हिमाचल के मंडी जिले में, जैविक खेती करने वाले छोटे किसानों को, सामूहिक भागीदारी के माध्यम से, अपनी उपज को सीधे दिल्ली के उपभोक्ताओं को बेहतर मूल्यों पर बेचने में मदद मिली, जिससे उनकी आमदनी में वृद्धि हुई।
एक खुशनुमा सुबह
में, हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले की मनोरम
पंगना घाटी के बाग गाँव के निवासी, चेतन कोंडेल, पारंपरिक पानी से चलने वाली
चक्की की जाँच कर रहे थे, जबकि स्थानीय
मिस्त्री कीप के आकार के कंटेनर की जाँच कर रहा था। जैविक तरीके से उगाया हुआ
गेहूँ,
फ़नल के आकार के कंटेनर से गुज़रते हुए बारीक आटे में बदल जाता है। ये पानी से
चलने वाली चक्कियाँ, जिन्हें स्थानीय लोग ‘घराट’ कहते हैं, बहते पानी से ऊर्जा पैदा करके अनाज और
मसाले पीसती हैं। किंतु अब ये
पहाड़ी राज्य में उपयोग में नहीं लाई जा रही हैं।
बाग गाँव के ‘ग्राम दिशा
जैविक स्वयं-सहायता समूह’ से जुड़े दस जैविक किसान, घराट का संचालन
करते हैं और गेहूं-आटे जैसे मूल्य-वर्धित
(value-added) उत्पादों की बिक्री करते हैं। ‘घराट’ उस प्रयास का एक हिस्सा है, जिसमें कृषि उपज सीधे
बाजार में बेचना शामिल है, ताकि जैविक खेती
करने वाले किसानों की आय में वृद्धि हो सके।
बाज़ार तक पहुंच
घराट दिल्ली-स्थित एक
गैर-लाभकारी संगठन, ‘ग्राम दिशा ट्रस्ट’ की एक पहल है, ताकि क्षेत्र के इस पुरातन ज्ञान को पुनर्जीवित करके, उसका किसानों की आय बढ़ाने और उनकी बाजार तक पहुंच बनाने के लिए उपयोग
किया जा सके।
कलकल करती पंगना नदी के पास
स्थित घराट के अलावा, एक सामुदायिक केंद्र और एक
दुकान,
पंगना बाजार की ओर जाने वाली सड़क पर स्थित हैं, जिनका
उद्देश्य सब्जियों, और गेहूं एवं मक्का जैसे अनाज की जैविक खेती
करने वाले इन छोटे किसानों को, बाजार से अधिक सक्रीय रूप से जोड़ना
है। खुदरा दुकान दो उद्देश्यों की पूर्ति करती है। इसका कृषि उपज के संग्रह-केंद्र
के रूप में उपयोग होता है और यहां किसानों को अपनी सब्जियां सीधे उपभोक्ताओं को
बेचने का मौका भी मिलता है।
अभी तो किसानों को, अपनी उपज दिल्ली में ‘जैविक हाट’ नाम के एक जैविक खुदरा स्टोर और एक
प्रमुख होटल में लगने वाली साप्ताहिक ‘दिल्ली ऑर्गेनिक
फार्मर्स मार्केट’ के माध्यम से अपनी उपज बेचकर अच्छे दाम प्राप्त
होते हैं।
बाधाएँ
यह स्वयं सहायता समूह, सीजन के अनुसार
प्रतिदिन 5 किलो से 50 किलो तक की उपज बस द्वारा बाज़ार भेजता है। ‘ग्राम दिशा
जैविक SHG’ के वरिष्ठ सदस्य दुनीचंद बताते हैं – “हम सब्जियां दिल्ली भेजते हैं और मई से अक्टूबर का
पीक (अधिक बिक्री वाला) सीजन होता है।”
दुनीचंद बताते हैं – “जब हमारे पास अतिरिक्त (फाल्तु) उत्पादन हो जाता है
तो उसे भेजने की प्रक्रिया में बाधा आ जाती है, क्योंकि पहले राष्ट्रीय राजधानी
क्षेत्र (एनसीआर) की हमारी उपज बिकनी चाहिये।” अतिरिक्त मात्रा के अलावा, पत्तागोभी और पत्तेदार हरी सब्जियों जैसी जल्दी खराब
होने वाली उपज को लेकर भी समस्या पैदा हो जाती है।
कोंडेल कहते हैं कि किसान
कड़ाके की सर्दियों के दौरान मटर के अलावा दूसरी सब्जियां नहीं उगा सकते। जिसके
कारण आपूर्ति में बाधा आ जाती है, और ग्राहकों में
निराशा पैदा हो जाती है। उन्होंने कहा, “आपूर्ति पूरे
वर्ष होनी चाहिए,
क्योंकि कुछ लोग जैविक उत्पादों के लिए ऊंचे मूल्य देने के लिए तैयार होते
हैं।”
एक किसान ने बताया कि उनके कई
खरीदार स्थानीय मंडी में चले गए, क्योंकि वहाँ सब्जियों की भरमार थी, भले ही वे रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग से उगाई गई
थी। इस संकट से निपटने के लिए, उन्होंने दुकान
को बस स्टैंड के आसपास के क्षेत्र में स्थानांतरित करने का सुझाव दिया, जहां अधिक खरीदार होंगे।
सामूहिक लाभ
किसानों को दाल और अनाज के
मुकाबले सब्जियों के बेहतर दाम मिलते हैं। सब्जियों और अनाजों के अलावा, घराट के द्वारा जल्द ही जैविक आटे की पिसाई भी की
जाएगी। घराट 24 घंटे चल सकती है और एक बार में
दो से चार क्विंटल तक गेहूं की पिसाई कर सकती है।
किसान भूपिंदर कुमार के अनुसार, “SHG में शामिल होने की सबसे अच्छी बात यह है कि किसानों
को कृषि से जुड़ी कई सरकारी योजनाओं के बारे में पता चलता है। समूह की औसत आय रु. 30,000 है। पहले हमें सही कीमत नहीं मिलती थी। इसके अलावा, हमारा उत्पादन
कम था, इसलिए आय बहुत ही कम थी।“
कोंडेल कहते हैं, “अब हमें ‘जैविक हाट’ में अच्छे दाम मिलते हैं। जहाँ
शिमला-मिर्च के स्थानीय बाज़ार में 20-25 रुपये मिलते हैं,
वहीं हमें दिल्ली में उसके 40 से 60 रुपये प्रति किलो मिल जाते हैं। गाजर 60 रुपये प्रति
किलो और मूली 30 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बिकती है।”
जैविक सफलता
कोंडेल कहते हैं – “हम धान, गेहूं और मक्का
की आपूर्ति भी करते हैं। लेकिन दिल्ली काफी दूर है और सर्दियों में ढुलाई मुश्किल
हो जाती है, इसलिए हमें आस-पास के ही
बाजारों में जाना पड़ता है। हालांकि दूरी की वजह से दिल्ली एनसीआर में बेची जाने
वाली उपज की लागत बढ़ जाती है, लेकिन खरीदार
उसके जैविक होने के कारण अधिक भुगतान करने को तैयार हैं।“
कोंडेल आगे कहते हैं, ” स्थानीय बाज़ार में थोक विक्रेताओं के माध्यम से
बेचने की तुलना में,
खुदरा बिक्री से बेहतर कीमत प्राप्त होती है।” समूह के पास दो एकड़ जमीन है, जिसे भागीदारी गारंटी प्रणाली के तहत चलाया जाता है।
इससे यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि उपज “खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI)” द्वारा
स्थापित मानदंडों के अनुसार जैविक उपज के रूप में प्रमाणित हो।
भूतेश्वर चौहान बताते हैं – “हमारे स्वयं-सहायता समूह की सफलता से उत्साहित, अन्य किसान भी हमारे समूह में शामिल होना चाहते हैं। किसान इस काम में पूरी प्रतिबद्धता से समय देते हैं और सभी बैठकों में भाग लेते हैं।“
महिला किसानों के स्वयं-सहायता
समूह
बाग गाँव की महिला किसान एक अलग
अनौपचारिक स्वयं-सहायता समूह चलाती हैं, जो 10 साल पहले बनाया गया था। सदस्यों का लक्ष्य वित्तीय
बचत है और इस उद्देश्य के लिए हर सदस्य 50 रुपये प्रतिमाह जमा
करती है। समूह की एक सदस्य वन्दना देवी कहती हैं – “कुछ महिलाओं को
लगता है कि उन्हें अपने हिस्से का पैसा वापिस ले लेना चाहिए। यही कारण है कि हम 10 साल तक सक्रिय रहने के बावजूद अपने SHG को पंजीकृत नहीं कर पाए।“ वन्दना देवी की जिम्मेदारी
हर महीने पंगना के ग्रामीण बैंक में पैसा जमा करने की है।
ग्रामीण लोग महिलाओं के इन
प्रयासों की सराहना करते हैं। महिला एसएचजी की एक सदस्य, मीरा देवी, पुरुषों के साथ मिलकर काम करने के विचार से सहमत हैं।
उन्होंने कहा, “यह एक अच्छा कदम होगा, क्योंकि हिमाचल में महिलाएँ खेत का काम पुरुषों से
अधिक करती हैं।”
भले ही समूह की बचत कम है, फिर भी बाग गांव की महिला किसान, समूह के प्रयास
को जारी रखना चाहती हैं। उन्हें लगता है कि पुरुषों के एसएचजी का हिस्सा बनने से
उनका समूह मजबूत होगा और उन्हें बाजार तक पहुंच बनाने में मदद मिलेगी।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?