तमिलनाडु में पुदुकोट्टई जिले के दक्षिणी इलाकों में किसानों ने अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए एग्रोफोरेस्ट्री की ओर रुख किया, क्योंकि गिरते भूजल स्तर और रासायनिक खाद और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग ने क्षेत्र में कृषि को गैर-व्यावहारिक बना दिया है
तमिलनाडु
में पुदुकोट्टई जिले के 70 वर्षीय किसान,
रामनाथन विश्वास के साथ कहते हैं – “हमें
पेड़ों के रूप में एक खजाना मिल गया है।” उनके इलाके के
किसानों ने खेतों में सिर्फ फसलें उगाने की बजाय, पेड़ों और
फसलों के मेल से खेती करके खुशहाली हासिल की है। रामनाथन से सहमत होते हुए,
जेसुराज ने नारियल, केले और कटहल के पेड़ों के
झुंडों के बीच उगाए अपने चावल के खेत दिखाए।
पुदुकोट्टई को एक शुष्क क्षेत्र माना जाता है। कावेरी डेल्टा के करीब
होने के बावजूद, और पुदुकोट्टई के
अरन्थांगी तालुक के कावेरी डेल्टा में पड़ने के बावजूद, नदी
का पानी जिले को नहीं मिलता है। डेल्टा के किसानों के गंभीर सूखे के प्रभाव से
आर्थिक संकट में होने के बावजूद, पुदुकोट्टई जिले की दक्षिणी
तालुकाओं के किसान प्रभावित नहीं हैं। किसान अपनी सफलता का श्रेय एग्रोफोरेस्ट्री
को देते हैं, हालांकि उन्हें सिंचाई के लिए, गहरे बोरवेल पर निर्भर रहना पड़ता है।
खुले कुओं से बोरवेल तक
करमाबाकुड़ी तालुक के कोट्टई कडु के 42 वर्षीय किसान, कास्पर अपने दादा की कहानियों को याद करते हैं। उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “मेरे दादा के अनुसार, कभी-कभी 10 फीट की गहराई पर भी पानी उपलब्ध होता था। इसलिए उन्होंने सिर्फ छोटे तालाब खोदे। जब मेरे पिता ने खेती शुरू की, तो उन्होंने एक 90 फीट गहरा केनी (एक खुला कुआँ) खोदा।”
वनक्कण काडु गांव के आरोक्यसामी ने राज्य के कृषि विभाग से
सेवानिवृत्ति के बाद, अपनी पुश्तैनी जमीन पर
खेती शुरू कर की। उनके अनुसार 1960 के दशक में, पानी 30 फीट की गहराई पर मिलता था। खुले कुओं से
पानी खींचने और खेतों में सिंचाई करने के लिए, बैलों का
इस्तेमाल किया जाता था। उनकी एकमात्र कमाई, कृषि से आमदनी,
सीमित थी।
थिरुवरनकुलम तालुक के पुल्लन विदुथी गाँव के वरिष्ठ नागरिक, चिन्नप्पा बताते हैं कि उनके पिता और दादा जैसे
किसानों की पिछली पीढ़ी ने खेती सिर्फ गुजारे के लिए की।
बुजुर्ग किसानों का कहना है कि वे मुम्मारी के वक्त थे, जब साल में तीन बार वर्षा होती थी। मानसून का अनियमित
होने का समय वही है, जब बोरवेल शुरू किए गए। कई किसान याद
करते हैं कि उनके इलाके में, 1972 में पहली बार बोरवेल खोदे
गए थे।
अल्पकालिक जोश
रामानाथन जोश के उन शुरुआती दिनों को याद करते हैं। अचानक लगा कि पानी
बहुतायत में है। हरित क्रांति सम्बन्धी तरीकों के अनुसार, रासायनिक खाद और कीटनाशकों के उपयोग के मेल से,
किसानों ने पहली बार खेती से अच्छी आमदनी का आनंद लिया।
लेकिन उनकी सफलता अल्पकालिक थी। एक दशक के बाद, उनका खेती की सामग्री पर खर्च बढ़ गया। एक स्थिति तक
पहुँचने के बाद, पैदावार न केवल बढ़ने से रुक गई, बल्कि कम होने लगी।
ज्यादातर किसान दो फसलें उगाते थे। कास्पर याद करते हैं – “मेरे पिता दाल और धान उगाते थे। इससे उन्हें कोई
मुनाफ़ा नहीं होता था| उन्होंने 80 के
दशक के मध्य में काफी आर्थिक तंगी सहनी पड़ी।” उनकी बात में
जोड़ते हुए रामनाथन कहते हैं, कि बड़ी खेती वाले लोग मूंगफली,
अरहर और काले चने, आदि अधिक संख्या में फसलें
उगाते थे। फिर भी, यह दो फसलों तक ही सीमित था और किसानों को
खेती से गुजारा करने में मुश्किल होती थी।
एग्रोफोरेस्ट्री की शुरुआत
अरन्थांगी तालुक में कीरामंगलम के सम्पत एक कृषि विज्ञान के स्नातक हैं। वह कहते हैं कि उनके पूर्वज पेड़ उगाया करते थे, लेकिन बाद की पीढ़ी एक-फसल के तरीके से खेती करने लगी। चिनप्पा ने VillageSquare.in को बताया – “हमारे खेतों में पहले फलदार पेड़ थे, लेकिन वे केवल मुट्ठी भर थे और केवल निजी उपयोग के लिए थे।”
एग्रोफोरेस्ट्री की तरफ ये झुकाव संयोग से हुआ है। रामनाथन एक ऐसी
घटना याद करते हैं, जिसके कारण किसानों ने
धीरे-धीरे सिर्फ फसलें उगाने से एग्रोफोरेस्ट्री की ओर रुख किया। सेंथंकुडी गाँव
के थंगासामी, जो ‘मारम (पेड़ का तमिल
अर्थ) थंगासामी’ के नाम से मशहूर हैं, ने
यह रास्ता दिखाया।
रामनाथन याद करते हैं – “हम एक किसान महासंघ
का हिस्सा थे। एक बार थंगासामी ने 100 फीट का कुआं खोदा।
लेकिन उसमें पानी नहीं निकला। वे पहले ही तीन एकड़ में मिर्च लगा चुके थे। पौधों
को मुरझाते देखना उनसे सहन नहीं हुआ और उन्होंने गाँव छोड़ दिया। लेकिन जब वह वापस
आए, तो उन्होंने पेड़ लगाना शुरू कर दिया।”
गांव के लोगों ने फसली जमीन पर पेड़ लगाने के लिए थंगासामी का उपहास किया। रामनाथन ने VillageSquare.in को बताया – “मैंने भी उनके फैसले पर सवाल उठाया था। तब उन्होंने मुझसे कहा कि मैं पाँच साल में उनके पदचिन्हों पर चलूंगा।” थंगासामी का कहा सही निकला। रामनाथन एग्रोफोरेस्ट्री को अपनाने वाले सबसे पहले लोगों में से एक थे, जिसके बाद कई ग्रामवासियों ने वैसा ही किया।
व्यवस्थित एग्रोफोरेस्ट्री
एक अनियोजित एग्रोफोरेस्ट्री काम नहीं करती है। रामानाथन के अनुसार, पेड़ लगाने की योजना की भी एक तरकीब है, यानि पांच साल, 10 साल और इसी तरह फल देने वाले पेड़
लगाओ। वे बताते हैं – “सागवान का 10 साल
बाद और महोगनी का 15 साल बाद इस्तेमाल किया जा सकता है।
इनमें आम, अमरूद, आंवले और अनार जैसे
फलदार पेड़ शामिल करो, जो सालाना पैदावार देंगे। और
इंटर-क्रॉपिंग (बीच-बीच में फसल) और मल्टी-क्रॉपिंग (कई फसल) का तरीका भी अपनाओ।”
रामनाथन ने VillageSquare.in को बताया – “जब आप पेड़ लगाते हैं, तो आप दो पेड़ों की पौध के बीच 6 फीट का फासला छोड़ देते हैं। अगले तीन वर्षों के लिए, जब तक पेड़ पूरी ऊंचाई तक नहीं बढ़ जाते, आप उनके बीच की जगहों में फसलें उगा सकते हैं। आप इन बीच के स्थानों में मूंगफली, तिल, दाल या फिर टमाटर और भिंडी जैसी सब्जियां उगा सकते हैं। इस तरह आप तीन वर्षों में कम से कम पांच फसलें ले सकते हैं।” पेड़ों के पूरी ऊंचाई तक पहुंचने के बाद, छाया में उगने वाली फसलें, जैसे काली मिर्च, उगाई जाती हैं।
यह व्यवस्थित तरीका किसानों के लिए अच्छा साबित हुआ। इलेक्ट्रॉनिक
इंजीनियरिंग में डिप्लोमा-प्राप्त, परिमलम ने नौकरी छोड़ दी
और वापिस खेती करने लगे। वह सालाना 5 से 6 लाख रुपये कमा लेते हैं, जो उनकी नौकरी में मिलने
वाले वेतन से अधिक है। उनका कहना है – “मेरे पास आठ एकड़
जमीन है। एक हिस्से में, मेरे पास लाल चन्दन, महोगनी और सागवान के पेड़ हैं। जमीन के दूसरे हिस्से में, मैं काजू, आम और केला उगाता हूं, जिससे सालाना आमदनी होती है। बाकि हिस्से में, मैं
मक्का, काले चने, आदि उगाता हूं,
जो फसल के अनुसार तीन या चार महीनों में काटे जाते हैं।
कास्पर
चावल और सब्जियों के अलावा, नींबू, नारियल और कटहल उगाते हैं। चार एकड़ में नारियल, नीम
और कटहल उगाने वाले, संपत कहते हैं, कि
कटहल अच्छा लाभ देने से कभी नहीं चूकता। उनके अनुसार – “मेरे
पास 200 कटहल के पेड़ हैं। अगर मैं इन्हें कम से कम 1000
रुपये प्रति पेड़ के हिसाब से भी पट्टे पर दूं, तो भी मुझे 2 लाख रुपये मिलते हैं।” पेड़ों के अलावा, वह तीन एकड़ में गन्ना, और दो-दो एकड़ में मक्का और धान उगाते हैं। क्योंकि इस क्षेत्र की मिट्टी
सभी तरह की फसलों के लिए अनुकूल है, इसलिए किसान कई तरह की
फसलें उगाते हैं।
चिनप्पा
काले चने,
मिर्च, मूंगफली और सब्जियाँ उगाते हैं,
न केवल पेड़ों के साथ, बल्कि एकल फसलों के रूप
में भी। वे छोटे किसान भी, जिनके पास तीन या चार एकड़ जमीन
है, वे भी जमीन कई हिस्सों में बाँट लेते हैं और पेड़ एवं बहु-फसली
पैदावार लेते हैं।
मारम थंगासामी के पुत्र कन्नन कहते हैं – “बहु-फसली पद्यति अपनाने का मतलब है, कि हम अलग-अलग समय में अलग-अलग फसल काटते हैं। इसलिए हमें पूरे साल एक
निश्चित आमदनी मिलती रहती है। यह भी, कि यदि एक फसल फेल भी
हो जाए, तो अगली फसल से हमें मदद मिल जाएगी।” कन्नन सहित किसानों का एक समूह, चमेली, गुलाब और मीठी लिली जैसे फूल उगाता है, जिससे उन्हें
दैनिक आय भी होती है।
जरूरत के समय पेड़
जरूरत के समय में, किसान एक पेड़ काट लेते
हैं और उसकी लकड़ी बेच देते हैं या उसे अपने लिए उपयोग में ले लेते हैं। संपत कहते
हैं – “जब मैंने एक घर बनाया, तो मुझे
पता चला कि एक पाट वाले दरवाजे की कीमत, 50,000 रुपये है।
मैंने एक कटहल का पेड़ काटा और उसकी लकड़ी से सारे दरवाजे और खिड़कियां बना ली।”
हालांकि
किसानों को घटते भूजल स्तर की चिंता है, लेकिन
उन्हें उम्मीद है कि मानसून आने पर स्थिति में सुधार होगा, जैसा
कि अतीत में हुआ है। पानी के सही उपयोग औरमिट्टी की उर्वरकता को बनाए रखना
सुनिश्चित करने के उद्देश्य से, वे फसलें एक चक्र-पद्यति के
अनुसार चुनकर उगाते हैं।
संपत ने VillageSquare.in को बताया – “मक्का सभी पोषक तत्वों को सोख लेता है। इसलिए हम मक्का की फसल काटने के बाद, काले चने और मूंगफली उगाते हैं। जब दालों की फसल काटते हैं, तो हम जड़ों को जमीन में ही छोड़ देते हैं, क्योंकि उनसे नाइट्रोजन को संतुलित करने में मदद करती हैं।”
खाद्य और वित्तीय सुरक्षा
कन्नन जैसे कुछ किसान अपनी स्वयं की खपत के लिए चावल और सब्जियां
उगाते हैं। किसी भी तरह से, किसान खाद्य सुरक्षा को
लेकर आश्वस्त होते हैं। एग्रोफोरेस्ट्री से कितना आर्थिक लाभ हुआ है, किसान इसका सही हिसाब नहीं लगा सकते। लेकिन वे अपनी समृद्धि के प्रमाण के
रूप में अपने नए घर, निजी और कृषि वाहनों और अपने बच्चों को
उच्च शिक्षा के लिए भेजने की अपनी क्षमता दिखाते हैं।
पेड़ों के फायदों पर लिखी गई अपनी कविता सुनाते हुए, रामनाथन घोषणा करते हैं – “पेड़ सिर्फ किसानों की संपत्ति नहीं हैं, बल्कि देश
की भी हैं।” इसपर सहमति जताते हुए, 20के
दशक की आयु के एक किसान, राजेश का कहना है कि इस बहु-फसली
एग्रोफोरेस्ट्री पद्यति अपनाने के कारण इस क्षेत्र के किसानों ने, गुजारे की खेती से निकलकर, खाद्य सुरक्षा और अब
वित्तीय सुरक्षा तक हासिल कर ली है।
जेंसी सैमुअल चेन्नई में स्थित एक सिविल इंजीनियर और पत्रकार हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?