ग्रामवासियों, गैर-लाभकारी संस्था कार्यान्वयन और कॉर्पोरेट लोकोपकारी फाउंडेशन के सक्रिय तालमेल ने, महाराष्ट्र के वरोती गांव में, कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (CSR) के माध्यम से, विकास कार्यों के लिए एक नया रास्ता दिखाया है
वरोती एक समुंदर के नजदीक रेगिस्तान की तरह
है। पुणे के स्मार्ट शहर से सिर्फ 70 किमी की दूरी पर स्थित,
वरोती के आसपास क्षेत्र में पैंशेट, वारसगाँव
और खड़कवासला जैसे कई उच्च क्षमता वाले भंडारण बांध मौजूद हैं। दुर्भाग्य से,
इन बांधों को शहरवासियों की बढ़ती पानी की जरूरतों को पूरा करने के
लिए बनाया गया था, लेकिन उनके आसपास के गांव कभी भी इनके
मुख्य उपयोगकर्ताओं में नहीं रहे।
वरोती पुणे जिले के सबसे अविकसित प्रशासनिक
ब्लॉक, वेलहा में स्थित है। इस गांव के लिए
रोजाना केवल एक राज्य परिवहन बस चलती थी, लेकिन हाल ही में
वह भी बंद हो गई। यहां बसे 55 परिवारों में से, हर परिवार का कम से कम एक आदमी काम के लिए पुणे या मुंबई में प्रवास में
है।
हालांकि पश्चिमी घाट की सहयाद्रि पहाड़ियों
में होने के कारण, मानसून के दौरान वेलहा और
वरोती गाँव में 2,000 से 2,500 मिमी तक
सालाना बारिश होती है, लेकिन मार्च से जून के महीने बेहद
कठोर मेहनत के होते हैं और इस समय में ग्रामीण महिलाओं और लड़कियों द्वारा दूर-दूर
स्थित पानी के श्रोतों से पीने का पानी ढोने के दृश्य आम होते हैं। पीने का पानी
लाने के लिए रोजाना कठिन रास्ते पर दो से तीन घंटे चलना पड़ता है, जिसमें किसी खड़ी पहाड़ी पर चढ़ने की मजबूरी भी होती है।
एक सतत
समस्या
एक के बाद एक, सभी सरकारों ने समस्या के समाधान के लिए काम किया है।
लगभग 25 साल पहले, सरकार ने पीने के
लिए पाइप के माध्यम से पानी पहुंचाने का डिजाइन तैयार किया और उसे लागू किया। कुछ
वर्षों तक यह योजना ठीक चली, लेकिन रखरखाव की कमी के कारण यह
बेकार हो गई। इस निष्क्रिय योजना को पुनर्जीवित करने के लिए प्रयास किए गए,
लेकिन वे सभी या तो कागजों में रह गए या उन्हें सरकारी विभागों से
मंजूरी नहीं मिली।
वर्ष 2015 की शुरुआत में, ग्रामवासी एकजुट हुए और इस लंबे समय
से चल रहे मुद्दे को सुलझाने के लिए पहल की। शहरों में रहने वाले युवाओं में से
ग्यारह ने एक कुआँ बनाने के लिए प्रारंभिक योगदान के रूप में एक-एक हजार रुपये का योगदान
दिया। कुएँ की खुदाई का स्थान सूखे नाले का आधार था। इस बात पर सहमति हुई कि भारी
बारिश में बहने वाले पानी को इकठ्ठा करने और उसका भंडारण करने के लिए गहरी खुदाई
की जाए।
लेकिन खुदाई का बजट 5 लाख रुपये के करीब था। लगभग इसी समय ग्रामवासियों ने एक गैर-लाभकारी संस्था, ज्ञान प्रबोधिनी (जेपी) को संपर्क किया, जो 30 वर्षों से इस क्षेत्र में मौजूद है और विकास संबंधी कई काम करती है।
जेपी ने सिर्फ इस शर्त पर धन जुटाने में सहायता का फैसला किया, कि सभी प्रयासों में सबसे आगे ग्रामवासियों को रहना होगा। ग्रामवासी आसानी से मान गए। आवश्यक धनराशि, जेपी स्कूल के पूर्व-छात्रों और पुणे की एक आईटी फर्म की कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (CSR) के अंतर्गत बनी परसिस्टेंट फाउंडेशन से जुटाई गई।
2015 से 2017 के तीन सत्रों में, 33 फीट गहरा और 30 फीट व्यास के एक कुएं का निर्माण किया गया। परसिस्टेंट के प्रतिनिधि और
जेपी के पूर्व छात्र, मार्च 2017 में
कुएँ के उद्घाटन के लिए आयोजित एक समारोह में इकठ्ठा हुए। इस अवसर को लोकार्पण
सोहला (समुदाय को समर्पित करने का कार्यक्रम) ठीक ही कहा गया। यह सीएसआर के द्वारा
काम के एक नए मॉडल का जश्न मनाने का अवसर था।
निष्क्रिय CSR से सक्रिय कार्यों तक
वरोती मॉडल ने तीनों हितधारकों की एक अलग
और सक्रिय किस्म की गुणात्मक गतिविधियों का प्रदर्शन किया है, जो सही मायनों में सक्रिय है। सबसे पहले, शुरू से अंत तक ग्रामवासियों ने इसका नेतृत्व किया है। दूसरे, यह एनजीओ के प्रयास थे, जिसने शुरू से ही जोर दिया
कि यह एक सहायक भूमिका निभाएगा और यदि समुदाय के लिए यह एक केंद्रीय मुद्दा नहीं
और उसका पर्याप्त सहयोग और भागीदारी नहीं हुआ, तो उस पर पैसा
खर्च करने का कोई दबाव नहीं होगा।
तीसरे, कॉरपोरेट फाउंडेशन ने अपनी भूमिका केवल एक दानदाता के रूप में नहीं देखी।
इसने अपने कर्मचारियों को अधिक संवेदनशील होने और स्वैच्छिक श्रम के माध्यम से
सक्रिय रूप से भाग लेने के बारे में शिक्षित करने के अवसर के रूप में देखा।
वरोती ग्राम समुदाय को, सभी के योगदान करने के लिए तैयार होने और अपने गांव
में इस काम को होते देखने के तीन साल तक संयम से इंतजार करना पड़ा। एनजीओ के लिए,
वरोती 15 ऐसी परियोजनाओं में से एक थी,
जो गर्मी के पहले के महीनों में एक साथ लागू हो रही थी। लेकिन इसके
स्वयंसेवकों ने यह सुनिश्चित किया कि वे समुदाय की सहमती पाने के लिए जल्दबाजी न
करें और 31 मार्च से पहले धन खर्च करने की मजबूरी के हवाले
से धनराशि का वायदा न करें, क्योंकि यह उन्हीं गलतियों को
दोहराने जैसा होता और उसमें स्वामित्व का अभाव रहता।
कॉर्पोरेट
नेतृत्व
कॉर्पोरेट फाउंडेशन के लिए उसके नेतृत्व
द्वारा किया गया कार्य एक उदाहरण बन गया। साल भर में, प्रत्येक शनिवार और रविवार को आईटी कम्पनी के 25
से 35 आयु वर्ग के पुरुष और महिला कर्मचारियों
ने 15-20 के समूहों में श्रम दान किया। साल के दौरान कुल 120
से अधिक स्वयंसेवकों ने गाँव की यात्रा की। एक उत्साहजनक बात यह हुई,
कि एक अन्य आईटी कम्पनी के कर्मचारी भी श्रमदान में शामिल हुए।
किसी आम शनिवार को, एक विशेष समूह सुबह गांव जाता है, ग्रामवासियों के साथ मिलकर श्रमदान करता है और शाम को शहर लौट आता है।
जहां विस्फोट-सम्बन्धी या उस तरह का काम अर्थमूवर्स और दूसरी मशीनों के उपयोग से
किया जाता था, वहीं उससे निकले मलबे को स्वयंसेवकों की मानव
श्रृंखला शनिवार को साफ कर देती थी। इस प्रकार पूरे सप्ताह काम तेजी के साथ आगे
बढ़ता था।
परिणामस्वरूप, तीन साल के निरंतर काम से, कुएँ
को गहरा करने का काम पूरा हो गया। इसके बाद, कुछ स्वयंसेवकों
और ग्राम समुदाय की उपस्थिति में कुआँ गांव को समर्पित किया गया। तैयार कुएँ से यह
सुनिश्चित हो गया कि आगामी गर्मियों के मौसम में, महिलाओं को
पीने का पानी लाने के लिए दूर के जल स्रोत तक आना जाना नहीं पड़ेगा।
ग्रामवासियों
ने मोर्चा संभाला
मेट्रोपॉलिटन शहरों के वातानुकूलित दफ्तरों
में बैठे और ग्रामीण जीवन की वास्तविकता से अलग तरह के काम में लगे कर्मचारियों और
ब्लू-कॉलर श्रमिकों के लिए, वरोती मॉडल के क्या मायने
हैं? यह कर्मचारियों के लिए एक अवसर प्रदान करता है कि वे उन
नागरिकों से जुड़ सकें और इस प्रक्रिया में उनकी दुर्दशा के लिए सहानुभूति विकसित
कर सकें, जो उतने भाग्यशाली नहीं हैं।
यह कर्मचारियों के एक चर्चा सत्र में जाहिर
हुआ। उनमें से कई लोगों को जीवन में पानी के महत्व का अहसास हुआ, क्योंकि वे इसकी प्रचुरता और उपलब्धता को लगभग
सुनिश्चित मानने लगे थे। वरोती के संपर्क ने उन्हें उसके अभाव के बारे में अवगत
कराया और उनमें से कुछ ने इसका उपयोग सावधानी और देखभाल के साथ करने का संकल्प
लिया।
वरोती ग्रामवासियों के लिए, और विशेष रूप से महिलाओं के लिए, उनके घरों के पास पानी की उपलब्धता और वह भी साल भर, लगभग एक सपना सच होने जैसा है। लंबे समय तक, उन्होंने
अपने हालात से निपटने के लिए किसी और की प्रतीक्षा की। कुछ खास हासिल करने में सफल
न होने पर, वरोती की सफलता इस कहावत को बल देती है, कि स्व-सहायता सबसे अच्छी मदद होती है।
इस तरह के कार्यों में किए जाने वाले
प्रयास को अक्सर पृष्ठभूमि में डाल दिया जाता है। इसका श्रेय ग्रामवासियों को जाता
है, कि वे न सिर्फ श्रमदान करने के मामले
में पीछे नहीं रहे, बल्कि उन्होंने एनजीओ की मदद से यह भी सुनिश्चित
किया कि सरकार के दस्तावेजों में कुएँ के गहरा करने के तेजी से दर्ज हो।
वरोती साझेदारी के एक नए मॉडल की मिसाल भी पेश करता है। यह साझेदारी का एक सच्चा मॉडल है, जो सीएसआर के माध्यम से शहरी युवाओं, मदद कर रहे गैर-सरकारी संगठनों और उन गांवों के बीच एक पुल का काम करता है, जो शहरी कुलीन वर्ग के मन के इतना नजदीक होने के बावजूद इतना दूर है। साझेदारी इस मायने में समान है, कि इसमें सीएसआर के फण्ड के माध्यम से आने वाले धन को इस उपलब्धि पर हावी नहीं होने देता है।
अजीत कानितकर पुणे में विकास अण्वेश फाउंडेशन में शोध टीम के सदस्य हैं। इससे पहले, उन्होंने फोर्ड फाउंडेशन और स्विस एजेंसी फॉर डेवलपमेंट एंड कोऑपरेशन (दोनों नई दिल्ली में) में काम किया। उन्होंने 1992-1995 के दौरान इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट, आणँद में पढ़ाया। विचार व्यक्तिगत हैं।
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