ग्रामीण माता-पिता अपने बच्चों की भावनात्मक भलाई सुनिश्चित करने के उद्देश्य से, आजीविका संबंधी चिंताओं को दूर रखकर, स्थानीय संसाधनों के साथ उपयोगी रूप से व्यस्त रखने के लिए, उनके साथ काम करना सीख रहे हैं।
कोरोनावायरस
के तेजी से बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप लॉकडाउन कर दिया गया। COVID-19 महामारी
की वजह से, लंबे समय तक स्कूल बंद रहने, घर में बंद रहने और दैनिक गतिविधियों के रुक जाने से, बच्चों की मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ा है। इस तरह के मुद्दे आमतौर पर
अनदेखे रह जाते हैं और उनपर ध्यान नहीं दिया जाता।
जहाँ
अच्छी संपन्न परिवारों के बच्चे महामारी में भी एक बेहतर बचपन का आनंद उठा लेते
हैं, वंचित वर्ग के बच्चों, खासकर ग्रामीण इलाकों में
गरीबी से जूझ रहे बच्चों के लिए, स्थिति के अनुकूल ढलने और
विकास की गुंजाईश एवं अवसर कम होते हैं।
बच्चों
के उपयुक्त विकास की बाधाओं को दूर करना बेहद कठिन हो जाता है, जब उनके वंचित
माता-पिता, आमदनी ख़त्म हो जाने और स्वास्थ्य संबंधी खतरों की
दोहरी मार झेल रहे होते हैं। यह बात बस्तर जिले के मुख्यालय जगदलपुर और उसके आसपास
के इलाके पर भी लागू होती है।
जगदलपुर
प्रशासनिक ब्लॉक में अधिकांश आदिवासी गाँव हैं। यहाँ की जनसँख्या का 80% भद्रा,
हलवी और मुरिया जनजाति से सम्बन्ध रखती है। उनमें से 50% छोटे और सीमांत किसान हैं और बाकी मजदूरी करते हैं। महिलाएँ भी खेती के
काम करती हैं, जबकि बड़ी संख्या में वे ईंट भट्टों में काम
करती हैं।
बच्चों
को घर पर अकेले छोड़ना,
कभी-कभी परिवार के बुजुर्ग सदस्यों के साथ छोड़ना बच्चों के लिए एक
मुश्किल स्थिति होती है। स्कूलों के बंद होने के कारण, दोस्तों
से मिलने जुलने पर भी प्रतिबंध है। माता-पिता अपने छोटे बच्चों में घबराहट और
चिंता की भावना का अनुभव कर सकते हैं।
महामारी
के शुरुआती दिनों में,
बच्चों के मन में मृत्यु का डर बहुत था, क्योंकि
वे मानते थे कि यदि किसी को संक्रमण हो गया, तो मृत्यु
निश्चित है। एक स्वयंसेवक, मानमती ने बताया – “एक दिन मेरी 11 साल की बेटी परेशान दिख रही थी|
उसने कहा कि अगर एक व्यक्ति को संक्रमण हो जाए, तो कुछ ही दिनों में पूरा गांव मर जाएगा।”
छत्तीसगढ़
के सबसे कम विकसित जिलों में से एक बस्तर जिले में, चाइल्डफण्ड इंडिया (ChildFund
India) के समर्थन से काम करने वाले, बाल-केंद्रित
विकास संगठन, बस्तर सेवक मंडल (बीएसएम), ने ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों और उनके माता-पिता से संपर्क करने का
फैसला किया। इस प्रयास का बच्चों और माता-पिता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
लॉकडाउन में व्यस्तता
इस
लॉकडाउन में, बीएसएम ने जगदलपुर ब्लॉक की नौ पंचायतों के 20 गांवों
के 1,000 बच्चों और उनके माता-पिता से संपर्क किया। वंचित
माता-पिता को सक्षम बनाने के लिए, बीएसएम ने 14 स्वयंसेवकों की नियुक्ति की, जिनमें से अधिकतर
बीएसएम द्वारा बनाए गए समूहों से सम्बंधित युवा थे। चाइल्डफंड इंडिया ने
सामाजिक-भावनात्मक समझ के लिए पांच दिवसीय प्रशिक्षण और स्वयंसेवकों के लिए
परियोजना प्रबंधन पर एक दिन का प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया।
स्वयंसेवक
माता-पिता और बच्चों से अलग-अलग मिलते हैं और हफ़्ते में दो बार उनके साथ दो घंटे
बिताते हैं। वे लॉकडाउन से पैदा हुए सामाजिक मुद्दों, जैसे घटती
आमदनी, शिक्षा सम्बन्धी चुनौतियां, भाई-बहनों
के साथ पूरे दिन रहना, उचित पोषण और भोजन की प्राप्ति,
आदि पर चर्चा करने के अलावा, कई बाल-सुलभ
गतिविधियां करते हैं।
स्वयंसेवक
बच्चों के साथ-साथ उनके माता-पिता के लिए भी साप्ताहिक सत्र योजना तैयार करते हैं।
स्थानीय भाषा में छपी एक पुस्तिका,
‘मैं और मेरी दुनिया’ स्वयंसेवकों को सत्र
आयोजित करने में मदद करती है। स्वयंसेवक माता-पिता को भी पुस्तक का उपयोग करने के
लिए प्रोत्साहित करते हैं, क्योंकि बुनियादी साक्षरता वाले
माता-पिता पुस्तक पढ़ सकते हैं और अपने बच्चों को गतिविधियों में मदद कर सकते हैं।
अपनी
यात्रा के दौरान स्वयंसेवक और बाद में माता-पिता, बच्चों को हाथ धोने, मास्क पहनने, आदि जैसे रोकथाम के उपायों का महत्व
सिखाने के अलावा, रचनात्मक लेखन, बांस-शिल्प,
स्थानीय कला, पेंटिंग, स्थानीय
नृत्य और टेराकोटा जैसी उत्पादक और मानसिक रूप से प्रेरक गतिविधियों में शामिल
करते हैं।
भय का निदान
10
साल से कम उम्र के बच्चे, बड़ों की बातचीत से
इधर उधर की जानकारी जुटाते हैं और वायरस और उससे होने वाले नुकसान की सीमा के बारे
में पूरी तरह से नहीं जानते। गलत जानकारी से भय पैदा होता है। बच्चों को बातचीत
करने और अपना डर दूर करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
दादा-दादी
के साथ बच्चों के भावनात्मक जुड़ाव को देखते हुए, उन्हें बच्चों के साथ चर्चा आदि
करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। स्वयंसेवक उन्हें अपनी प्राकृतिक
विपत्तियों के साथ-साथ, हैजे और चेचक जैसी पहले की
महामारियों और उनसे कैसे निपटा गया, इस बारे में याददाश्त
साझा करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं ताकि बच्चे आश्वस्त हों, कि यह भी बीत जाएगा।
सदगुड
गांव की 10 वर्षीय उर्मिला ने बताया – “मैं डर गई थी कि हम
सभी जल्द ही कोरोनावायरस से मर जाएंगे, लेकिन मेरी दादी ने बताया
कि उन्होंने कैसे एक और महामारी, हैजे से मुक्ति पाई थी|
जो उन्होंने कहा, उससे मुझे विश्वास हो गया कि
हम जल्द ही कोरोनोवायरस की समस्या से मुक्त हो जाएंगे।”
एक
आठ साल का लड़का,
नरेंद्र, जिसे ऐसा ही डर था, उसे उसके दादा ने एक सकारात्मकता की खुराक दी। उसने आत्मविश्वास के साथ
बताया – “यह कोरोना वायरस चेचक की तरह ही है, जो देर-सवेर चला जाएगा, लेकिन हमें सुरक्षित
स्वच्छता और सामाजिक दूरी की आदत अपनाने की जरूरत है।”
माता-पिता को तैयार करना
जब
ऐसी महामारी जैसे मुश्किल समय में,
उनके आस-पास की घटनाएं अलग तरह से होती हैं, तो
बच्चों के सामान्य व्यवहार पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, और यह बहुत संभव है कि वे अलग तरह की भावनाओं का प्रदर्शन करते हैं। इससे
माता-पिता नाराज हो सकते हैं, लेकिन इस नाजुक मुद्दे को
कुशलता से सँभालने की जरूरत होती है।
क्योंकि
माता-पिता आर्थिक सीढ़ी के निचले पायदान से सम्बन्ध रखते हैं, इसलिए उनकी प्राथमिकताएँ
अलग होती हैं, जैसे कि मजदूरी का नुकसान, भोजन की कमी, अनिश्चित भविष्य, इत्यादि। फिर भी, स्वयंसेवक माता-पिता को अपने
बच्चों और उनके विकास को काफी महत्व देने के लिए समझाते हैं।
इस
कार्यक्रम के माध्यम से जिन बच्चों की सहायता की गई है, उनमें से एक
के पिता बलराम ने बताया – “थोड़ा बहुत पढ़ा-लिखा होने के
बावजूद, मैंने केवल अब जाना है कि इस लॉकडाउन के समय में
अपने बच्चों के साथ सार्थक रूप से कैसे जुड़ना है।” जब बच्चे
अपने माता-पिता और दादा-दादी की सक्रिय भागीदारी के साथ, ऐसी
रचनात्मक और आनंददायक प्रक्रिया के माध्यम से सीखते हैं, तो
उनकी खुशी की कोई सीमा नहीं रहती।
भीड़-भाड़
टालने के उद्देश्य से स्वयंसेवक बच्चों से घर के स्तर पर मिलना जुलना करते हैं। वे
बच्चों की संख्या ज्यादा से ज्यादा छह तक सीमित रखते हैं। स्वयंसेवक बच्चों को
उनकी पढ़ाई सम्बन्धी दिनचर्या का पालन करने में मदद करते हैं।
आगे का रास्ता
बच्चे, जो इस
कार्यक्रम का एक हिस्सा हैं, अधिक सहयोगपूर्ण पाए गए हैं। वे
अपनी रचनात्मक गतिविधियों पर गर्व करते हैं, जिससे उन्हें
तनाव को दूर रखने में मदद मिलती है। आठ साल की एक लड़की, सुचिता
ने बताया- “मुझे लगता है कि मैंने लॉकडाउन का बेहतर
उपयोग किया है।”
दूसरी
ओर, इस प्रयास द्वारा माता-पिता ने, व्यस्त रहने,
भाव व्यक्त करने, सशक्त बनाने और इस नए
सामान्य में जीवन को आगे बढ़ाने के लिए शिक्षित करने के लिए स्थान और अवसर पैदा
करने का कौशल प्राप्त किया है। इस पहल की अगुआई कर रही, बीएसएम
की परियोजना प्रबंधक सिस्टर लिसेट के अनुसार ब्लॉक स्तर के शिक्षा विभाग के
कार्यालय इस कार्यक्रम के डिजाइन और कार्यान्वयन से प्रभावित थे।
वे
चाहते हैं कि यह मॉडल दूसरे गांवों में भी लागू हो। अन्य गॉंवों में विस्तार को, बेहतर पहुँच
और प्रभाव के साथ लागू करने के लिए, बीएसएम अपने द्वारा
विकसित सभी संसाधनों और प्रशिक्षण सामग्री के साथ मदद कर रहा है।
एस.के. मुशर्रफ़ हुसैन एक
प्रभाव-मूल्यांकन विशेषज्ञ हैं और अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान, ओडिशा में कार्यरत हैं। समित पाल चाइल्डफंड इंडिया में एक बाल शिक्षा
विशेषज्ञ हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?