आदिवासी क्षेत्रों के लिए दूध उत्पादन में बहुत बड़ी संभावनाएं मौजूद हैं

सरकार और विशेषज्ञ एजेंसियों की थोड़ी सी मदद से, मध्य और पूर्वी भारत के आदिवासी लोगों में दुग्ध उत्पादन को बढ़ावा देने से, लाखों को गरीबी से मुक्ति दिलाने की क्षमता है

यह विरोधाभासी लगता है, लेकिन जहाँ पानी कम होगा, वहाँ दूध बहुत होगा! पिछले 50 वर्षों में, पश्चिमी भारत के वर्षा को तरसते, सूखाग्रस्त जिले दुग्ध उत्पादन से समृद्ध हो गए हैं। सत्तर और अस्सी के दशक में, कोलार, चित्तूर, अहमदनगर और गुजरात एवं राजस्थान के मेहसाणा, साबरकांठा और बीकानेर जिलों ने राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) के कार्यक्रमों के अंतर्गत दूध उत्पादन में भारी वृद्धि दर्ज की। इनमें से प्रत्येक अर्ध-शुष्क, उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में है।

वहीं दूसरी ओर, इन राज्यों के अच्छी बारिश वाले जिलों ने दूध उत्पादन कोई अच्छा प्रदर्शन नहीं किया। इस पक्ष को इस तथ्य से कई गुना बल मिला है, कि गुजरात के बनासकांठा जिले में स्थित बनास डेयरी रेगिस्तान में निरंतर रूप से एक चमत्कार साबित हुई है। यह अलग-थलग, मरुस्थलीय और सूखाग्रस्त जिला पिछले एक दशक में देश का सबसे ज्यादा दूध उत्पादन करने वाला जिला बना और बना हुआ है। बनास डेयरी में रोजाना 60 लाख लीटर दूध आता है, जो अस्सी के दशक के चैंपियन, मेहसाणा से चार गुना अधिक है, और भारतीय दुग्ध उत्पादन का सबसे लम्बे समय तक चेहरा रहे, अमूल से लगभग दोगुना है।

उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों के अलावा, आमतौर पर आदिवासी लोगों को वनवासी और सामयिक या आकस्मिक कृषक माना जाता है। यदि आप गोंड, बैगा, कोलम, कुई, मुंडा, ओराओं और संथालों के मध्य भारतीय आदिवासी इलाकों में घूमें, तो पाएंगे कि गांवों में दूध की चाय मिलना भी मुश्किल हो जाता है। यह कहावत है कि आदिवासी लोगों का मानना ​​है कि दूध गाय-भैंस के बछड़ों के लिए होता है न कि इंसान के उपयोग के लिए। हाल के समय तक, दरअसल किसी ने भी आदिवासी बस्तियों में दूध उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए गंभीरता से प्रयास नहीं किया।

गरीबी से मुक्ति 

गुजरात के वलसाड की वसुंधरा डेयरी के निरंतर और ठोस परिणामों से यह प्रदर्शित हुआ है, कि उस क्षेत्र के भील आदिवासी लोग (वसावा, वाल्वी और चौधरी) दुधारू जानवर पालकर गरीबी से बाहर निकले। इससे मध्य, पूर्वी और पूर्वोत्तर क्षेत्रों के आदिवासी क्षेत्रों में, गरीबी उन्मूलन के लिए दूध उत्पादन को बढ़ावा देने की एक नई संभावना पैदा हुई है।

यह बात खास ध्यान देने योग्य है, कि वलसाड दूध के सबसे बड़े बाज़ारों में शामिल, सूरत शहर के पास है और मुंबई से भी दूर नहीं है। वलसाड में डेयरी का विकास, वर्गीज कुरियन की इस बात को साबित करता है, कि आपको एक टिकाऊ बाजार की जरूरत है, और कि लोग इसे निभाने के लिए दुग्ध उत्पादन सीखेंगे और अपनी बाधाओं से पार पा लेंगे। 

ये क्षेत्र ऊँचे नीचे धरातल पर हैं। आमतौर पर बस्ती इस तरह बसाई जाती हैं, कि हर गांव एक या कई पहाड़ियों पर होता है और निचली भूमि का उपयोग धान उगाने के लिए किया जाता है। मानसून के दौरान, भारी बारिश होती है, और कई जिलों में 1,500 मिमी वर्षा रिकॉर्ड की जाती है।

फ़ायदे 

इन आदिवासी लोगों के लिए, मादा भैंसों की तुलना में, नर भैंस धान के खेतों में पानी भरने के लिए कहीं अधिक उपयोगी लगते हैं। वनों, सामूहिक भूमि और खेत की मेढ़ों में बायोमास (पेड़-पौधे) की बहुतायत है। खरीफ की फसल की कटाई के बाद जानवरों का खुला चरना, इन क्षेत्रों में सबसे सामान्य बात है। गर्मियों में सभी जगह बंजर भूमि नजर आती है, क्योंकि ज्यादातर स्थानों पर सिंचाई नहीं हो पाती, और इसीलिए एक ही फसल उगाई जाती हैं।

गाय-भैंस के मुकाबले बकरी मुख्य और अधिक पाया जाने वाला पशुधन है। ज्यादातर गांवों में पशुओं को अपने हाल पर और गांवों के आसपास के इलाकों में चरने के लिए, छोड़ दिया जाता है। शाम के समय पशुओं के झुंड लौटते हुए देखे जा सकते हैं और जिन्हें रात भर के लिए एक साथ बाड़े में रखा जाता है।

आदिवासी लोग, पशुपालन की बजाय वनों से जरूरी आमदनी की पूर्ती करते हैं। कुछ गैर-आदिवासी समुदायों द्वारा पशुपालन किया जाता है, जिन्हें उन इलाकों में आमतौर पर यादव या ग्वाला कहा जाता है। जंगल में पैदा हुई घास को काटने की अनुमति दी जाती है, लेकिन बहुत से स्थानों पर, अपने स्वयं के दुधारू जानवरों के लिए  उपयोग करने की बजाय, आदिवासी लोग इसे उन बिचौलियों को बेहद कम कीमत पर बेच देते हैं, जो इसे आगे पेशेवर दुग्ध उत्पादकों को बेचते हैं।

आदिवासी दुग्ध उत्पादन?

गोहत्या से जुड़े हालिया सामाजिक मुद्दों ने मामलों को बदतर बना दिया है, क्योंकि अनुत्पादक जानवरों की आबादी बढ़ती जा रही है और उपलब्ध सामूहिक संसाधनों को अव्यवस्थित कर रही है। इस पृष्ठभूमि में, सवाल यह है कि क्या कोई कभी इन आदिवासी इलाकों में दुग्ध उत्पादन को एक सफल आय सृजन गतिविधि बना सकता है।

आदिवासी अंदरूनी इलाकों में कृषि-जलवायु सम्बन्धी और भूगोलीय मुद्दे हैं, जिनसे इन क्षेत्रों में दुग्ध उत्पादन को गरीबी उन्मूलन का एक सशक्त औजार बनाने के लिए, पशुओं के चारे, प्रजनन और प्रबंधन के अलावा, निपटने की जरूरत होगी। झारखंड में लगभग एक दशक पहले किए गए प्रयोग, इसके गरीबी कम करने के लाभकारी प्रभाव को काफी हद तक दर्शाते हैं।

वे प्रयोग इसलिए असफल नहीं हुए कि दूध उत्पादन से अच्छी आय नहीं हुई, बल्कि इसलिए क्योंकि गैर-जिम्मेदार राजनीतिज्ञों ने उत्पादकों को एक साथ उस ऋण को चुकता न करने के लिए प्रोत्साहित किया, जो कि जानवरों की खरीद के लिए उन्हें दिए गए थे। ये प्रयास रांची के बढ़ रहे बाजार के आसपास किए गए थे। इस तरह, सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या इन पूर्वी आदिवासी क्षेत्रों के लिए तैयार और आसानी से पहचाना  जा सकने वाला बाजार उपलब्ध है।

उत्साहजनक परिस्थितियां

वृहद तस्वीर उत्साहजनक है। दुनिया में सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश बनने के बावजूद, दूध के व्यापारी भारतीय उत्पादन में समय के साथ मांग को देखते हुए गिरावट देख रहे हैं। यह इस स्थापित नियम के अनुसार है कि आय में वृद्धि के साथ दूध और दुग्ध-उत्पादों की खपत बढ़ जाती है। जैसे-जैसे प्रति व्यक्ति अतिरिक्त आय बढ़ेगी, जोकि देश की 7% की आर्थिक वृद्धि दर के चलते बढ़ेगी ही, वैसे-वैसे दूध की मांग भी बढ़ेगी।

इस प्रकार साधारण रूप से, दूध के बाजार के बारे में चिंता करने का एक छोटा कारण दिखाई देता है। मुख्य प्रश्न, एक तैयार, पहुँच के मामले में आसान और अच्छा भुगतान करने वाले बाजार का है, जिसका वर्तमान में असंगठित और उत्पादन के मामले में अविकसित क्षेत्रों द्वारा लाभ लिया जा सके। फिर भी, क्षमता और सम्भावना इतनी आकर्षक है, कि इस विचार को त्यागा नहीं जा सकता। अहम सवाल यह है कि क्या कोई इन क्षेत्रों में डेरी विकास के लिए ठोस कार्यक्रम कार्यान्वित कर सकता है।

विशाल सम्भावना

ऐसे बाजारों को विकसित करने और उन्हें गरीब आदिवासी लोगों से जोड़ने में रुचि रखने वाले संगठनों के अलावा, कोई भी इस तरह की पहुंच बनाने में मदद नहीं कर सकता। डेरी उद्योग किसानों की आय बढ़ाने के साथ-साथ, मूल्य-श्रृंखला में रोजगार पैदा करने की बहुत बड़ी गुंजाइश प्रदान करता है।

मध्य और पूर्वी क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी लोगों के जीवन में होने वाले इन फायदों से, उनके लिए और देश के लिए वांछनीय परिणाम उत्पन्न होंगे। हम आशा करते हैं कि नीति नीति बनाने वाली एजेंसियां ​​और NDDB जैसी संस्थाएं इन क्षेत्रों को गंभीरता से लेंगे और सरकार इस कार्य के लिए पर्याप्त वित्तीय सहायता उपलब्ध कराएगी।

संजीव फंसालकर “ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन” के साथ निकटता से जुड़े हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फंसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) अहमदाबाद से एक फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।