महाराष्ट्र की एक पारम्परिक सिंचाई प्रबंधन व्यवस्था, फड़, अस्त-व्यस्त हो गई। एक विकास कर्मी सुनील पोते ने इसे पुनर्जीवित किया, जिससे अनेक किसान अपनी भूमि की सिंचाई कर सके और उनकी आय में वृद्धि हुई
सुनील
पोते का चौंकाने वाला,
अप्रत्याशित निधन, न केवल नासिक जिले के
सिन्नर तालुक के किसानों के लिए एक झटके के रूप में आया है, बल्कि
उस बड़े विकास क्षेत्र के लिए भी, जिसमें सुनील ने विकास
प्रयासों के पुनरुत्थान के माध्यम से, एक ताजा दृष्टिकोण
प्रस्तुत किया। उनका जल-बहाव को मोड़ने पर आधारित सिंचाई के लिए, फड पद्यति के पुनर्जीवन के साथ शुरू हुआ, और किसान
उत्पादक संगठनों के माध्यम से कृषि वैल्यू-चेन (मूल्य-श्रृंखलाओं) में आधुनिक
व्यापार दृष्टिकोण को शामिल करने के लिए परिपक्व हुआ। इस काम में सुनील और उनकी
पत्नी ने, सख्त व्यावसायिक दृष्टिकोण के साथ मजबूत सामाजिक
प्रक्रियाओं को जोड़ा।
मराठी
में फड़ शब्द का अर्थ एक विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए साथ आए लोगों के एक
समूह से है। इस शब्द का उपयोग कम से कम दो जगह किया जाता है, हालांकि उनके
सन्दर्भों में कोई सम्बन्ध नहीं। पहला शब्द भारतीय शैली की कुश्ती का
“फड़” है, जिसका
अर्थ हिंदी में इस्तेमाल होने वाले शब्द दंगल की तरह है। दूसरा शब्द जल-बहाव की
दिशा को मोड़कर सिंचाई करने के संदर्भ में उपयोग होता है, जिसे
किसानों के समूह द्वारा या कम से कम उनके लाभ के लिए बनाया गया हो। इस लेख में,
हम दूसरी प्रकार के फड़ पर चर्चा कर रहे हैं।
महाराष्ट्र
के कुछ क्षेत्रों में रह रहे सिर्फ बुजुर्ग किसानों को ज्ञात, और आमतौर पर
जल-मुद्दों पर काम करने वाले बहुत से पेशेवरों के रडार के नीचे रहने वाली, फड़ सिंचाई व्यवस्था, पश्चिमी महाराष्ट्र में 200
से अधिक स्थानों पर बनाई गई थी। किसी नदी पर, एक
छोटे गेट-युक्त बांध के माध्यम से जल प्राप्त किया जाता है। इससे पानी का स्तर बढ़
जाता है। इस पानी को एक चैनल के माध्यम से मोड़कर, नदी के
बहाव के साथ-साथ लाया जाता है, और फिर छोटी-छोटी नहरों के एक
नेटवर्क के द्वारा, उन खेतों तक ले जाया जाता है, जिन तक गुरुत्वाकर्षण के बल पर ले जाया जा सकता है।
सामाजिक
नियंत्रण में, बारी-बारी सिंचाई-क्रम व्यवस्था के माध्यम से, फड़ के
प्रबंधन की जिम्मेदारी, योजना का लाभ पाने वाले किसानों की
थी। स्पष्ट है कि यह सुनिश्चित करने के लिए, कि शुष्क मौसम
में प्रत्येक किसान को अपने खेतों को सिंचित करने और फसलें उगाने के लिए पानी मिले,
उनके बीच घनिष्ठ सहयोग और समन्वय की जरूरत थी।
कुछ स्थानों
पर यह पूरी तरह एक सामाजिक रूप से स्थापित और लोगों द्वारा प्रबंधित व्यवस्था थी, जबकि कुछ स्थानों पर इसने सरकार के राजस्व/सिंचाई विभाग के द्वारा लागू
भागीदारी-आधारित सिंचाई प्रबंधन का रूप ले लिया। जब तक इससे प्राप्त होने वाला
राजस्व, सरकारी आमदनी का एकमात्र स्रोत था और फड़ के नियंत्रण
में समझी जाने वाली भूमि पर उच्च दरों पर कर लगाया जाता था, तब
तक राज्य के दबाव के कारण किसान, फड़ का अच्छा प्रबंधन कर रहे
थे।
निर्जीव पड़े फड़
फिर भी, जैसा कि अपेक्षित है, जो लोग पानी के स्रोत के पास थे, उनको लाभ था
क्योंकि वे पानी का एक बड़ा हिस्सा हड़प सकते थे और वे ऐसा फड़ के नियमों का उल्लंघन
करके कर सकते थे। जहां कहीं भी ऐसे लोग सामाजिक और/या राजनीतिक रूप से बेहतर पहुँच
रखते थे, उन्होंने ऐसा मुफ्त में किया है। इसका परिणाम यह
होगा, कि सबसे पीछे वाले लोगों को पानी मिलना बंद हो जाएगा।
उनमें
से कइयों ने कुओं या नलकूप सिंचाई की तरफ मुड़ने को, शक्तिशाली लोगों से भिड़ने और
अधिकार के लिए लड़ने से ज्यादा सुविधाजनक विकल्प समझा। जब नहर-नेटवर्क के माध्यम
से पानी का बहना कई साल तक बंद हुआ, तो नहर-नेटवर्क की
शुद्धता बनाए रखने में किसानों की रुचि नहीं रही और उन्होंने उन जमीन के टुकड़ों पर
भी कब्ज़ा कर लिया। समय के साथ यह व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई।
फड़-सिंचाई का पुनरुद्धार
नासिक जिले की सिन्नर तहसील के निवासी, सुनील पोते ने इस व्यवस्था के पुनरुद्धार के लिए काम करने का फैसला किया।
उन्होंने अपनी तहसील की देव नदी पर निष्क्रिय पड़ी एक प्रमुख फड़ सिंचाई व्यवस्था पर
काम करना शुरू किया। दिक्कत यह थी कि इस फड़ की एकदम दुर्दशा हो चुकी थी। मैंने फड़
व्यवस्था के ठीक होने के बाद इस जगह का दौरा किया और सुनील ने मुझे वह नेटवर्क
दिखाया।
अब ज़मीन जोतने वाले किसान, अपने चालीस के दशक के आयु वर्ग में थे और उन्होंने इस व्यवस्था की मरम्मत
से पहले उन नहरों में कभी पानी नहीं देखा था। लेकिन उनके माता-पिता याद करते हैं,
कि वे कैसे “एक डुबकी लगाने और तैरने के
लिए बहती नहर के पानी में कूदते थे”।
सुनील
ने मुझे बताया कि कैसे उन्हें राजस्व विभाग के पुराने जमीनों के नक्शे और दस्तावेज
खंगालने पड़े, किसानों से बहस करनी पड़ी कि कैसे उनकी ज़मीनों के कब्जे किए हुए हिस्से,
असल में फड़ नहर-नेटवर्क के लिए थे और उन्हें खाली करने और नहर
खोदने के लिए राजी करना पड़ा, ताकि पानी फिर से बह सके।
उन्होंने एक शानदार काम किया और देव नदी पर पूरी व्यवस्था को बहाल कर दिया।
आय में वृद्धि
पहुँच क्षेत्र के किसानों में माली, जो पारम्परिक रूप से फल, सब्जी और फूल उत्पादक हैं,
सहित विभिन्न समुदाय शामिल थे। उनके लिए उनके खेत के लिए बहता पानी
मिलना, एक बहुत बड़ा सुनहरा मौका था, क्योंकि
वे कड़ी मेहनत के साथ, पानी का उपयोग, कई
और फसलें और लम्बे समय तक उगा सकते थे, जिससे उन्हें अधिक आय
हो सकती है।
इसलिए
सुनील ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि उनकी आय वास्तव में काफी बढ़े, उनके साथ काम
करना शुरू कर दिया। उन्होंने मुझे तब बताया था, कि बड़े
किसान एक एकड़ में एक अकेली सब्जी की फसल, मान लीजिए टमाटर,
उगाने का जोखिम ले सकते हैं। जब मैं 2012 में
उनसे मिलने आया था, तो उन्होंने मुझे बताया – “लेकिन मुझे लगता है कि एक पूरे एकड़ में सिर्फ एक टमाटर की फसल उगाना और
उसकी एक ही बार में बुआई करना, एक आपदा को आमंत्रित करना है।
मैं गारंटी से कहता हूँ कि उन्हें 5 लाख रुपये का नुकसान
होगा।”
अलग-अलग समय पर फसल
उन्होंने एक सरल और बहुत ही व्यवहारिक रास्ता निकाला, हालांकि यह ‘पैमाने की अर्थव्यवस्था’
(economy of scale) की पारम्परिक धारणा के खिलाफ है। उन्होंने कहा
कि किसी भी किसान को एक गुंठा (एकड़ का चालीसवां भाग) से ज्यादा में एक ही सब्जी
नहीं उगानी चाहिए।
यदि
कोई किसान एक गुंठे से अधिक में एक ही सब्जी उगाना चाहता है, तो उसे संभव
अवधि के भीतर अलग अलग समय पर उसकी बुआई करनी चाहिए। (किसी भी फसल के लिए उसकी बुआई
का एक महीने से लेकर डेढ़ महीने तक का उपयुक्त समय होता है। इसलिए उसे एक गुंठा
मान लीजिए 1 तारीख को बोया और दूसरा 10 तारीख को, और इसी तरह…, ताकि
वह पांच गुंठे में टमाटर तो लगाए, लेकिन पांच अलग-अलग
तारीखों में।)
सुनील
ने बताया कि यह एकदम उपयुक्त है,
क्योंकि तब फसल की कटाई भी स्पष्ट रूप से अलग-अलग समय में हो सकेगी।
अलग-अलग समय में कटने वाली फसल स्वाभाविक रूप से बाजार जोखिम को कम कर देगी और
कीटों के हमलों के जोर को भी कम जोखिम भरा बना देगी। अपनाने के लिए कितनी सरल बात
है! उन्होंने यह भी तर्क दिया कि जब फसल थोड़ी मात्रा में होती है, तो किसान या उसका बेटा फसल को खुद बाजार में बेच सकता है और उसे बिचौलियों
और व्यापारी के व्यवहार की चिंता करने की जरूरत नहीं होती।
कृषक समुदाय को नुकसान
बाद में सुनील का रुतबा बढ़ा और उन्होंने किसानों की एक निर्माता कंपनी की
स्थापना की, जिसके साथ वह काम कर रहे थे। सामाजिक
रूप से जागरूक, सिंचाई अधिकारी, संजय
बेलसारे के आशीर्वाद और सक्रिय मदद से, उन्होंने कई फड़ व्यवस्थाओं
को पुनर्जीवित करने के लिए, एक बड़ी परियोजना तैयार की।
वे किसान समुदाय की आर्थिक भलाई के लिए काम करते रहे। मुझे उनसे बातचीत
करने का कई बार मौका मिला। हमने कृषि आय बढ़ाने के तरीकों के बारे में प्रोत्साहित
करने के उद्देश्य से, जल-बहाव मोड़ने पर-आधारित सिंचाई
पद्यति पर काम करने वाले संगठनों को परामर्श देने के लिए उन्हें आमंत्रित किया था।
दुर्भाग्य
से सुनील समुदायों के लिए अपने काम के प्रति इतने व्यस्त थे, कि वे अक्सर
अपने स्वास्थ्य को नजरअंदाज कर देते थे। उनकी बीमारी ने COVID-19 के साथ साजिश की, और हमने एक बेहतरीन सामाजिक
कार्यकर्ता खो दिया है। लेकिन इससे पहले वह पश्चिमी महाराष्ट्र के सैकड़ों किसानों
के लिए मुस्कुराहट और समृद्धि लेकर आए। ईश्वर उनकी नश्वर आत्मा को उनके इस दुनिया
में किए अच्छे काम के लिए, अपना आशीर्वाद दे।
यह लेख सुनील पोते की स्नेहपूर्ण स्मृति को समर्पित
है|
गिरीश सोहानी और बिश्वनाथ सिन्हा के अतिरिक्त इनपुट के साथ।
संजीव
फंसालकर पुणे के विकास अण्वेष फाउंडेशन के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन
संस्थान आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे।
फंसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) अहमदाबाद से एक फेलो
हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
‘फरी’ कश्मीर की धुंए में पकी मछली है, जिसे ठंड के महीनों में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। जब ताजा भोजन मिलना मुश्किल होता था, तब यह जीवित रहने के लिए प्रयोग होने वाला एक व्यंजन होता था। लेकिन आज यह एक कश्मीरी आरामदायक भोजन और खाने के शौकीनों के लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बन गया है।
हम में ज्यादातर ने आंध्र प्रदेश के अराकू, कर्नाटक के कूर्ग और केरल के वायनाड की स्वादिष्ट कॉफी बीन्स के बारे में सुना है, लेकिन क्या आप छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में पैदा होने वाली खुशबूदार कॉफी के बारे में जानते हैं?