी खास हस्तशिल्प है, जो आय उत्पन्न कर रही है तथा कई परिवारों को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनने तथा अपने वनों की रक्षा करने में सशक्त बना रही है।
कुछ लोगों के लिए यह साधारण झाड़ू, एक राजनीतिक बयान है। दूसरों के दिमाग में तुरंत हैरी पॉटर और उसके ग्राईफिंडर के साथियों को झाड़ू के रोमांच पर हवा में उड़ते हुए देखना आता है।
लेकिन ओडिशा के कोरापुट जिले के वन ग्रामों में, यह मामूली झाड़ू किसी जादू के बारे में नहीं है। यह वहां रहने वाली सरल जनजातियों की साधारण ग्रामीण महिलाओं के लिए आर्थिक सशक्तिकरण का प्रतीक है।
इस क्षेत्र में बहुतायत में उगने वाली लंबी, बारहमासी घास से बनी झाड़ू, जिसे मूल ओडिया के साथ-साथ बंगाली और असमिया में “फूल” या “फूलो झाड़ू” कहा जाता है, 1,500 से ज्यादा आदिवासी परिवारों की आय में सहायक है। कुछ लोगों के लिए, झाड़ू बेचने से होने वाली आय ही उनकी एकमात्र कमाई है।
जैविक रूप से Poaceae परिवार की Thysanolaena maxima एक जल्दी ख़राब नहीं होने वाली घास, 2 मीटर तक ऊंची हो सकती है और खराब, खड़ी या सीमांत भूमि में पनपती है। अंग्रेजी में इस “टाइगर ग्रास” और हिंदी में “झाडू घास” के गुच्छों का उपयोग झाड़ू बनाने के लिए किया जाता है।
झाड़ू घास इकट्ठा करने से खेती तक
कोरापुट की जनजातियाँ पीढ़ियों से झाडू बनाती आ रही हैं, लेकिन ये ज्यादातर जंगल से इकठ्ठा की गई घास से घरेलू उपयोग के लिए बनी झाड़ू होती थी।
अब वे एक स्वरोजगार कार्यक्रम ‘महात्मा गांधी निश्चित कर्म नियोजन योजना’ के अंतर्गत सरकारी सहायता की मदद से इसकी खेती कर रहे हैं।
“मेरे पूर्वज जंगलों से घास काट कर लाते थे, लेकिन उन्होंने कभी झाड़ू से पैसा नहीं कमाया।“
आमतौर पर मानसून में लगाई जाने वाली इस घास को उगने और फूलने में चार महीने लगते हैं।
कोटिया गाँव की सुनामणि तुरुक कहती हैं – “मेरे पूर्वज जंगलों से घास काट कर लाते थे, लेकिन उन्होंने कभी झाड़ू से पैसा नहीं कमाया।”
घास की खेती से कच्चे माल की तत्काल और आसान उपलब्धता सुनिश्चित होने से टिकाऊ आय भी हुई है।
ब्लॉक विकास अधिकारी सौम्य सार्थक मिश्रा ने बताया कि ग्रामीणों को झाड़ू घास उगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया है, क्योंकि इसकी कटाई आसान है, बनाने की प्रक्रिया सरल है और निवेश की जरूरत कम है। सरकार चारा और खाद के साथ-साथ मजदूरी भी देती है।
मिश्रा कहते हैं – “पतंगी ब्लॉक के करीब 800 लोग इस वनरोपण प्रक्रिया में शामिल हैं। जिले में करीब 130 एकड़ में झाड़ू घास लगाया गया है। योजना 700 एकड़ में लगाने की है।”
झाड़ू का जुआ
ट्राइविज़ार्ड प्रतियोगिता में हैरी पॉटर की झाड़ू की तरह, कोरापुट की झाड़ू घास स्थानीय बाजारों से इतनी तेजी से बिक रही है, जिसकी उनके उत्पादक कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे।
“माँ प्रकृति ने हमें यह घास दी है” – राईता खिला इस उपहार के लिए आभारी हैं, जिससे उनका परिवार चलता है।
सुनामणि भी आभारी है।
“इससे मुझे गरीबी से उबरने में मदद मिली है। मेरे गांव में करीब 30 परिवार झाड़ू बेचकर अपना गुजारा करते हैं। हम पहाड़ों से कच्चा माल इकट्ठा करते हैं। कई परिवार स्थानीय बाजार में घास लाते हैं। वे झाड़ू नहीं बनाते।”
ग्रामीण लोग काटी गई घास को शरद ऋतु की धूप में 10 से 12 दिनों तक सूखने के लिए छोड़ देते हैं।
राईता ने बताया – “फिर हम एक बंडल लेते हैं, उसे आकार में काटते हैं और प्लास्टिक की डोरी से बांध देते हैं। झाड़ू तैयार है। यहां से हर साल ओडिशा के शहरों के अलावा छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र में करीब 400 टन झाड़ू घास भेजी जाती है।”
“इससे मुझे गरीबी से उबरने में मदद मिली है। मेरे गांव में करीब 30 परिवार झाड़ू बेचकर अपना गुजारा करते हैं“
व्यापारी अक्सर अक्टूबर की फसल से पहले ही अग्रिम भुगतान कर देते हैं।
राईता कहती हैं – “यदि सरकार इसे हमसे सीधे ले लेती है, तो हम इसे व्यापारियों को नहीं बेचते।”
प्रशासन ग्रामीणों को उनकी उपज की बिक्री में मदद करने तथा इस प्रक्रिया से बिचौलियों को हटाने के लिए आगे आया है।
कोरापुट की ‘ओडिशा रूरल डेवलपमेंट एंड मार्केटिंग सोसाइटी’ (ORMAS) के प्रमुख रोशन कार्तिक कहते हैं – “‘कोरापुट एग्रो प्रोडक्ट्स प्रोड्यूसर कंपनी’ झाड़ू बेचने में हमारी मदद कर रही है। ORMAS एक महिला को एक झाड़ू के लिए 3.5 रुपए देती है। एक महिला प्रतिदिन करीब 50 झाड़ू बनाती है, जो करीब 175 रुपए के बराबर है।”
टनों झाड़ू खिलने दो
‘फूलो झाड़ू’ को तब बढ़ावा मिला, जब सरकार ने इसे कोरापुट के पतंगी ब्लॉक के कोटिया के आदिवासियों का हस्तशिल्प उत्पाद घोषित कर दिया। झाड़ू बनाने वालों को शिल्पकार के रूप में मान्यता दी गई है, जिससे वे कारीगरों के लिए आरक्षित कल्याणकारी योजनाओं के लिए पात्र हो गए हैं।
यह सब 2018 में शुरू हुआ, जब राज्य सरकार ने कोरापुट के लोगों को द्विआयामी अभियान, वनरोपण और आजीविका, के लिए चुना।
KAPPCO के अधिकारी धोबा सिरिका कहते हैं – “वर्ष 2020-21 में हमने वनवासियों और आदिवासियों से 30 मीट्रिक टन झाड़ू घास खरीदी थी, जिससे करीब 20 लाख रुपये का कारोबार हुआ। इस साल हमने 50 मीट्रिक टन खरीदा और अब तक 40 लाख रुपये का कारोबार किया है।”
आक्रामक मार्केटिंग से भी लाभ मिला है। कोरापुट घास के झाड़ू अब अमेज़न जैसे ई-कॉमर्स प्लेटफ़ॉर्म पर बेचे जा रहे हैं। इसके अलावा सरकार के हस्तक्षेप से बिचौलियों द्वारा उत्पादकों के मुनाफ़े में सेंध लगाने के दुष्चक्र में कमी आई है।
व्यापारी 25 रुपये किलो घास खरीदकर 100 रुपये में बेचते थे। 2018 में कोरापुट प्रशासन ने कोटिया गांव में फूलो झाड़ू उत्पादक समूह की स्थापना की।
कोटिया के सुनाराम तुरुक ने कहा – “कोटिया के निवासी पहाड़ियों से कई टन जंगली घास इकट्ठा करते थे, लेकिन उन्हें इसे सस्ते दामों पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता था। सरकार के प्रोत्साहन और मदद की बदौलत, अब हालात बदल गए हैं। हम इसे सरकार को 50 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचते हैं।”
महिलाओं को एल्युमिनियम और प्लास्टिक की पाइप से झाड़ू बनाना और घास के बंडलों को स्टील के तारों से बांधना सिखाया गया। ये लंबे समय तक चलते हैं और इससे पैसे की कमाई भी ज्यादा होती है – लगभग 60 रुपये प्रति बंडल।
गरीबी को जड़ से साफ़ करने के लिए, कोरापुट में घास सचमुच हरी हो रही है।
शीर्ष पर मुख्य फोटो में पहाड़ियों से झाड़ू के लिए इकट्ठा की गई सूखी घास दिखाई गई है (छायाकार – प्रतिवा घोष)
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